मरा का
विपरीत ही राम है अतः राम के लिये (जीते जी ही) मरना पङता है। दूसरी कोई युक्ति
नहीं। सोऽहं मन, हंऽसो ज्ञान से मर जाता है। और चेतन हंऽसो ही
पारब्रह्म का अधिकारी है।
जीते जी
मरने की विधि समर्थ सदगुरू देता है।
उल्टा
नाम जपा जग जाना।
वाल्मीकि
भये ब्रह्म समाना॥
मरन-मरन
सब कोय कहे, मरन न जाने कोय।
एक बार
ऐसे मरो, फ़ेर मरन ना होय॥
मैंही
मैंही मैंही, और बस मैं ही, यही मैं रूपी
अज्ञान आवरण से ढका आत्म ‘जीव’ है। मैं का नाश होते ही ज्ञान/आत्म/प्रज्ञा का प्रकाश होता है। जीव से शिव!
शिव से शक्ति! शक्ति से आत्म।
हरि
व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम से
प्रकट होत ‘मैं’ जाना॥
जब मैं
था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।
सब
अंधियारा मिट गया, दीपक देख्या मांहि।
मैं का
जाना, परमात्मा का आना है।
और ये
होना सिर्फ़ भ्रंगमता शब्दगुरू द्वारा संभव है।
अनवरत स्रष्टि विकास
प्रक्रिया में क्रमादेशों की भांति असंख्य नियमादि अच्छे-बुरे भाव रचे। जो
मूल/ब्रह्म/शिवोह्म/सामूह संकल्प से स्रष्ट हुये। अतः इनको निर्मूल/परिवर्तित करने
की भी यही विधि है। इसलिये संकल्प अकल्प से नष्ट होता है।
यही वास्तविक मोक्ष
है शेष मुक्ति।
पुरूष कहो तो पुरूषहि
नाहीं। पुरूष हुवा आपा भू माहीं।
शब्द कहो तो शब्दहि नाहीं। शब्द होय माया के छाहीं।
शब्द कहो तो शब्दहि नाहीं। शब्द होय माया के छाहीं।
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