22 मई 2011

प्रेयसी में 1 अस्थायित्व है

यह जानकर आप हैरान होंगे । हम सबको खयाल में आता है कि स्त्रियां इतना सौंदर्य की क्यों चिंता करती है ? इतने वस्त्रों की । इतनी फैशन की । इतने गहने । इतने जवाहरातों की ? तो शायद आप सोचते होंगे । यह कोई स्त्री चित्त में कोई बात है । बात उलटी है । उलटी बात है । उलटी ऐसी है कि स्त्री चित्त यह सारा इंतजाम इसीलिए करता है । क्योंकि पुरुष इससे ही प्रभावित होता है । पुरुष का कोई और अस्तित्वगत आकर्षण नहीं है । इसलिए स्त्री को पूरे वक्त इंतजाम करना पड़ता है । और पुरुष 1 से ही कपड़े जिंदगी भर पहनता रहता है । उसे चिंता नहीं आती । क्योंकि स्त्री कपड़ों के कारण प्रेम नहीं करती । और पुरुष हीरे जवाहरात न पहने । तो कोई अंतर नहीं पड़ता है । स्त्री हीरे जवाहरात देखती ही नहीं । पुरुष सुंदर है । या नही । इसकी भी स्त्री फिक्र नहीं करती । उसका प्रेम है । तो सब है । और उसका प्रेम नहीं है । तो कुछ भी नहीं है । फिर बाकी चीजें बिलकुल मूल्य की नहीं हैं ।
लेकिन पुरुष के लिए बाकी चीजें बहुत मूल्य की हैं । सच तो यह है कि जिस स्त्री को पुरुष प्रेम करता है । अगर उसका सब आवरण और सब सजावट अलग कर ली जाए । तो 90%  स्त्री तो विदा हो जाएगी । और इसलिए

अपनी पत्नी को प्रेम करना रोज रोज कठिन होता चला जाता है । क्योंकि अपनी पत्नी बिना सजावट के दिखाई पड़ने लगती है । 90%  तो मेकअप है । वह विदा हो जाता है । जैसे ही हम परिचित होना शुरू होते हैं ।
स्त्री ने कोई मांग नहीं की है - पुरुष से । उसका पुरुष होना पर्याप्त है । और स्त्री का प्रेम है । तो यह काफी कारण है । उसका प्रेम भी इंटयूटिव है । इंटलेक्चुअल नहीं है । बौद्धिक नहीं है । और दूसरी बात । उसके प्रेम के इंटयूटिव होने के साथ साथ उसका प्रेम पूरा है । पूरे का अर्थ है - उसके पूरे शरीर से उसका प्रेम जन्मता है । पुरुष के पूरे शरीर से प्रेम नहीं जन्मता । उसका प्रेम बहुत कुछ जेनिटल है । इसलिए जैसे ही पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है । प्रेम बहुत जल्दी कामवासना की मांग शुरू कर देता है । स्त्री वर्षों प्रेम कर सकती है बिना कामवासना की मांग किए । सच तो यह है कि जब स्त्री बहुत गहरा प्रेम करती है । तो उस बीच पुरुष की कामवासना की मांग उसको धक्का ही देती है । शाक ही पहुंचाती है । उसे एकदम खयाल भी नहीं आता कि इतने गहरे प्रेम में और कामवासना की मांग की जा सकती है ।
मैं सैकड़ों स्त्रियों को, उनके निकट, उनकी आंतरिक परेशानियों से परिचित हूं । अब तक मैंने 1 स्त्री ऐसी नहीं पाई । जिसकी परेशानी यह न हो कि पुरुष उससे निरंतर कामवासना की मांग किए चले जाते हैं । और हर स्त्री परेशान हो जाती है । क्योंकि जहां उसे प्रेम का आकर्षण होता है । वहां पुरुष को सिर्फ काम का आकर्षण होता है । और पुरुष की जैसे ही काम की तृप्ति हुई । पुरुष स्त्री को भूल जाता है । और स्त्री को निरंतर यह अनुभव होता है कि उसका उपयोग किया गया है - शी हैज बीन यूज्ड । प्रेम नहीं किया गया । उसका उपयोग किया गया है । पुरुष को कुछ उत्तेजना अपनी फेंक देनी है । उसके लिए स्त्री का 1 बर्तन की तरह उपयोग किया गया है । और उपयोग के बाद ही स्त्री व्यर्थ मालूम होती है । लेकिन स्त्री का प्रेम गहन है । वह पूरे शरीर से है । रोएं रोएं से है । वह जेनिटल नहीं है । वह टोटल है । कोई भी चीज पूर्ण तभी होती है । जब वह बौद्धिक न हो । क्योंकि बुद्धि सिर्फ 1 खंड है मनुष्य के व्यक्तित्व का । पूरा नहीं है वह । इसलिए स्त्री असल में अपने बेटे को जिस भांति प्रेम कर पाती है । उस भांति प्रेम का अनुभव उसे पति के साथ कभी नहीं हो पाता । पुराने ऋषियों ने तो 1 बहुत हैरानी की बात कही है । उपनिषद के ऋषियों ने आशीर्वाद दिया है नवविवाहित वधुओं को । और कहा है कि - तुम अपने पति को इतना प्रेम करना । इतना प्रेम करना कि अंत में 10 तुम्हारे पुत्र हों । और 11  वां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए ।
उपनिषद के ऋषि यह कहते हैं कि - स्त्री का पूरा प्रेम उसी दिन होता है । जब वह अपने पति को भी अपने पुत्र की तरह अनुभव करने लगती है । असल में स्त्री अपने पुत्र को पूरा प्रेम कर पाती है । उसमें कोई फिर बौद्धिकता नहीं होती । और अपने बेटे के पूरे शरीर को प्रेम कर पाती है । उसमें कोई चुनाव नहीं होता । और अपने बेटे से उसे कामवासना का कोई रूप नहीं दिखाई पड़ता । इसलिए प्रेम उसका परम शुद्ध हो पाता है । जब तक पति भी बेटे की तरह न दिखाई पड़ने लगे । तब तक स्त्री पूर्ण तृप्त नहीं हो पाती है । लेकिन पुरुष की स्थिति उलटी है । अगर पत्नी उसे मां की तरह दिखाई पड़ने लगे । तो वह दूसरी पत्नी की तलाश पर निकल जाएगा । पुरुष मां नहीं चाहता । पत्नी चाहता है । और भी ठीक से समझें । तो पत्नी भी नहीं चाहता । प्रेयसी चाहता है । क्योंकि पत्नी भी स्थायी हो जाती है । प्रेयसी में 1 अस्थायित्व है । और बदलने की सुविधा है । पत्नी में वह सुविधा भी खो जाती है । स्त्री का चित्त समग्र है । इंटिग्रेटेड है । स्त्रियों का नहीं कह रहा हूं । जब भी मैं स्त्री शब्द का उपयोग कर रहा हूं । तो स्त्रैण अस्तित्व की बात कर रहा हूं ।
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विश्वास - यदि तुम विश्वास करते हो । तुम कभी भी जान नहीं पाओगे । यदि तुम सचमुच जानना चाहते हो । विश्वास मत करो । इसका यह मतलब नहीं होता है कि अविश्वास करो । क्योंकि अविश्वास अलग तरह का विश्वास है । विश्वास मत करो । पर प्रयोग करो । अपने पर जाओ । और यदि तुम देख सको । यदि तुम महसूस कर सको । तो ही विश्वास करो । लेकिन तब यह विश्वास नहीं रहता । तब यह श्रद्धा होती है । यह श्रद्धा और विश्वास में फर्क है । श्रद्धा अनुभव से आती है । विश्वास पूर्वाग्रह है । जो अनुभव के सहारे के बिना है । इसलिए विश्वास मत करो कि शास्त्र कहते हैं । और इसलिए विश्वास मत करो । सम्माननीय लोग कहते हैं । क्योंकि हो सकता है कि वे यह इसलिए कह रहे हैं । क्योंकि यह कहने से वे सम्माननीय हो जाते हैं । इसलिए विश्वास मत करो कि पंडित पुजारी कहते हैं । क्योंकि पंडित सभी तरह का व्यवसाय कर रहे हैं । उन्हें वैसा कहना ही है । वे विक्रेता हैं । वे कुछ अदृश्य उपयोग की वस्तुएं बेच रहे हैं । जो कि देखी नहीं जा सकती । पर तुम्हें विश्वास करना होता है । प्रयोग करो । सभी बातों के लिए अस्तित्वगत अनुभव के लिए जाओ । प्रयोगशाला बन जाओ । तुम्हारी अपनी प्रयोगशाला । और जब तक कि यह तुम्हारी अपनी समझ ना बने । विश्वास मत करो । और तब ही तुम श्रद्धा बन सकते हो । जिस सत्य पर विश्वास किया जाता है । वह झूठ है । अनुभव का सत्य पूरी अलग ही घटना है । यह वैज्ञानिक मन का ढंग है । ओशो.
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