देह का केन्द्र नाभि एवं
मन का केन्द्र आत्मा है। इनसे विस्थापित ब्रह्म ही जन्म-मरण आदि द्वय-चक्रिय जीव है।
स्वांस को नाभि एवं मन को आत्मा (तालु) पर थिर करने से सोऽहं जीव हंऽसो होकर पुनः एकचक्रिय
हो जाता है।
इन दो को भेदना ही अमरगति
है।
कस्तूरी कुंडल बसै, मिरग
ढूंढ़े वन माहिं।
स्वांस-स्वांस में रमि
रह्यो, मूरख चेते नाहिं॥
आस-वास दुबिधा सब खोई।
सुरति एक कमलदल होई॥
चतुष्टय अंतःकरण का
एक होना ही सु-रति है। पांच ज्ञान, पांच कर्मेंद्रिय, मन को एकादश कर सकाम/निष्काम एकादशी, दशरथ, राम संयोग से फ़लित होती है। द्वैत की एकादशी भोग एवं अद्वैत की मोक्षदाता
है।
हे राम! (जीव रहने
तक) इसे अविराम प्राप्त करो।
माया को माया
मिले, कर-कर लंबे हाथ।
तुलसीदास
गरीब की,
कोई न पूछे बात॥
हम-तुम
दोनों एक हैं। कहन-सुनन को दोय।
मन से मन को तौलिये, दो
मन कबहु न होय॥
(पोस्ट में राम, दशरथ शब्द का भाव त्रेतायुगीन राम से नहीं है)
काम बिगाड़े भक्ति को, क्रोध
बिगाड़े ज्ञान।
लोभ बिगाड़े त्याग को, मोह बिगाड़े
ध्यान॥
तन मटकी मन दही, सुरत
बिलोवनहार।
माखन संतन चाखिया, छांछ
पिये संसार॥
करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी
दिन-रात।
कूकर सम भूकत फिरे, सुनी-सुनाई बात॥
कूकर सम भूकत फिरे, सुनी-सुनाई बात॥
जीत-जीत तूने
उमर गुजारी, अब तो हार फकीरा।
जीत का मूल चार कौड़ियां, हार का
मूल हीरा॥
जब तक गुरू मिले नहिं
सांचा।
गुरू करो तुम एक सौ पांचा॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें