11 जुलाई 2019

बिरला पावै भेद



मन के पक्ष सब जगत भुलाना। मन चिन्हे सो चतुर सुजाना।
मन चिन्हे बिनु पार न पावे। देह धरे फिर भवजल आवे।
भर्म छोड़ी शब्दकहं लागे। कहें दरिया प्रेमरस पागे।
मन के चिन्हे राखे एक ठाईं। जरा-मरन भव कबहिं न पाई।
मन कर्ता सब काज सँवारे। मनहिं लई नर्कमंह डारें।
मनहिं तीर्थ सकल फिरावे। मनहिं मन के पूजा चढ़ावे।
मनहिं मारि मनहिं में आवे। मनहिं चीन्हि के जग समुझावे।
मन के सनक-सनन्दन लागे। मनहिं के योगी जग में जागे।
मनहिं वेद-कितेब पुराना। मनहिं षटदर्शन जग जाना।
नवधा भक्ति मनहिं बुझावे। मूलभक्ति विरला कोई पावे।
जबलगि मूलशब्द नहिं पावे। तबलगि हंस लोक नहिं जावे।

भोग किये तो रोग है, राज किये तो नर्क
तीनि सौ साठि सिर पाप है, कहां तुम्हरो तर्क

मन औटे तो राज है, मन चिन्हे तो संत
मन है जीव के साथ में, विसरी गया निजु मंत

झनकारै अनहद है जहवां, सुरति-सनेही पहुँचे तहवां।

और-और कछु सुनै न भाखै, उनमुनि सर्द अमीरस चाखै॥
मन थिर होय न एकौ बाता, तौ पतियाय जो अनहद राता।
जहँलग जग में बाजे होई, अनहद मांहिं सुनै सब कोई॥
सुरति से देखे निरति अखाङा, सतगुरू मता यही है सारा।
वाही घर जो सुरति लगावै, सो घर सतगुरू अजर दिखावै॥
ज्ञानी होय कोइ सुरति सनेही, भेद बखानै अविचल देही।

बंधन तें न्यारा रहै, बिरला पावै भेद।
काहे को जप-तप करै, पढ़े सास्त्र और वेद॥

मन तब गगन समाय, धुन सुनकर जो मगन होय।
नहिं आवै नहिं जावै, सुन्नि सब्द थिति पावई॥


ब्रह्मा भक्ति शिव की भक्ति। राम-कृष्ण विष्णू अरू शक्ति।
निर्गुण भक्ति योगेश्वर धारी। पुरूष भक्ति इनते है न्यारी ।
जागृत रजगुन रूप कहिजै। सतगुन रूप स्वप्न कहि दीजै।
तमगुन रूप सुषुप्ति कहावै। देहमंत्री गुन सुभाव बतावै।
रजगुण ब्रह्मा है संसारी। कर्मजाल जिन जक्त पसारी।
तमगुण रूप महादेव केरा। भवसागर में ताको डेरा।
कालनिरंजन निर्गुण राई। तीन लोक जिहिं फिरे दुहाई।
सात-द्वीप पृथ्वी नौ-खण्डा। सप्त पताल इक्कीस ब्रह्माण्डा।
सहज सुन्न में कीन्ह ठिकाना। कालनिरंजन सबही ने माना।
ब्रह्मा-विष्णु और शिव देवा। सब मिल करें काल की सेवा।

हरि नाम है विष्णु का। जिन कीन्हा सब जेर।
चौरासी भरमे सदा। मिटै न भव का फेर।

निरंजन नाम अक्षर ठहराई। अंचित भेद नहिं पावै भाई।
एक ब्रह्म द्वितिया कुछ नाहीं। स्वपन समान जक्त दरशाहीं।
ब्रह्म में जबही माया डोले। ताको सब ईश्वर कहि बोले।
रजोगुन ब्रह्मा तमोगुण संकर सतोगुनी हरि होई
कहैं कबीर राम रमि रहिये हिन्दू-तुर्क न कोई

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