27 जुलाई 2019

वाटस एप्प सतसंग पर आये प्रश्न 1





प्रश्न - सतपुरूष कबीरदेव साहेब और परमतत्व का क्या सम्बन्ध? क्या कबीरदेव साहेब ही परमतत्व हैं? या फिर कबीरदेव साहेब परमतत्व से परे के अबूझ, अज्ञात, गुणातीत तत्व हैंकृपया उचित ज्ञान प्रदान करें।

उत्तर - सतपुरूष, कबीर, कालनिरंजन आदि आत्मा की विभिन्न प्रमुख स्थितियां हैं। पुरूष या कबीर या साहेब शब्द सिर्फ़ किसी व्यक्ति विशेष का सूचक नहीं है अपितु जो भी उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है उसी के लिये है।

सर्वज्ञ और सर्वनियंता कायावीर को ही कबीर कहा है। आत्मा की स्वाधीन, स्वछंद स्थिति, जिस पर कोई स्रष्टि विधान लागू नहीं होता। कबीर ने कहा भी है ‘अपनी मढ़ी में आप में डोलूं, खेलूं खेल स्वेच्छा

वैसे प्राप्त वाणियों एवं विवरणों के आधार पर यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि आत्म-परमात्म एवं स्रष्टि रहस्य को जितना कबीर ने जाना, और वर्णन किया, वैसा उदाहरण कोई दूसरा नहीं है। फ़िर भी स्वयं कबीर साहब के अनुसार उनकी ही समस्त वाणियां सिर्फ़ संकेत मात्र है, और मूलभेद कुछ अलग ही है - अवधू मूलभेद कछु न्यारा।
-------------------------
प्रश्न - क्योंकि कुछ मूलतः तांत्रिक गुरूओं के सार्वजनिक रूप से दिये गये उनके गुरूमंत्र में 1. सर्वतत्व अथवा परमतत्व 2. नारायण 3. गुरू आदि शब्दों का समुचित प्रयोग होता है। जिससे कि उनके शिष्यों को लगता है कि उनके गुरू, जिनका नाम भी नारायण से शुरू होता है, वो ही परमात्मा परमतत्व हैं। वे ही साक्षात नारायण रूप में अवतरित हुये हैं/थे। उक्त गुरू ‘नारायण..’ का सतपुरूष कबीरदेव साहेब के परिपेक्ष्य में क्या सम्बन्ध या स्थिति है, या बनती है? इस गूढ़ बात पर प्रकाश डालें।

उत्तर - कबीर का सही अर्थ “है’’ है। परमतत्व से परे कुछ नहीं। नारायण, मनुष्य की शुद्ध स्थिति है जो भग युक्त है। परमतत्व की तुलना में नारायण बेहद तुच्छ स्थिति है। गुरूमंत्र में वाणी का कोई भी शब्द/अक्षर हो, वह परमतत्व तक नहीं जाता। क्योंकि वह शब्दातीत, अक्षरातीत, गुणातीत और यहाँ तक कि प्रकृति से भी परे है।

सिर्फ़ आत्मा के प्रथम स्फ़ुरित ‘सारशब्द’ से उसका कुछ सम्बन्ध अवश्य है। लेकिन वह शब्द वाणी का नहीं है। परमात्मा मन, इन्द्रिय से अगोचर है। वह किसी ध्यान, क्रिया, योग आदि से प्राप्त नहीं होता। योग, ध्यान, क्रिया आदि सिर्फ़ शुरूआती सहायक हैं जो पात्र होने की भूमिका निभाते हैं।

गो गोचर जहँलगि मन जाई, सो सब माया जानो भाई।
-------------------------------
प्रश्न - तो क्या उपरोक्त रेफेरेंस किया हुआ गुरूमंत्र परमात्मा से साक्षात्कार कराने के निमित्त ही है, एवं उस हेतु पर्याप्त है? अथवा इसमें भी कुछ अबूझ, अज्ञात, छुपा हुआ रहस्य अथवा पेच हैक्या ये समझा जाये कि परमतत्व=परमात्मा, या कहें तो परमात्मा परमेश्वर=परमतत्व?

क्या हमारे जैसे लाखों, करोड़ों, अरबों अज्ञानियों को सही ज्ञान प्रदान करके इनके बीच का भेद, अभेद बताने/समझाने का विचार करेंगें ताकि जनमानस में सद्ज्ञान की जाग्रति हो। क्योंकि मैं भी आज तक इन्हें अभिन्न ही मानता, समझता रहा हूँ।

उत्तर - गुरूमन्त्र से परमात्मा का सिर्फ़ शुरूआती सम्बन्ध है। परमतत्व, परमात्मा, परमेश्वर तीनों भिन्न हैं। तथापि 70% समान हैं। वास्तव में परमात्मा असंख्यकला है, और उसके बारे में कहा गया कुछ भी ‘अंधों के हाथी’ के समान है। इसीलिये कहा गया है कि परमात्मा मन, बुद्धि से परे है। वह सिर्फ़ पहुँचे हुये समर्थ सदगुरू और कृपा से ही जाना जाता है।

जेहि जाने जाहि देयु जनाही, जानत तुमहि तुमहि हुय जाही।

परमतत्व, उसके लिये कहा है जब यह स्रष्टि आदि कुछ भी नहीं था। सिर्फ़ वही था। परमात्मा, उस पुरूष को कहा है, जो स्रष्टि का प्रथम प्रधान पुरूष था, जो अब स्थिति है। परमेश्वर उसे कहा है, जो स्रष्टि निर्माण के बाद, स्रष्टि सहित सर्वनियंता पुरूष हुआ। लेकिन यह भी सिर्फ़ स्थिति ही है।
-----------------------------
प्रश्न - ये शब्द ‘परमपिता’ भी ज़ेहन में आया तथा ‘परमहंस’ भी। परमहंस की अगली आध्यात्मिक उन्नतिशील गति क्या होती है? परमहंस कहित स्वामियों, साधुओं, गुरूओं आदि का कौन सा चक्र जाग्रत रहता है? क्या वो अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार चक्र ये उसके ऊपर के चक्र तक जाग्रत रहते हैं?

उत्तर - परमपिता, इसलिये कहा है, क्योंकि उस एक से ही समस्त जीव उत्पन्न हुये। एकोहम बहुस्यामि। परम यानी उसने जीवों को रज-वीरज और शरीरों के द्वारा उत्पन्न नहीं किया। परमहंस, उस स्थिति को कहते हैं जब हंस ब्रह्मांड का शिखर पार कर पारब्रह्म परमात्मा के क्षेत्र में विचरता है।

जब हंसा परमहंस होय जावै।
पारब्रह्म परमात्मा साफ़-साफ़ दिखलावै।

परमहंस की अगली गति अचल में ठहराव, और असंख्य कलाओं का लय योग आदि है। फ़िर वह निरंतर ‘है’ में रहता है। इसके बाद वाणी का विषय नहीं रह जाता। लेकिन फ़िर भी बहुत कुछ है।
परमहंस स्थिति का चक्रों से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि वह देह से परे विदेही स्थिति है। वास्तव में आत्मज्ञान का कुंडलिनी/चक्र आदि से कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन ‘बोध’ होने से वह सब स्वयं ही जाग्रत हो जाते है। पर आत्मज्ञान का असली साधक उन्हें कोई महत्व नहीं देता।

आजकल ‘परमहंस’ लगाने वाले हंस या गुरू स्तर के भी नहीं हैं। वृति और सुरति, दो तरह के सन्त होते हैं। जिनमें वृति वाले, प्रयोगात्मक ज्ञान से शून्य, भक्ति आचरण वाले होते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326