Dear Rajiv Kulshrestha ji ! I want to know about the rules to obey before or after taking the name from the guru, and what are the differences between guru's of kabir streem and another who follows the Ram,krishan, shiv, durga shakti and om etc. And what are the difference in the effects upon the person who take the name. Please tell me in detail. thank you regards - nand kishore godwal
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नन्द किशोर जी ! सत्यकीखोज पर आपका बहुत बहुत स्वागत है । आपसे मिलकर बेहद खुशी हुयी । चलिये आपके प्रश्नों पर बात करते हैं । नीचे अंग्रेजी में आपके उत्तर हमारे मंडल के अशोक जी ने दिये हैं । और हिन्दी में मैंने ।
ANS - I am glad that you shown interest in spiritual development. There are no standard rules before Naam/deeksha but it is suggested to be
as saatvik as possible before and After deeksha. Any Flesh, eggs, alcohol and smocking is totally prohibited in the path of meditation.
One should follow yam, niyam, pratyahaar and swadhyay as this helps to attain higher positions/samadhi quickly.
These Deities mantras cannot liberate the one from birth and death cycle, Even deities are not free from their karmic bondage. Their padvi in those lokas are the results of their good karmas and has a time limit for those positions. After that they are sent to bhavsagar ( life and death cycle ). He who himself is not free can not liberate others. These deities mantras are suggested to chant for a specific no of time to get the results/siddhis. whereas original mantra is "Nirvani"(No Chanting) and it enables you to be free from bhavsagar.
Even Kabir panth is not in its original form today. Kabir was aware about this long
before and he warned his disciple Dharamdas for the same.
I hope you got the answer of all your queries. I'll be glad to answer all your queries and doubts. Thanks By - Ashok kumar delhi
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अभी कुछ साल पहले मुझे एक सज्जन ( 60 आयु ) मिले थे । जब उन्हें पता चला कि मैं अद्वैत का साधु हूँ । तो उन्हें बेहद खुशी हुयी । क्योंकि अद्वैत के लोग प्रायः नहीं मिलते । वो बोले । महाराज सिर्फ़ 1 दोहे ने पूरा जीवन बदल दिया । भक्ति मार्ग बदल दिया । मैंने कहा - क्या था वो दोहा ?
उन्होंने कहा - राम मरे रावण मरा । मरे कृष्ण और कंस । इनकी पूजा
जो करें । उनके डूबे वंश । महाराज जी ! सुनकर मैं हैरान रह गया । एक झटका सा लगा । और मैंने सत्यकीखोज शुरू कर दी । फ़िर एक और सार दोहे ने मुझे झिंझोङ दिया ।
मैंने पूछा - वो कौन सा था ?
वे बोले - नाम* लिया तिन ( उसने ) सब लिया । चार वेद का भेद । बिना नाम नरके ( नरक ) पङा । पढ पढ चारों वेद ।
* नाम का मतलब यहाँ स्वांसों में 4 सेकेंड में ( 2 सोऽ 2 हंगऽ ) स्वतः 1 बार होते निर्वाणी अजपा नाम ( क्योंकि ये बिना जपे हो रहा है ) से है । ये नाम दरअसल जीवात्मा की काग वृति ( विषय वासनाओं में आसक्ति ) होने से उल्टा ( वही मैं हूँ ) हो गया है । सिर्फ़ असली सतगुरु ? दीक्षा के समय यह मूल रूप में सीधा होकर " हंसो " हो जाता है । तब ये जीवात्मा हंस जीव होकर अमृत ( अमी रस ) भोजन करती हुयी साधना द्वारा अमरता की ओर कृमशः बढती है । इसे ही जागृत किया जाता है । असली दीक्षा की पहचान यही है । दिव्य अलौकिक अनुभव तुरन्त दीक्षा के समय ही होते हैं ।
मुझे नहीं लगता । नन्द किशोर जी के सवालों में ऐसा कुछ है । जिसका विस्त्रत उत्तर इन ब्लाग्स पर पहले से मौजूद नहीं है । फ़िर भी जिज्ञासा तो जिज्ञासा है । आईये इनके 3 प्रश्नों पर विचार करते हैं ।
1 - rules before or after taking the name from the guru - मान लीजिये आप इस हद तक बीमार हो गये कि सङने गलने ( मनुष्य की स्थिति वास्तव में यही है ) ही लगे । फ़िर क्या कोई चिकित्सा नियम आपका इलाज करने से मना कर देगा ? मान लीजिये । आप इतने बङे अपराधी पातकी ( गिरा हुआ मनुष्य ) हो गये कि प्रत्येक ही आपसे घृणा करने लगा । तब क्या कोई मानवता मानवीय संविधान आपके सुधरने की स्वतः भावना होने पर रोकेगा कि - नहीं आप नहीं सुधर सकते । याद करिये । श्रीकृष्ण ( के रूप में आत्मदेव ) ने गीता में क्या कहा - नीच से नीच घोर पापी भी यदि मेरी शरण में आता है । तो मैं उसे भी अभय कर देता हूँ । राम ( के रूप में आत्मदेव ) ने ( रामचरित मानस ) कहा - सनमुख होय जीव मोहि जब ही । कोटि जन्म अघ नासों तब ही । कुछ और भी कहावतें प्रचलित हैं - जब जागो तभी सवेरा । सुबह का भूला शाम को घर लौट आये । तो भूला नहीं कहाता ।
इसलिये मेरी बात समझने की कोशिश करें । आप किसी डाक्टर से ये प्रश्न करें - इलाज से पहले और बाद के क्या नियम होंगे ? तो दरअसल ये प्रश्न ही गलत हो जाता है । और ये इलाज ( भव रोग से मुक्ति ) ही तो है । भव का अर्थ है - होना । और आपको - कुछ न कुछ होने का ? भारी रोग लग गया है । ये सर्व शक्तिमान नाम आपके इसी अहम रूप मैं मैं को जङ से नष्ट कर देता है । और तब आप बचते हो - शुद्ध शाश्वत चैतन्य आत्मा । जो हर तरह से निर्विकार है ।
इसलिये कोई भी नियम नहीं है । न पहले । न बाद में । हम आपसे अभक्ष्य माँस मदिरा छोङने को कहें । या जुआ । वैश्यावृति । हिसा । चोरी । पर पीङन छोङने को कहें । तो इसमें नया क्या है ? आप खुद जानते हो । इनके हानि लाभ क्या हैं ? मैं तो कहता हूँ । आप दीक्षा लो । या मत लो । तो भी ऐसे बुरे कर्म छोङ दो । आधे साधु तो खुद ही हो गये । और समझिये - संगत ही गुण ऊपजे । संगत ही गुण जाये । बांस फ़ाँस और मीसरी । एक ही भाव बिकाय । मतलब जब आप साधु संगत से जुङोगे । तो अच्छे आचरणों के नियम खुद आपके जीवन में उतर
जायेंगे । उच्च गुणवत्ता खुद आप में निर्मित होगी । हम आप पर कोई नियम नहीं लादते । फ़िर ये अनन्त असीम ज्ञान कहाँ हुआ । किसी वर्ग विशेष शैली की जीवनधारा ही तो हुयी ।
गुरु बिनु माला फ़ेरता । गुरु बिनु करता दान । कह कबीर निष्फ़ल भया । कह गये वेद पुरान ।
तब उन लोगों ने कहा - वो सब तो ठीक है । पर जिस रोग ( भव बंधन ) से मुक्त ( मोक्ष उपाय । साधन ) होने के लिये आये थे । उस बारे में क्या हुआ ? अर्थात तुम्हारी नाम साधना का कोई प्रभाव देखने में आया । वह आदमी बेहद चौंका । और निराश हो गया । बस यही चल रहा है - संसार में ।
पर वास्तविकता में असली गुरु से असली सतनाम मिलने पर उसी क्षण जीव शाश्वत चेतन धारा से जुङ जाता है । दिव्य प्रकाश । हल्का चेतन समाधि अनुभव । कुछ ऊँचाई तक के दिव्य या आंतरिक लोकों की यात्रा जैसे शुरूआती अनुभव एन दीक्षा के समय ही हो जाते हैं । इसके बाद - जीव से अजीव । काल से अकाल । मृत्यु से अमरता । कौआ से हँस । जीवात्मा से परमात्मा तक का जो सफ़र शुरू होता है । उसके effects अवर्णनीय हैं । गूँगे का गुङ है । ये विनाशी त्रिलोकी सत्ता से अविनाशी सतलोक सत्ता में आना है । क्रूर और धूर्त काल पुरुष से दयालु परमात्मा की शरण में आना है । और बाकी बहुत से प्रभाव और बदलाव बेहद विस्तार से मेरे सभी ब्लाग्स में मिलते हैं । जिनके लिंक्स मेरे प्रत्येक ब्लाग पर उपलब्ध हैं ।
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नन्द किशोर जी ! सत्यकीखोज पर आपका बहुत बहुत स्वागत है । आपसे मिलकर बेहद खुशी हुयी । चलिये आपके प्रश्नों पर बात करते हैं । नीचे अंग्रेजी में आपके उत्तर हमारे मंडल के अशोक जी ने दिये हैं । और हिन्दी में मैंने ।
ANS - I am glad that you shown interest in spiritual development. There are no standard rules before Naam/deeksha but it is suggested to be
as saatvik as possible before and After deeksha. Any Flesh, eggs, alcohol and smocking is totally prohibited in the path of meditation.
One should follow yam, niyam, pratyahaar and swadhyay as this helps to attain higher positions/samadhi quickly.
These Deities mantras cannot liberate the one from birth and death cycle, Even deities are not free from their karmic bondage. Their padvi in those lokas are the results of their good karmas and has a time limit for those positions. After that they are sent to bhavsagar ( life and death cycle ). He who himself is not free can not liberate others. These deities mantras are suggested to chant for a specific no of time to get the results/siddhis. whereas original mantra is "Nirvani"(No Chanting) and it enables you to be free from bhavsagar.
Even Kabir panth is not in its original form today. Kabir was aware about this long
before and he warned his disciple Dharamdas for the same.
I hope you got the answer of all your queries. I'll be glad to answer all your queries and doubts. Thanks By - Ashok kumar delhi
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अभी कुछ साल पहले मुझे एक सज्जन ( 60 आयु ) मिले थे । जब उन्हें पता चला कि मैं अद्वैत का साधु हूँ । तो उन्हें बेहद खुशी हुयी । क्योंकि अद्वैत के लोग प्रायः नहीं मिलते । वो बोले । महाराज सिर्फ़ 1 दोहे ने पूरा जीवन बदल दिया । भक्ति मार्ग बदल दिया । मैंने कहा - क्या था वो दोहा ?
उन्होंने कहा - राम मरे रावण मरा । मरे कृष्ण और कंस । इनकी पूजा
जो करें । उनके डूबे वंश । महाराज जी ! सुनकर मैं हैरान रह गया । एक झटका सा लगा । और मैंने सत्यकीखोज शुरू कर दी । फ़िर एक और सार दोहे ने मुझे झिंझोङ दिया ।
मैंने पूछा - वो कौन सा था ?
वे बोले - नाम* लिया तिन ( उसने ) सब लिया । चार वेद का भेद । बिना नाम नरके ( नरक ) पङा । पढ पढ चारों वेद ।
* नाम का मतलब यहाँ स्वांसों में 4 सेकेंड में ( 2 सोऽ 2 हंगऽ ) स्वतः 1 बार होते निर्वाणी अजपा नाम ( क्योंकि ये बिना जपे हो रहा है ) से है । ये नाम दरअसल जीवात्मा की काग वृति ( विषय वासनाओं में आसक्ति ) होने से उल्टा ( वही मैं हूँ ) हो गया है । सिर्फ़ असली सतगुरु ? दीक्षा के समय यह मूल रूप में सीधा होकर " हंसो " हो जाता है । तब ये जीवात्मा हंस जीव होकर अमृत ( अमी रस ) भोजन करती हुयी साधना द्वारा अमरता की ओर कृमशः बढती है । इसे ही जागृत किया जाता है । असली दीक्षा की पहचान यही है । दिव्य अलौकिक अनुभव तुरन्त दीक्षा के समय ही होते हैं ।
मुझे नहीं लगता । नन्द किशोर जी के सवालों में ऐसा कुछ है । जिसका विस्त्रत उत्तर इन ब्लाग्स पर पहले से मौजूद नहीं है । फ़िर भी जिज्ञासा तो जिज्ञासा है । आईये इनके 3 प्रश्नों पर विचार करते हैं ।
1 - rules before or after taking the name from the guru - मान लीजिये आप इस हद तक बीमार हो गये कि सङने गलने ( मनुष्य की स्थिति वास्तव में यही है ) ही लगे । फ़िर क्या कोई चिकित्सा नियम आपका इलाज करने से मना कर देगा ? मान लीजिये । आप इतने बङे अपराधी पातकी ( गिरा हुआ मनुष्य ) हो गये कि प्रत्येक ही आपसे घृणा करने लगा । तब क्या कोई मानवता मानवीय संविधान आपके सुधरने की स्वतः भावना होने पर रोकेगा कि - नहीं आप नहीं सुधर सकते । याद करिये । श्रीकृष्ण ( के रूप में आत्मदेव ) ने गीता में क्या कहा - नीच से नीच घोर पापी भी यदि मेरी शरण में आता है । तो मैं उसे भी अभय कर देता हूँ । राम ( के रूप में आत्मदेव ) ने ( रामचरित मानस ) कहा - सनमुख होय जीव मोहि जब ही । कोटि जन्म अघ नासों तब ही । कुछ और भी कहावतें प्रचलित हैं - जब जागो तभी सवेरा । सुबह का भूला शाम को घर लौट आये । तो भूला नहीं कहाता ।
इसलिये मेरी बात समझने की कोशिश करें । आप किसी डाक्टर से ये प्रश्न करें - इलाज से पहले और बाद के क्या नियम होंगे ? तो दरअसल ये प्रश्न ही गलत हो जाता है । और ये इलाज ( भव रोग से मुक्ति ) ही तो है । भव का अर्थ है - होना । और आपको - कुछ न कुछ होने का ? भारी रोग लग गया है । ये सर्व शक्तिमान नाम आपके इसी अहम रूप मैं मैं को जङ से नष्ट कर देता है । और तब आप बचते हो - शुद्ध शाश्वत चैतन्य आत्मा । जो हर तरह से निर्विकार है ।
इसलिये कोई भी नियम नहीं है । न पहले । न बाद में । हम आपसे अभक्ष्य माँस मदिरा छोङने को कहें । या जुआ । वैश्यावृति । हिसा । चोरी । पर पीङन छोङने को कहें । तो इसमें नया क्या है ? आप खुद जानते हो । इनके हानि लाभ क्या हैं ? मैं तो कहता हूँ । आप दीक्षा लो । या मत लो । तो भी ऐसे बुरे कर्म छोङ दो । आधे साधु तो खुद ही हो गये । और समझिये - संगत ही गुण ऊपजे । संगत ही गुण जाये । बांस फ़ाँस और मीसरी । एक ही भाव बिकाय । मतलब जब आप साधु संगत से जुङोगे । तो अच्छे आचरणों के नियम खुद आपके जीवन में उतर
जायेंगे । उच्च गुणवत्ता खुद आप में निर्मित होगी । हम आप पर कोई नियम नहीं लादते । फ़िर ये अनन्त असीम ज्ञान कहाँ हुआ । किसी वर्ग विशेष शैली की जीवनधारा ही तो हुयी ।
2 - differences between guru's of kabir streem and devotion worship prayer - इसका उत्तर कई तरह से दिया जा सकता है । गुरुत्व ( कबीर ) का अर्थ है - चुम्बकत्व । और भगवान आदि का अर्थ है - सिर्फ़ छोटी मोटी चुम्बक । कबीर streem या सन्त मत का अर्थ है - सनातन सचखण्ड की केन्द्रीय सत्ता । और विभिन्न भगवान देवी देवता धारा का मतलब है । कल्लू मास्टर ( वही अपना काल पुरुष ) की कर्म प्रधान राज्य सत्ता । इसको भौतिक जीवन में यूँ समझिये । आप किसी टीवी कम्प्यूटर आदि के सिर्फ़ सर्किट का ज्ञान रखते हैं । तो आप कहलायेंगे - इंजीनियर । लेकिन आप इसकी मूल तकनीक ही जानते हों । तब आप कहलायेंगे - बैज्ञानिक । जाहिर है । बैज्ञानिक होने पर आप मनचाहा सर्किट डिजायन उपकरण आदि बना सकते हैं । तो मूलतः कबीर आदि शक्तियाँ भगवान देवी देवता आदि को नियुक्त बर्खास्त या सेवानिवृत करती हैं । और राज्य सत्ता के ये विभिन्न पदस्थ कर्मचारी पद अनुसार कार्य भार देखते हैं । अन्दर
की बात तो यही है । इसको और भी बैज्ञानिक तरीके से कहा जाये । तो कबीर धारा का मतलब होगा । मूल शाश्वत पदार्थ ( आत्मा ) और उसके व्यवहार को जानना । भगवान भक्ति का मतलब है । पदार्थ से बनी सृष्टि के विभिन्न अंगों ( कर्म । जीव । देवी । देवता ) को जानना । आध्यात्म की तकनीकी भाषा में कबीर धारा का मतलब है - निःअक्षर ज्ञान । यानी निःअक्षर से अक्षर की उत्पत्ति हुयी । और अक्षर ( शब्द ) से सभी सृष्टि हुयी । और भगवान आदि की पूजा का मतलब है । सिर्फ़ ( इसकी उच्चतम स्थिति ) ररंकार ( चेतना ) या निरंकार ( आकाश ) आदि को जानना ।
ये बहुत बङी बङी बातें मैंने आपको बता अवश्य दी । पर आपके प्रश्न का स्तर दरअसल इतना नहीं है । कबीर धारा या सन्त मत से जुङने का मतलब है - सबके मालिक परमात्मा की भक्ति । फ़ल है । स्थायी रूप से त्रिलोकी के 84 । जीव । कर्म आदि से मुक्ति । और विभिन्न भगवानों से जुङने का मतलब है - पुण्य कर्म द्वारा पुण्य अनुसार कोई अस्थायी स्थान प्राप्त करना । लेकिन अफ़सोस ! जो साधारण पूजा पाठ इंसान करता है । इसका तो लगभग कोई मतलब ही नहीं है । ये भैरव खाते में जाती है । जिसका बहुत.. बहुत ही क्षीण फ़ल बनता है । जैसी कि उत्तर प्रदेश में कहावत है - रात भर पीसा । कटोरी में बटोरा । यानी बहू ने रात भर चक्की चलाकर सिर्फ़ सिर्फ़ 1 कटोरी आटा पीसा ।की बात तो यही है । इसको और भी बैज्ञानिक तरीके से कहा जाये । तो कबीर धारा का मतलब होगा । मूल शाश्वत पदार्थ ( आत्मा ) और उसके व्यवहार को जानना । भगवान भक्ति का मतलब है । पदार्थ से बनी सृष्टि के विभिन्न अंगों ( कर्म । जीव । देवी । देवता ) को जानना । आध्यात्म की तकनीकी भाषा में कबीर धारा का मतलब है - निःअक्षर ज्ञान । यानी निःअक्षर से अक्षर की उत्पत्ति हुयी । और अक्षर ( शब्द ) से सभी सृष्टि हुयी । और भगवान आदि की पूजा का मतलब है । सिर्फ़ ( इसकी उच्चतम स्थिति ) ररंकार ( चेतना ) या निरंकार ( आकाश ) आदि को जानना ।
गुरु बिनु माला फ़ेरता । गुरु बिनु करता दान । कह कबीर निष्फ़ल भया । कह गये वेद पुरान ।
3 - difference effects upon the person who take the name.- वास्तव में यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि - जिस जीव ने नाम ( हँसदीक्षा ) ले लिया । उसमें और औरों में क्या अन्तर हुआ ? या खुद उसमें पूर्व की अपेक्षा क्या बदलाव हुआ । या होगा ? थोङा गहराई से सोचें । तो आज विभिन्न मंडलों द्वारा ( सत ) नाम प्राप्त कर चुके भीङ की भीङ लाखों ( अ ) लाभार्थियों ? को देखते हुये तो ये बहुत ही गम्भीरता से विचार करने का मुद्दा है ।
तब एक दृष्टांत याद आता है । एक आदमी गम्भीर रूप से बीमार ( भव रोग ) था । इलाज ( साधना ) के लिये अस्पताल ( गुरु आश्रम ) में भर्ती ( नामदान लेना ) हुआ । बहुत समय ( कई साल ) गुजर गया । तब उसका हाल ( साधना फ़ल ) जानने कुछ परिचित ( अन्य जिज्ञासु ) उसके पास गये । उन्होंने हाल पूछा । वह बोला - यहाँ सब कुछ बहुत अच्छा है । खाना अच्छा है । बिस्तर साफ़ सुथरा है । लोग अच्छे हैं । मैं अच्छा महसूस करता हूँ । तब उन लोगों ने कहा - वो सब तो ठीक है । पर जिस रोग ( भव बंधन ) से मुक्त ( मोक्ष उपाय । साधन ) होने के लिये आये थे । उस बारे में क्या हुआ ? अर्थात तुम्हारी नाम साधना का कोई प्रभाव देखने में आया । वह आदमी बेहद चौंका । और निराश हो गया । बस यही चल रहा है - संसार में ।
पर वास्तविकता में असली गुरु से असली सतनाम मिलने पर उसी क्षण जीव शाश्वत चेतन धारा से जुङ जाता है । दिव्य प्रकाश । हल्का चेतन समाधि अनुभव । कुछ ऊँचाई तक के दिव्य या आंतरिक लोकों की यात्रा जैसे शुरूआती अनुभव एन दीक्षा के समय ही हो जाते हैं । इसके बाद - जीव से अजीव । काल से अकाल । मृत्यु से अमरता । कौआ से हँस । जीवात्मा से परमात्मा तक का जो सफ़र शुरू होता है । उसके effects अवर्णनीय हैं । गूँगे का गुङ है । ये विनाशी त्रिलोकी सत्ता से अविनाशी सतलोक सत्ता में आना है । क्रूर और धूर्त काल पुरुष से दयालु परमात्मा की शरण में आना है । और बाकी बहुत से प्रभाव और बदलाव बेहद विस्तार से मेरे सभी ब्लाग्स में मिलते हैं । जिनके लिंक्स मेरे प्रत्येक ब्लाग पर उपलब्ध हैं ।
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चलते चलते - You can’t do it all in one day. Do what you can, but make sure you breathe. Take a moment to catch your breath, reflect on how far you’ve come, and then find your second wind.
और इनकी भी सुनिये - Tall girl is interested in interesting man. Hate boring boys. hope you are not ! Write me something about you !
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