24 अक्टूबर 2011

तुम्हें नये नये उपाय खोजने पडेंगे


मैं आपका संदेश घर घर हृदय हृदय में पहुंचाना चाहता हूं । पर लोग बिलकुल बहरे हैं । अंधे हैं । मैं क्या करूं ? जो पाया है । उसे पाकर न बांटू ? यह भी संभव नहीं है । उसे बांटने की भी तो 1 अपरिहार्यता है ।
- निश्चय ही उसे बांटने की 1 अपरिहार्यता है । उससे बचा नहीं जा सकता । उसे बांटना ही होगा । उसे रोकने का कोई उपाय ही नहीं है । बादल जब भर जाएंगे जल से । तो बरसेंगे ही । और फूल जब खिलेगा । तो सुगंध उड़ेगी ही । और दीया जब जलेगा । तो प्रकाश विकीर्ण होगा ही । बांटना तो पड़ेगा । लेकिन बांटने में शर्त बंदी न करो । क्या फिक्र करना कि कौन बहरा है । कौन अंधा है ? आखिर अंधे को भी तो आंख देनी है न । और बहरे को भी कान देने हैं न । ऐसे देख देखकर चलोगे कि आंख वाले को देंगे । तो आंख वाले को तो जरूरत ही नहीं है । वह तो खुद ही देख ले रहा है । और उसको ही देंगे । जो सुन सकता है । जो सुन सकता है । उसने तो सुन ही लिया होगा । वह तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठेगा ? आंख है जिसकी खुली हुई । उसने देख लिया । कान हैं । जिसके पास सुनने के । उसने सुन लिया - नाद । वह तुम्हारी राह थोड़े ही देखेगा कि तुम जब आओगे । तब सुनेगा । उसकी बासुरी तो बज गई । उसकी रोशनी तो जल गई । अंधे और बहरों को ही जरूरत है । इसलिये यह मत सोचे कि अंधे बहरे लोग हैं । इनको कैसे दें ? इनको ही देने में मजा है । इन्हीं को देने में कला है । इन्हीं को देने की चेष्टा में तुम्हें नये नये उपाय खोजने पडेंगे । नई भाषा । नई भाव भंगिमाएं खोजनी पड़ेगी । और इन्हीं को देने में तुम विकसित भी होओगे । क्योंकि जो मिला है । इसका कोई अंत थोड़े ही है । जितना बाटोगे । उतना और मिलेगा । जितना लुटाओगे । उतना और पाओगे । फिक्र छोड़ो । शर्तबंदी छोङो । जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से - चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर चिल्लाओ । लोग बहरे हैं । चिल्लाना पड़ेगा । झकझोरो । लोगों को जगाओ । लोग सोये हैं । और जब तुम झकझोरोगे सोये हुए लोगों को । तो वे नाराज भी होंगे । गालियां भी देंगे । कौन जागना चाहता है - सुखद नींद से । और नींद वाले को पता भी क्या कि जागने का मजा क्या है ? पता हो भी कैसे सकता है ? वह क्षम्य है । अगर नाराज हो । और बहरा अगर न माने नाद के अस्तित्व को । तो तुम क्रुद्ध मत हो जाना । वह मानेगा । तो उसका मानना झूठ होगा । और झूठे मानने से कोई क्रांति नहीं होती । उसके न मानने से टकराना । उसके न मानने को काटना । इंच इंच तोड़ना । उठाना छैनी और उसके पत्थर को काटना । जन्म से कोई भी बहरा नहीं है । और जन्म से कोई अंधा नहीं है । मैं आध्यात्मिक अंधेपन और बहरेपन की बात कर रहा हूं । जन्म से सभी लोग आध्यात्मिक आखें और आध्यात्मिक कान लेकर पैदा हुए हैं । क्योंकि आत्मा लेकर पैदा हुए हैं । समाज ने कानों को बंद कर दिया है । रुद्ध कर दिया है । कानों में रुई भर दी है -शास्त्रों की । शब्दों की । सिद्धातों की । आखों पर पट्टिया बौध दी हैं । जैसे कोल्हू के बैल या तांगे में जुते घोड़े की आंख पर पट्टी बांध देते हैं । ऐसी पट्टिया बांध दी हैं । कोई अंधा नहीं है । कोई बहरा नहीं है । जरा तुमने अगर प्रेम पूर्ण मेहनत की । तो पट्टिया उतारी जा सकती हैं । फुसलाना होगा । जरा तुमने अगर मेहनत की । तो उनके कानों से रुई निकाली जा सकती है । मगर एकदम से वे तुम्हारी बात मानने को राजी नहीं होंगे । जल्दी भी क्या है ? परमात्मा के काम में जल्दी की जरूरत भी नहीं है । उसकी मर्जी होगी । तो तुमसे काम ले लेगा । उसकी मर्जी होगी । तो तुमसे किन्हीं को गवा लेगा । किन्हीं की आखें खुलवा लेगा । और उसकी मर्जी नहीं होगी । तो तुम्हारी चिंता क्या है ? तुम्हारी खुल गई । यही क्या कम है ।
तुम बहते जाना बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध से सूरज, चांद, सितारे ।
गल रही बरफ, चल रही हवा, जल रहे यहां अंगारे ।
है आना जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई ।
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे ?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे ?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे ।
है यह कांटो की राह विवश सा सबको चलते रहना ।
जो स्वयम प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे ।
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती ।
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती ।
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे ।
है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती ?
यह रंग बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें ।
हैं ग्रीष्मकाल की दाहक लपटों में रस की बरसाते ।
यह बनना मिटना अमिट काल के चल चरणों का क्रम है ।
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें ।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई ।
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई ।
हिम खण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी ।
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
फिक्र न करना । तुम्हारे भीतर जो हुआ है । उसे कहे जाओ । कहे जाओ । कोई सुने तो । कोई सुने न तो । कोई चिंता नहीं । कोई न देखे तो । तुम बांटते रहो । 100 में से अगर 1 ने भी देख लिया । और 100 में से अगर 1 ने भी सुन लिया । तो तुम धन्यभागी हो । उतना ही बहुत है । तुम्हारा श्रम सार्थक हुआ । बांटना अपरिहार्य है । शर्त बंदी छोड़ दो । पात्र अपात्र का विचार न करो । यह पात्र अपात्र का विचार न करो । यह पात्र अपात्र का विचार ही बाधा बन जाता है । लोग सोचते हैं - पात्र को देंगे । फिर पात्र मिलता नहीं । क्या पात्र । क्या अपात्र ? तुम जिसको दोगे । वही पात्र बन जायेगा । तुम देते ही जाना भाई ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326