17 जून 2012

अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं

प्रार्थना - प्रार्थना का प्रयोजन ही प्रभु तक पहुँचने में नहीं है । प्रार्थना तुम्हारे हृदय का भाव है । फूल खिले । सुगंध किसी के नासापुटों तक पहुँचती है । यह बात प्रयोजन की नहीं है । पहुँचे तो ठीक । न पहुँचे तो ठीक । फूल को इससे भेद नहीं पड़ता । प्रार्थना तुम्हारी फूल की गंध की तरह होनी चाहिए । तुमने निवेदन कर दिया । तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए । इससे ज्यादा का मतलब है कि कुछ माँग छिपी है भीतर । तुम कुछ माँग रहे हो । इसलिए पहुँचती है कि नहीं ? पहुँचे तो ही माँग पूरी होगी । पहुँचे ही न तो क्या सार है सिर मारने से । और प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं है । जब उसमें कुछ माँग हो । जब तुमने माँगा । प्रार्थना को मार डाला । गला घोंट दिया । प्रार्थना तो प्रार्थना ही तभी है । जब उसमें कोई वासना नहीं है । वासना से मुक्त होने के कारण ही प्रार्थना है । वही तो उसकी पावनता है । तुमने अगर प्रार्थना में कुछ भी वासना रखी । कुछ भी । परमात्मा को पाने की ही सही । उतनी भी वासना रखी । तो तुम्हारा अहंकार बोल रहा है । और अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं है । अहंकार तो बोले ही नहीं । निरअहंकार डांवाडोल हो । प्रार्थना आनंद है ।
कोयल ने कुहू   कुहू का गीत गाया । मोर नाचा । नदी का कलकल नाद है । फूलों की गंध है । सूरज की किरणें हैं । कहीं कोई प्रयोजन नहीं है । आनंद की अभिव्यक्ति है । ऐसी तुम्हारी प्रार्थना हो । तुम्हें इतना दिया है परमात्मा ने । प्रार्थना तुम्हारा धन्यवाद होना चाहिए । तुम्हारी कृतज्ञता । लेकिन प्रार्थना तुम्हारी माँग होती है । तुम यह नहीं कहने जाते मंदिर कि - हे प्रभु ! इतना तूने दिया, धन्यवाद कि मैं अपात्र, और मुझे इतना भर दिया । मेरी कोई योग्यता नहीं । और तू औघड़दानी, और तूने इतना दिया । मैंने कुछ भी अर्जित नहीं किया । और तू दिये चला जाता है । तेरे दान का अंत नहीं है । धन्यवाद देने जब तुम जाते हो मंदिर । तब प्रार्थना पहुँची । या नहीं पहुँची । यह सवाल नहीं है ।
तुमने कुछ माँगा । तो उसका अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा को बदलने गये । उसका इरादा मेरे अनुसार चलना चाहिए । यह प्रार्थना हुई । तुम परमात्मा से अपने को ज्यादा समझदार समझ रहे हो ? तुम सलाह दे रहे हो ? यह अपमान हुआ । यह नास्तिकता है । आस्तिकता नहीं है । आस्तिक तो कहता है - तेरी मर्जी, ठीक । तेरी मर्जी ही ठीक । मेरी मर्जी सुनना ही मत । मैं कमजोर हूँ । और कभी कभी बात उठ पाती है । मगर मेरी सुनना ही मत । क्योंकि मेरी सुनी । तो सब भूल हो जाएगी । मैं समझता ही क्या हूँ ? तू अपनी किये चले जाना । तू जो करे । वही ठीक है । ठीक की और कोई परिभाषा नहीं है । तू जो करे । वही ठीक है ।
जलालुद्दीन रूमी ने कहा - लोग जाते हैं प्रार्थना करने । ताकि परमात्मा को बदल दें । और उसने यह भी कहा कि - असली प्रार्थना वह है । जो तुम्हें बदलती है । परमात्मा को नहीं। यह बात समझने की है । असली प्रार्थना वह है । जो तुम्हें बदलती है । प्रार्थना करने में तुम बदलते हो । परमात्मा सुनता है कि नहीं । यह फिकर नहीं । तुमने सुनी । या नहीं ? तुम्हारी प्रार्थना ही अगर तुम्हारे हृदय तक पहुँच जाए । सुन लो तुम । तो रूपांतरण हो जाता है ।
प्रार्थना का जवाब नहीं मिलता ।
हवा को हमारे शब्द शायद आसमान में हिला जाते हैं ।
मगर हमें उनका उत्तर नहीं मिलता ।
बंद नहीं करते तो भी हम प्रार्थना ।
मंद नहीं करते हम अपने प्रणिपातों की गति धीरे धीरे ।
सुबह शाम ही नहीं प्रतिपल. प्रार्थना का भाव हममें जागता रहे ।
ऐसी एक कृपा हमें मिल जाती है ।
खिल जाती है शरीर की कंटीली झाड़ी प्राण बदल जाते हैं ।
तब वे शब्दों का उच्चारण नहीं करते ।
तल्लीन कर देने वाले स्वर गाते हैं ।
इसलिए मैं प्रार्थना छोड़ता नहीं हूँ ।
उसे किसी उत्तर से जोड़ता नहीं हूँ ।
प्रार्थना तुम्हारा सहज आनंद भाव । प्रार्थना साधन नहीं, साध्य । प्रार्थना अपने में पर्याप्त । अपने में पूरी, परिपूर्ण । नाचो । गाओ । आह्लाद प्रगट करो । उत्सव मनाओ । बस वहीं आनंद है । वही आनंद तुम्हें रूपांतरित करेगा । आनंद रसायन है । उसी आनंद में लिप्त होते होते तुम पाओगे - अरे, परमात्मा तक पहुँचे । या नहीं । इससे क्या प्रयोजन है । मैं बदल गया । मैं नया हो आया । प्रार्थना स्नान है - आत्मा का । उससे तुम शुद्ध होओगे । तुम निखरोगे । और 1 दिन तुम पाओगे कि प्रार्थना निखारती गयी । निखारती गयी । निखारती गयी । 1 दिन अचानक चौंककर पाओगे कि तुम ही परमात्मा हो । इतना निखार जाती है प्रार्थना कि 1 दिन तुम पाते हो तुम ही परमात्मा हो । और जब तक यह न जान लिया जाए कि - मैं परमात्मा हूँ । तब तक कुछ भी नहीं जाना । या जो जाना । सब असार है । ओशो
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मेरे 1 मित्र हैं । संन्यासी हो गए । पुराने ढंग के संन्यासी हैं । बारबार जब भी मिलते हैं । वे कहते हैं कि - लाखों पर लात मार दी । तो मैंने उनसे पूछा - वर्षों हो गए छोड़े हुए । लगता है । लात ठीक से लगी नहीं । नहीं तो याद क्यों बाकी है । लग गयी लात । खतम हो गयी । और लाख वगैरह भी नहीं थे । मैंने उनसे कहा - क्योंकि तुम मुझसे ही, मेरे ही सामने कहते हो कि लाख थे । मुझे पक्का पता है कि तुम्हारे पोस्ट आफिस की किताब में कितने रुपए जमा थे । वह थोड़े डरे । उनके 2-4  शिष्य भी बैठे हुए थे । कहने लगे - फिर पीछे बात करेंगे । मैंने कहा - पीछे नहीं । अभी ही बात होगी । लाख वाख कुछ थे नहीं । होमियोपैथी के डाक्टर थे । अब होमियोपैथी के डाक्टरों के पास कहीं लाख होते हैं ? लाख ही हों । तो होमियोपैथी की कोई डाक्टरी करता है ? मैंने कहा - मक्खी उड़ाते थे बैठकर दवाखाने में । कभी मरीज तो मैंने देखे नहीं । हमीं लोग गपशप करने आते थे । तो बस वही थे जो कुछ । कितने रुपए थे ? तुम ठीक ठीक बोल दो । मुझे मालूम है । मैंने उनसे कहा । और तुम धीरे धीरे पहले हजारों कहते थे । फिर अब तुम लाखों कहने लगे कि लाखों पर लात मार दी । पहली तो बात लाखों थे नहीं । दूसरी बात । यह लात मारने का जो भाव है । इसका मतलब है । अभी भी तुम्हारे मन में मालकियत कायम है । अब भी तुम कहते हो कि मेरे थे । लाखों थे । और देखो । मैंने छोड़ दिए । छोड़ना तो उसी का हो सकता है । जो मेरा हो । जागने में तो सिर्फ इतना ही होता है कि पता चलता है । मेरा कुछ भी नहीं । छोड़ना क्या है ? इस भेद को खयाल में ले लेना । जागा हुआ आदमी भागता नहीं । न कुछ छोड़ता है । सिर्फ इतना ही समझ में आ जाता है । मेरा नहीं है । फिर करने को कुछ बचता नहीं । छोड़ने को क्या है । इतना ही समझ में आ गया । पत्नी मेरी नहीं । बेटे मेरे नहीं । सब मान्यता है । ठीक है । इसको कुछ कहने की भी जरूरत नहीं किसी से । इसकी कोई घोषणा करने की भी जरूरत नहीं । इसको कोई छाती पीटकर बताने की भी जरूरत नहीं । यह तो समझ की बात है । तुम 2 और 2  = 5  जोड़ रहे थे । फिर तुम मुझे मिल गए । मैंने तुमसे कहा कि - सुनो भई, 2 और 2 = 5  नहीं होते । 2 और 2 = 4 होते हैं । तुम्हें बात जंची । तो क्या तुम यह कहोगे कि मैंने पुराना हिसाब छोड़ दिया । 2 और 2 = 5 होते हैं । वह मैंने छोड़ दिया ? तुम कहोगे कि छोड़ने को तो कुछ था ही नहीं । बात ही गलत थी । बुनियाद ही गलत थी । जब तुम 2 और 2 = 5 कर रहे थे । तब भी 5 थोड़े ही हो रहे थे । सिर्फ तुम कर रहे थे । हो थोड़े ही रहे थे । यथार्थ में तो 2 और 2 = 4 ही हैं । चाहे तुम 5 जोड़ो । चाहे 7 जोड़ो । तुम्हें जो जोड़ना हो । जोड़ते रहो । 2 और 2 तो 4 ही हैं । जिस दिन तुम्हें दिखायी पड़ गया - 2 और 2 = 4 हैं । समझ में आ गया । 2 और 2 = 4 हो गए । 4 थे ही । सिर्फ तुम्हारी भ्रांति मिटी ।
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झूठा ब्रह्मज्ञान - मैं जब छोटा था । तो मेरे गांव में 1 बहुत बड़े विद्वान पंडित रहते थे । वह मेरे पिता के मित्र थे । मैं अपने पिता के उलटे सीधे प्रश्न पूछकर सर खाता रहता था । पर मेरे पिता ईमानदार आदमी थे । जब वह किसी प्रश्न का उत्तर न दे पाते । तो कह देते - मुझे मालूम नहीं है । आप मेरे मित्र इन पंडित से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं । यह ज्ञानी ही नहीं । बह्म ज्ञानी भी हैं । मेरे पिता की इस ईमानदारी के कारण उनके प्रति अपार श्रद्धा है । मैं पंडित जी के पास गया । उन पंडितजी के प्रति मेरे मन कोई श्रद्धा कभी पैदा नहीं हुई । क्योंकि मुझे दिखता ही नहीं था कि जो वह हैं । उसमें जरा भी सच्चाई है । उनके घर जाकर बैठकर मैं उनका निरीक्षण भी किया करता था । वह जो कहते थे । उससे उनके जीवन में कोई तालमेल भी है । या सब ऊपरी बातें हैं । लेकिन वह करते थे बहुत - ब्रह्मज्ञान की बातें । ब्रह्मसूत्र पर भाष्य करते थे । और मैं जब उनसे ज्यादा विवाद करता । तो वह कहते - ठहरो, जब तुम बड़े हो जाओगे । उम्र पाओगे । तब यह बात समझ में आएगी । मैंने कहा - आप उम्र की 1 तारीख तय कर दें । अगर आप जीवित रहे । तो मैं निवेदन करूंगा उस दिन आकर । मुझे टालने के लिए उन्होंने कह दिया होगा - कम से कम 21 साल के हो जाओ ।
जब मैं 21 साल का हो गया । मैं पहुंचा । उनके पास । मैंने कहा - कुछ भी मुझे अनुभव नहीं हो रहा । जो आप बताते हैं । 21 साल का हो गया । अब क्या इरादा है ? अब कहिएगा - 42 साल के हो जाओ । 42 साल का जब हो जाऊँगा । तब कहना - 84 साल के हो जाओ । बात को टालो मत । तुम्हें हुआ हो । तो कहो कि हुआ है । नहीं हुआ हो । तो कहो नहीं हुआ । उस दिन न जाने वह कैसी भाव दशा में थे । कोई और भक्त उनका था भी नहीं । नहीं तो उनके भक्त उन्हें हमेशा घेरे बैठे रहते थे । भक्तों के सामने और भी कठिन हो जाता । उस दिन उन्होंने आंखे बंद कर ली । उनकी आंखों में 2 आंसू गिर पड़े । उस दिन मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा हुई । उन्होंने कहा - मुझे क्षमा करो । मैं झूठ ही बोल रहा था । मुझे भी कहां हुआ है । टालने की ही बात थी । उस दिन भी तुम छोटे थे । लेकिन तुम पहचान गए थे । क्योंकि मैं तुम्हारी आंखों से देख रहा था । तुम्हारे मन में श्रद्धा पैदा नहीं हुई थी । तुम भी समझ गए थे । मैं टाल रहा हूं कि बड़े हो जाओ । मुझे भी पता नहीं है । उम्र से इसका क्या संबंध । सिर्फ झंझट मिटाने को मैंने कहा था । मैंने कहा - आज मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा भाव पैदा हुआ । अब तक मैं आपको निपट बेईमान समझता था । ओशो

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326