=धर्म-चिंतन=
नियोग विधि से धृतराष्ट्र, पांडु,
विदुर को जन्माने वाले, गुरू-शिष्य परंपरा के स्थापक,
व्यास जी स्वयं वृद्धावस्था तक संतानहीन थे। अमरनाथ गुफ़ा में (कबूतर
या) तोता द्वारा शंकर जी से अमर-कथा सुनकर, शंकर द्वारा मारने
को उद्धत, तोता व्यास पत्नी (पिंगला या) आरुणी के मुख द्वारा
गर्भ में प्रविष्ट हो बारह वर्ष तक रहा। फ़िर बारह वर्ष का ‘मनुष्य बालक’ गर्भ से निकल
कर सीधा वन में तप करने चला गया।
समाधि स्थिर होने पर
द्वैत (तुरीया) पूर्ण शान्त होकर (तुरीयातीत) अद्वैत स्थिर हो जाता है तब उस
स्थिति को प्राप्त योगी को सब लोक स्वप्न के समान दीखते हैं। अर्थात जल के बुलबुले
के समान उनकी उत्पत्ति-प्रलय होती है।
सपना द्वैत अपना
अद्वैत है।
अद्वैते
स्थैर्यमायाते द्वैते प्रशममागते।
पश्यन्ति
स्वप्नवल्लोकांश्चतुर्थीं भूमिकामिता:॥
केती लहरि समंद की, कत
उपजै कत जाइ।
बलिहारी ता दास की, उलटी माँहि समाइ॥
क्षीर रूप हरि नाम है, नीर आन व्यौहार।बलिहारी ता दास की, उलटी माँहि समाइ॥
हंस रूप कोई साधु है, तत को जाननहार॥
वक्ता-ज्ञानी
जगत में, पंडित-कवी अनंत।
सत्य-पदार्थ
पारखी, बिरला कोइ संत॥
ध्यानी-ज्ञानी
दाता घने। रथी-महारथी अनेक।
कहैंकबीर मान विरहित, कोइ लाख
में एक॥
कबीरा ज्ञान बिचार बिन, हरी ढूंढन
को जाय।
तन में त्रिलोकी बसे, अब तक
परखा नाय॥
निर्बुद्ध को सूझे नही, उठी-उठी देवल जाय।
दिल देहरा की खबर नही, पाथर
पीछे जाय॥
तेरे हृदय में हरी है, ताको
न देखा जाय।
ताको जबही देखिये, दिल की
दुविधा जाय॥
शीतल शब्द उचारिये, अहम मानिये
नाहीं।
तेरा प्रीतम तुझ में है, दुश्मन
भी तुझ माहीं॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें