मैं सच कहूँगा । मुझे अशोक जी जैसे ही साधकों सहयोगियों की ही तलाश थी । जिन्होंने बिना राग द्वेष के सभी धर्मों की पुस्तकों का न सिर्फ़ अध्ययन किया हो । बल्कि वे उसका सार भी जानते हों । ऐसे ही लोग - सन्तों के 3 प्रकार - 1 तरन ( खुद ही तरने वाले ) 2 तारन ( सिर्फ़ दूसरों को तारने वाले ) 3 तरन तारन ( खुद भी तरें । दूसरों को भी तारें ) में से 3 तरन तारन श्रेणी के हो जाते हैं । और आप समझ सकते हैं । साहेब की दृष्टि में ऐसे साधक ही महत्वपूर्ण होते हैं । बाकी लोग भक्ति का बहुत मामूली फ़ल प्राप्त करते हैं ।
खैर..नीचे बाइबल के खास वचनों से आप बखूबी समझ जायेंगे । अशोक जी सार को किस तरह समझ लेते हैं । मैंने कहा है - आप किसी भी धर्म की पुस्तक ले आयें । उसमें सुरति शब्द योग की ही बात होगी । क्योंकि दूसरा कोई भक्ति मार्ग है ही नहीं । भले ही द्वैत तक का वर्णन हो । तो भी वो निरंकार ररंकार की बात कही गयी होगी । तब आईये । देखें । बाइबल के इन वचनों में सुरति शब्द योग कैसे है ? यहाँ एक बात खास ध्यान रखें । ये मूल बाइबल का हिन्दी अनुवाद है । और अनुवाद अक्सर मूल भावना को वर्णन करने में नाकाम होता है । अतः मूल शब्दों में बात और
भी प्रभावशाली ही होगी । ऐसा मेरा दृढ मत है ।
युहन्ना 1:1 आदि में वचन था । और वचन परमेश्वर के साथ था । और वचन परमेश्वर था । 1:2 यही आदि में परमेश्वर के साथ था । 1:3 सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ । और जो कुछ उत्पन्न हुआ है । उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई । 1:4 उसमें जीवन था । और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था । 1:5 ज्योति अंधकार में चमकती है । और अंधकार ने उसे ग्रहण न किया ।
- आदि ( सृष्टि की शुरूआत में ) में वचन ( शब्द ) था । और वचन परमेश्वर ( आत्मा ) के साथ ( सार शब्द ) था । सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ - शब्द ही धरती शब्द अकाशा । शब्द ही शब्द हुआ प्रकाशा । उसमें जीवन था - यानी चेतना का पहली बार आकार लेना
। वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था - ज्योति यानी अक्षर से ही सभी योनियों के शरीर बनते हैं ।
युहन्ना 3:2 उसने रात को यीशु के पास आकर उससे कहा - हे रब्बी ! हम जानते है कि तू परमेश्वर की और से गुरु होकर आया है । क्योकि कोई इन चिह्नों को । जो तू दिखाता है । यदि परमेश्वर के साथ न हो । तो नहीं दिखा सकता ।
क्योकि कोई इन चिह्नों ? को । जो तू दिखाता है । यदि परमेश्वर के साथ न हो । तो नहीं दिखा सकता - यीशु ने इसे कुण्डलिनी आदि तरीके से दिव्य प्रकाश या दिव्य लोकों स्वर्ग आदि को दिखाया होगा । याद रहे । ईसामसीह छोटे अवतारों की श्रेणी में थे । और पैगम्बरों द्वारा कुछ विशेष अलौकिक कार्य होते हैं । जो अदृश्य सत्ता की मर्जी से
होते हैं । 1 जला ( मनुष्य ) दीपक ही दूसरा दीपक जला सकता है । बुझा हुआ कभी नहीं । यीशु दिव्य ज्ञान से प्रकाशित थे ।
युहन्ना 3:3 यीशु ने उसको उत्तर दिया - मैं तुमसे सच सच कहता हूँ । यदि कोई नये सिरे से न जन्मे । तो परमेश्वर का राज्य नहीं देख सकता ।
यदि कोई नये सिरे से न जन्मे - द्वैत ज्ञान कुण्डलिनी या आत्म ज्ञान की हँस दीक्षा को नया जन्म ही कहा जाता है । क्योंकि तब जीव से हँस रूप जन्म होता है । बहुत से बुद्ध आदि साधु अपनी आयु सिर्फ़ उतनी ही बताते थे । जबसे उनको ज्ञान होकर बोध हुआ । दूसरे ये तो तय ही है कि इस ज्ञान द्वारा 3rd eye खुले बिना अंतर जगत में नहीं देखा जा सकता ।
युहन्ना 3:27 नाशवान भोजन के लिए परिश्रम न करो । परन्तु उस भोजन के लिये । जो अनंत जीवन तक ठहरता है । जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हे देगा । क्योंकि पिता अर्थात परमेश्वर ने उसी पर छाप लगाई है ।
युहन्ना 6:29 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया - परमेश्वर का कार्य ये है कि तुम उस पर । जिसने उसे भेजा है । विश्वास करो ।
- मैंने ऊपर कहा । अनुवाद जरूरी नहीं मूल बात को सटीकता से कह रहा हो । यहाँ नाशवान भोजन का अर्थ मनुष्य की विभिन्न वासनाओं से है । और..उस भोजन के लिये ? अमरत्व ( प्राप्ति ) के लिये कहा गया है - जो अनंत जीवन तक ठहरता है । अब देखिये । यहाँ कितनी गूढ बात स्प्पष्ट तरीके से कही गयी है - उसे कोई पूजा पाठ ग्रन्थ मन्दिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा नहीं देगा । उसे कोई मनुष्य का पुत्र ( यानी शरीर धारी गुरु या सन्त ) ही देगा । क्योंकि उस पर छाप ( गुरु द्वारा दीक्षा के समय लगने वाली अदृश्य मोहर ) लगी हुयी है । ऐसे गुरु को जान कर पूर्ण भाव से समर्पण विश्वास करें ।
युहन्ना 6: 35 जीवन की रोटी मैं हूँ । जो मेरे पास आता है । वह कभी भूखा न होगा । और जो मुझ पर विश्वास
करता है । वह कभी प्यासा न होगा ।
- बात वही अनुवाद और सांकेतिक भाषा की है । जीवन की रोटी..मतलब अमरत्व या अमरता से है । इसको प्राप्त होने से सभी भूख ( वासनायें ) प्यास ( तृष्णायें ) स्वतः तृप्त हो जाती हैं ।
युहन्ना 6: 51 जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी है । मैं हूँ । यदि कोई इस रोटी में से खाय । तो सर्वदा जीवित रहेगा । और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिए दूंगा । वह मेरा मांस है ।
- ईसाईयों के साथ मेरी काफ़ी उठक बैठक रही है । उनके चर्च में sunday की प्रार्थना वाले दिन में प्रसाद रूप में रोटी ही बाँटते हैं । और वो भी उन्हें ?? जो ईसाई हैं । या धर्म परिवर्तन कर चुके हैं । ईसाई जनता का तो नहीं । पर इनके धर्म प्रचारकों । फ़ादर । पोप । तोप की अक्ल पर मुझे बेहद तरस आता है । पूरी ईसाई कौम को इन लोगों ने गढ्ढे में धकेल दिया । जीवन की रोटी का यहाँ भी वही मतलब दिव्यता या अमरता को प्राप्त होना है । ईसामसीह यहाँ चूल्हा फ़ूंकने नहीं आये थे कि - लो खा लो । गरम गरम फ़ुलके ।
कोई भी साधु जब जीवों को चेताता है । तो उसके शरीर का बेहद हास होता है । यह बहुत गूढ और तकनीकी बात है । हालांकि मैं शीघ्र ही इस पर लेख लिखने वाला हूँ । बस सीधे सीधे समझ लो । बात यह है - वृक्ष कब हू ना फ़ल भखै । नदी ना संचे नीर । परमारथ के कारने साधुन धरो शरीर ।
युहन्ना 7:36 यह क्या बात । जो उसने कही कि - तुम मुझे ढूंढोंगे । परन्तु न पाओगे । और जहाँ मैं हूँ । वहाँ तुम नहीं आ सकते ।
- ये महत्वपूर्ण बात है । सन्त मत में इसको बहुत सरल भाषा में कहा गया है । सन्त हैं । सो अन्त हैं । बाकी सब बन्त ( बनते या बनाबटी ) हैं । ओशो भी कहते हैं - तुम मेरे पास ( या किसी सन्त के पास ) आते हो । पर क्या वाकई मेरे पास आ पाते हो ? अभी कुछ ही दिन पहले मैंने कहा - दिव्यता को प्राप्त और आत्म ज्ञान को प्राप्त हुआ आत्मा साधारण जीव से बहुत दूर ( उच्च ) हो जाता है । वे दिखने में 1 समान लगते हैं । पर आंतरिकता और स्तर में बेहद अन्तर होता है । जैसे एक साधारण मनुष्य और विद्वान में ही बहुत अन्तर हो जाता है । इसलिये यीशु ने कहा - मैं जिस स्थिति में हूँ । वहाँ तुम ( ऐसे ) नहीं आ सकते ।
युहन्ना 8:12 यीशु ने फिर लोगों से कहा - जगत की ज्योति मैं हूँ । जो मेरे पीछे हो लेगा । वह अन्धकार में न चलेगा । परन्तु जीवन की ज्योति पायेगा ।
- सीधी सी बात है । सन्त जगत में प्रकाश रूप ही होते हैं । जो उनकी शरण में आ जाते हैं । वे फ़िर अज्ञान के अंधकार में क्यों भटकेंगे । और सदा रहने वाला जीवन और शरीर ही पायेंगे ।
युहन्ना 8:23 उसने उनसे कहा - तुम नीचे के हो । मैं ऊपर का हूँ । तुम संसार के हो । मैं संसार का नहीं हूँ ।
युहन्ना 8:32 तुम सत्य को जानोगे । और सत्य तुम्हे स्वतन्त्र करेगा ।
- ये ऊपर वाली ही बात है । जीव की स्थिति मृत्यु लोक की है । उसका स्तर अति तुच्छ है । जबकि यीशु को दिव्य ज्ञान हो चुका था । तुम सत्य को जानोगे - इसी को गुरु ग्रन्थ साहब में बहुत सरलता से कहा है .. जपु आदि सचु । जुगादि सचु । है भी सचु ।
नानक होसी भी सचु । सीधी बात है - निर्वाणी नाम को जपने से तुम मुक्त हो जाओगे । इसमें कोई संदेह नहीं ।
युहन्ना 9:39 तब यीशु ने कहा - मैं इस जगत में न्याय के लिए आया हूँ । ताकि जो नहीं देखते । वे देखें । और जो देखते हैं । वे अंधे हो जायें ।
- जो 3rd eye के बिना अलौकिकता को नहीं देख पाते । वे मेरे द्वारा देखें । और जो सिर्फ़ संसार को ही सत्य मानकर देखते हैं । वे इस सत्य को जानकर इसकी तरफ़ से अंधे हो जायें ।
युहन्ना 10:16 मेरी और भी भेड़ें हैं । जो इस भेड़ शाला की नहीं । मुझे उनको भी लाना अवश्य हैं । वो मेरा शब्द सुनेंगी । तब 1 ही झुण्ड और 1 ही चरवाहा होगा ।
भेङें गुप्त रूप से शिष्यों या अनुसरण कर्ताओं को कहा गया है । यीशु ने इशारा किया । दूसरे लोग जब इस शरीर में छुपे निर्वाणी नाम ? के सत्य को जानेंगे । तब सबमें आत्मिक रूप से एकता हो जायेगी । क्योंकि आत्मा रूप में
सत्य 1 ही है । कोई भी इंसान हो । उसकी सांस में ये निर्वाणी नाम - सो हंग स्वतः ही हो रहा है ।
युहन्ना 10:27 मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं । मैं उन्हें जानता हूँ । और वो मेरे पीछे पीछे चलती हैं । 10:28 और मैं उन्हें अनंत जीवन देता हूँ । वे कभी नाश न होंगी । और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन न लेगा ।
- यानी जो शिष्य नाम का सुमरन करते हैं । या जिनका ध्वनि रूप शब्द प्रकट हो चुका है । उनका आवागमन मिट जाता है । जन्म मरण नहीं होता । और वे सदा ही रहते हैं - तेरी अजर बनी बनौती । इसमें बिगङा बनी न होती ।
। 10:29 मेरा पिता जिसने मुझको दिया है । सबसे बड़ा है । और कोई उन्हें पिता के हाथ से छीन नहीं सकता । 10: 30 मैं और पिता एक हैं ।
- यीशु को निश्चय ही किसी भारतीय सन्त या उस परम्परा से ही ये ज्ञान उपदेश प्राप्त हुआ होगा । लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों वश उन्होंने सभी बातें खोली नहीं होगी । आज पढे लिखे मूर्खों ? में अति कट्टरता देखने को मिलती है । तो उस समय तो जाहिल अनपढ जैसा समाज था । और सभ्यता आदि का विस्तार नहीं हुआ था । किसी भी ज्ञान को प्राप्त कर रहा छात्र अन्त में पूरा ज्ञान प्राप्त कर गुरु जैसा ही हो जाता है । इसी को
लीन होना या 1 होना कहा जाता है ।
युहन्ना 12:25 जो अपने प्राण को प्रिय जानता है । वह इसे खो देता है । और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है । वह अनंत जीवन के लिए उसकी रक्षा करेगा ।
- यानी जो इस जीवन शरीर आदि का ही मोह करता है । जाहिर है । अज्ञानवश अन्त समय मिट्टी में मिल जायेगा । लेकिन ( जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय ) जो समझता है । यह शरीर नाशवान है । और इसका एकमात्र सही उपयोग मोक्ष को प्राप्त होना है । अतः शरीर से ममता ( अप्रिय ) नहीं करता । वह ज्ञान को प्राप्त होकर अनन्त जीवन पायेगा । इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है ।
युहन्ना 12:35 यीशु ने कहा - ज्योति अब थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है । जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है । तब तक चले चलो । ऐसा न हो कि अन्धकार तुम्हें आ घेरे । जो अन्धकार में चलता है । वह नहीं जानता कि किधर जाता है । 12: 36 जब तक
ज्योति तुम्हारे साथ है । ज्योति पर विश्वास करो । ताकि तुम ज्योति की संतान बनो ।
- ज्योति थोङी देर तक..मतलब जीवन बहुत छोटा क्षण भंगुर ही है । इसलिये जब तक ये ज्योति ( शरीर ) है । तब तक मोक्ष यात्रा करते रहो । ऐसा न हो कि लक्ष्य प्राप्त होने से पहले मृत्यु ( अंधकार ) तुम्हें आ घेरे । फ़िर जब तुम्हें कोई मुकाम हासिल नहीं होगा । तब कैसे तय करोगे । कहाँ जायें ? इसलिये इसी अंतर के दिव्य प्रकाश में पूरी निष्ठा से लगे रहो । जो कि तुम हमेशा इसी के हो जाओ ।
युहन्ना 15:7 यदि तुम मुझमें बने रहो । और मेरा वचन तुममें बना रहे । तो जो चाहे मांगो । और वह तुम्हारे लिए हो जायेगा ।
- जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरण न एक हू बाधा । बस ये हरि ( स्वांस में गूँजता निर्वाणी नाम वैधानिक तरीके से प्राप्त होना ) शरण ? प्राप्त हो जाये ।
क्योंकि कुरिन्थियों 1:7 परन्तु हम परमेश्वर का वह गुप्त ज्ञान । भेद की रीति पर बताते हैं । जिसे परमेश्वर ने
सनातन से हमारी महिमा के लिए ठहराया है । 1:8 जिसे इस संसार के हाकिमो में से किसी ने नहीं जाना । क्योंकि यदि वे जानते । तो तेजोमय प्रभु को क्रूस पर न चढाते । 1:9 परन्तु जैसा लिखा है ।
- जो बातें आँख ने नहीं देखी । और कान ने नहीं सुनी । और जो बात मनुष्य के चित में नहीं चढ़ी । वे ही हैं । जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिए तैयार की है ।
- ये बहुत सार बात है । परन्तु बहुत सरल भी है । इसलिये मैं नहीं समझता कि इसका अर्थ बताने की आवश्यकता है । बस संसार के हाकिमों का मतलब - तोंदूमल पंडितों । और ऐसे ही मोटा छाप लोटा छाप सोटा छाप विभिन्न धर्म के मठाधीशों से हैं । जो धर्म के ठेकेदार तो बने बैठे हैं । पर जानते A B C D भी नहीं ।
अन्त में - धन्यवाद अशोक जी ! आपके सहयोग से ही मैं खास बाइबल पर लिख सका । अन्यथा ऐसे चयन के लिये मेरे पास समय का नितांत अभाव ही है ।
खैर..नीचे बाइबल के खास वचनों से आप बखूबी समझ जायेंगे । अशोक जी सार को किस तरह समझ लेते हैं । मैंने कहा है - आप किसी भी धर्म की पुस्तक ले आयें । उसमें सुरति शब्द योग की ही बात होगी । क्योंकि दूसरा कोई भक्ति मार्ग है ही नहीं । भले ही द्वैत तक का वर्णन हो । तो भी वो निरंकार ररंकार की बात कही गयी होगी । तब आईये । देखें । बाइबल के इन वचनों में सुरति शब्द योग कैसे है ? यहाँ एक बात खास ध्यान रखें । ये मूल बाइबल का हिन्दी अनुवाद है । और अनुवाद अक्सर मूल भावना को वर्णन करने में नाकाम होता है । अतः मूल शब्दों में बात और
भी प्रभावशाली ही होगी । ऐसा मेरा दृढ मत है ।
युहन्ना 1:1 आदि में वचन था । और वचन परमेश्वर के साथ था । और वचन परमेश्वर था । 1:2 यही आदि में परमेश्वर के साथ था । 1:3 सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ । और जो कुछ उत्पन्न हुआ है । उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई । 1:4 उसमें जीवन था । और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था । 1:5 ज्योति अंधकार में चमकती है । और अंधकार ने उसे ग्रहण न किया ।
- आदि ( सृष्टि की शुरूआत में ) में वचन ( शब्द ) था । और वचन परमेश्वर ( आत्मा ) के साथ ( सार शब्द ) था । सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ - शब्द ही धरती शब्द अकाशा । शब्द ही शब्द हुआ प्रकाशा । उसमें जीवन था - यानी चेतना का पहली बार आकार लेना
। वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था - ज्योति यानी अक्षर से ही सभी योनियों के शरीर बनते हैं ।
युहन्ना 3:2 उसने रात को यीशु के पास आकर उससे कहा - हे रब्बी ! हम जानते है कि तू परमेश्वर की और से गुरु होकर आया है । क्योकि कोई इन चिह्नों को । जो तू दिखाता है । यदि परमेश्वर के साथ न हो । तो नहीं दिखा सकता ।
क्योकि कोई इन चिह्नों ? को । जो तू दिखाता है । यदि परमेश्वर के साथ न हो । तो नहीं दिखा सकता - यीशु ने इसे कुण्डलिनी आदि तरीके से दिव्य प्रकाश या दिव्य लोकों स्वर्ग आदि को दिखाया होगा । याद रहे । ईसामसीह छोटे अवतारों की श्रेणी में थे । और पैगम्बरों द्वारा कुछ विशेष अलौकिक कार्य होते हैं । जो अदृश्य सत्ता की मर्जी से
होते हैं । 1 जला ( मनुष्य ) दीपक ही दूसरा दीपक जला सकता है । बुझा हुआ कभी नहीं । यीशु दिव्य ज्ञान से प्रकाशित थे ।
युहन्ना 3:3 यीशु ने उसको उत्तर दिया - मैं तुमसे सच सच कहता हूँ । यदि कोई नये सिरे से न जन्मे । तो परमेश्वर का राज्य नहीं देख सकता ।
यदि कोई नये सिरे से न जन्मे - द्वैत ज्ञान कुण्डलिनी या आत्म ज्ञान की हँस दीक्षा को नया जन्म ही कहा जाता है । क्योंकि तब जीव से हँस रूप जन्म होता है । बहुत से बुद्ध आदि साधु अपनी आयु सिर्फ़ उतनी ही बताते थे । जबसे उनको ज्ञान होकर बोध हुआ । दूसरे ये तो तय ही है कि इस ज्ञान द्वारा 3rd eye खुले बिना अंतर जगत में नहीं देखा जा सकता ।
युहन्ना 3:27 नाशवान भोजन के लिए परिश्रम न करो । परन्तु उस भोजन के लिये । जो अनंत जीवन तक ठहरता है । जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हे देगा । क्योंकि पिता अर्थात परमेश्वर ने उसी पर छाप लगाई है ।
युहन्ना 6:29 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया - परमेश्वर का कार्य ये है कि तुम उस पर । जिसने उसे भेजा है । विश्वास करो ।
- मैंने ऊपर कहा । अनुवाद जरूरी नहीं मूल बात को सटीकता से कह रहा हो । यहाँ नाशवान भोजन का अर्थ मनुष्य की विभिन्न वासनाओं से है । और..उस भोजन के लिये ? अमरत्व ( प्राप्ति ) के लिये कहा गया है - जो अनंत जीवन तक ठहरता है । अब देखिये । यहाँ कितनी गूढ बात स्प्पष्ट तरीके से कही गयी है - उसे कोई पूजा पाठ ग्रन्थ मन्दिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा नहीं देगा । उसे कोई मनुष्य का पुत्र ( यानी शरीर धारी गुरु या सन्त ) ही देगा । क्योंकि उस पर छाप ( गुरु द्वारा दीक्षा के समय लगने वाली अदृश्य मोहर ) लगी हुयी है । ऐसे गुरु को जान कर पूर्ण भाव से समर्पण विश्वास करें ।
युहन्ना 6: 35 जीवन की रोटी मैं हूँ । जो मेरे पास आता है । वह कभी भूखा न होगा । और जो मुझ पर विश्वास
करता है । वह कभी प्यासा न होगा ।
- बात वही अनुवाद और सांकेतिक भाषा की है । जीवन की रोटी..मतलब अमरत्व या अमरता से है । इसको प्राप्त होने से सभी भूख ( वासनायें ) प्यास ( तृष्णायें ) स्वतः तृप्त हो जाती हैं ।
युहन्ना 6: 51 जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी है । मैं हूँ । यदि कोई इस रोटी में से खाय । तो सर्वदा जीवित रहेगा । और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिए दूंगा । वह मेरा मांस है ।
- ईसाईयों के साथ मेरी काफ़ी उठक बैठक रही है । उनके चर्च में sunday की प्रार्थना वाले दिन में प्रसाद रूप में रोटी ही बाँटते हैं । और वो भी उन्हें ?? जो ईसाई हैं । या धर्म परिवर्तन कर चुके हैं । ईसाई जनता का तो नहीं । पर इनके धर्म प्रचारकों । फ़ादर । पोप । तोप की अक्ल पर मुझे बेहद तरस आता है । पूरी ईसाई कौम को इन लोगों ने गढ्ढे में धकेल दिया । जीवन की रोटी का यहाँ भी वही मतलब दिव्यता या अमरता को प्राप्त होना है । ईसामसीह यहाँ चूल्हा फ़ूंकने नहीं आये थे कि - लो खा लो । गरम गरम फ़ुलके ।
कोई भी साधु जब जीवों को चेताता है । तो उसके शरीर का बेहद हास होता है । यह बहुत गूढ और तकनीकी बात है । हालांकि मैं शीघ्र ही इस पर लेख लिखने वाला हूँ । बस सीधे सीधे समझ लो । बात यह है - वृक्ष कब हू ना फ़ल भखै । नदी ना संचे नीर । परमारथ के कारने साधुन धरो शरीर ।
युहन्ना 7:36 यह क्या बात । जो उसने कही कि - तुम मुझे ढूंढोंगे । परन्तु न पाओगे । और जहाँ मैं हूँ । वहाँ तुम नहीं आ सकते ।
- ये महत्वपूर्ण बात है । सन्त मत में इसको बहुत सरल भाषा में कहा गया है । सन्त हैं । सो अन्त हैं । बाकी सब बन्त ( बनते या बनाबटी ) हैं । ओशो भी कहते हैं - तुम मेरे पास ( या किसी सन्त के पास ) आते हो । पर क्या वाकई मेरे पास आ पाते हो ? अभी कुछ ही दिन पहले मैंने कहा - दिव्यता को प्राप्त और आत्म ज्ञान को प्राप्त हुआ आत्मा साधारण जीव से बहुत दूर ( उच्च ) हो जाता है । वे दिखने में 1 समान लगते हैं । पर आंतरिकता और स्तर में बेहद अन्तर होता है । जैसे एक साधारण मनुष्य और विद्वान में ही बहुत अन्तर हो जाता है । इसलिये यीशु ने कहा - मैं जिस स्थिति में हूँ । वहाँ तुम ( ऐसे ) नहीं आ सकते ।
युहन्ना 8:12 यीशु ने फिर लोगों से कहा - जगत की ज्योति मैं हूँ । जो मेरे पीछे हो लेगा । वह अन्धकार में न चलेगा । परन्तु जीवन की ज्योति पायेगा ।
- सीधी सी बात है । सन्त जगत में प्रकाश रूप ही होते हैं । जो उनकी शरण में आ जाते हैं । वे फ़िर अज्ञान के अंधकार में क्यों भटकेंगे । और सदा रहने वाला जीवन और शरीर ही पायेंगे ।
युहन्ना 8:23 उसने उनसे कहा - तुम नीचे के हो । मैं ऊपर का हूँ । तुम संसार के हो । मैं संसार का नहीं हूँ ।
युहन्ना 8:32 तुम सत्य को जानोगे । और सत्य तुम्हे स्वतन्त्र करेगा ।
- ये ऊपर वाली ही बात है । जीव की स्थिति मृत्यु लोक की है । उसका स्तर अति तुच्छ है । जबकि यीशु को दिव्य ज्ञान हो चुका था । तुम सत्य को जानोगे - इसी को गुरु ग्रन्थ साहब में बहुत सरलता से कहा है .. जपु आदि सचु । जुगादि सचु । है भी सचु ।
नानक होसी भी सचु । सीधी बात है - निर्वाणी नाम को जपने से तुम मुक्त हो जाओगे । इसमें कोई संदेह नहीं ।
युहन्ना 9:39 तब यीशु ने कहा - मैं इस जगत में न्याय के लिए आया हूँ । ताकि जो नहीं देखते । वे देखें । और जो देखते हैं । वे अंधे हो जायें ।
- जो 3rd eye के बिना अलौकिकता को नहीं देख पाते । वे मेरे द्वारा देखें । और जो सिर्फ़ संसार को ही सत्य मानकर देखते हैं । वे इस सत्य को जानकर इसकी तरफ़ से अंधे हो जायें ।
युहन्ना 10:16 मेरी और भी भेड़ें हैं । जो इस भेड़ शाला की नहीं । मुझे उनको भी लाना अवश्य हैं । वो मेरा शब्द सुनेंगी । तब 1 ही झुण्ड और 1 ही चरवाहा होगा ।
भेङें गुप्त रूप से शिष्यों या अनुसरण कर्ताओं को कहा गया है । यीशु ने इशारा किया । दूसरे लोग जब इस शरीर में छुपे निर्वाणी नाम ? के सत्य को जानेंगे । तब सबमें आत्मिक रूप से एकता हो जायेगी । क्योंकि आत्मा रूप में
सत्य 1 ही है । कोई भी इंसान हो । उसकी सांस में ये निर्वाणी नाम - सो हंग स्वतः ही हो रहा है ।
युहन्ना 10:27 मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं । मैं उन्हें जानता हूँ । और वो मेरे पीछे पीछे चलती हैं । 10:28 और मैं उन्हें अनंत जीवन देता हूँ । वे कभी नाश न होंगी । और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन न लेगा ।
- यानी जो शिष्य नाम का सुमरन करते हैं । या जिनका ध्वनि रूप शब्द प्रकट हो चुका है । उनका आवागमन मिट जाता है । जन्म मरण नहीं होता । और वे सदा ही रहते हैं - तेरी अजर बनी बनौती । इसमें बिगङा बनी न होती ।
। 10:29 मेरा पिता जिसने मुझको दिया है । सबसे बड़ा है । और कोई उन्हें पिता के हाथ से छीन नहीं सकता । 10: 30 मैं और पिता एक हैं ।
- यीशु को निश्चय ही किसी भारतीय सन्त या उस परम्परा से ही ये ज्ञान उपदेश प्राप्त हुआ होगा । लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों वश उन्होंने सभी बातें खोली नहीं होगी । आज पढे लिखे मूर्खों ? में अति कट्टरता देखने को मिलती है । तो उस समय तो जाहिल अनपढ जैसा समाज था । और सभ्यता आदि का विस्तार नहीं हुआ था । किसी भी ज्ञान को प्राप्त कर रहा छात्र अन्त में पूरा ज्ञान प्राप्त कर गुरु जैसा ही हो जाता है । इसी को
लीन होना या 1 होना कहा जाता है ।
युहन्ना 12:25 जो अपने प्राण को प्रिय जानता है । वह इसे खो देता है । और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है । वह अनंत जीवन के लिए उसकी रक्षा करेगा ।
- यानी जो इस जीवन शरीर आदि का ही मोह करता है । जाहिर है । अज्ञानवश अन्त समय मिट्टी में मिल जायेगा । लेकिन ( जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय ) जो समझता है । यह शरीर नाशवान है । और इसका एकमात्र सही उपयोग मोक्ष को प्राप्त होना है । अतः शरीर से ममता ( अप्रिय ) नहीं करता । वह ज्ञान को प्राप्त होकर अनन्त जीवन पायेगा । इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है ।
युहन्ना 12:35 यीशु ने कहा - ज्योति अब थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है । जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है । तब तक चले चलो । ऐसा न हो कि अन्धकार तुम्हें आ घेरे । जो अन्धकार में चलता है । वह नहीं जानता कि किधर जाता है । 12: 36 जब तक
ज्योति तुम्हारे साथ है । ज्योति पर विश्वास करो । ताकि तुम ज्योति की संतान बनो ।
- ज्योति थोङी देर तक..मतलब जीवन बहुत छोटा क्षण भंगुर ही है । इसलिये जब तक ये ज्योति ( शरीर ) है । तब तक मोक्ष यात्रा करते रहो । ऐसा न हो कि लक्ष्य प्राप्त होने से पहले मृत्यु ( अंधकार ) तुम्हें आ घेरे । फ़िर जब तुम्हें कोई मुकाम हासिल नहीं होगा । तब कैसे तय करोगे । कहाँ जायें ? इसलिये इसी अंतर के दिव्य प्रकाश में पूरी निष्ठा से लगे रहो । जो कि तुम हमेशा इसी के हो जाओ ।
युहन्ना 15:7 यदि तुम मुझमें बने रहो । और मेरा वचन तुममें बना रहे । तो जो चाहे मांगो । और वह तुम्हारे लिए हो जायेगा ।
- जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरण न एक हू बाधा । बस ये हरि ( स्वांस में गूँजता निर्वाणी नाम वैधानिक तरीके से प्राप्त होना ) शरण ? प्राप्त हो जाये ।
क्योंकि कुरिन्थियों 1:7 परन्तु हम परमेश्वर का वह गुप्त ज्ञान । भेद की रीति पर बताते हैं । जिसे परमेश्वर ने
सनातन से हमारी महिमा के लिए ठहराया है । 1:8 जिसे इस संसार के हाकिमो में से किसी ने नहीं जाना । क्योंकि यदि वे जानते । तो तेजोमय प्रभु को क्रूस पर न चढाते । 1:9 परन्तु जैसा लिखा है ।
- जो बातें आँख ने नहीं देखी । और कान ने नहीं सुनी । और जो बात मनुष्य के चित में नहीं चढ़ी । वे ही हैं । जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिए तैयार की है ।
- ये बहुत सार बात है । परन्तु बहुत सरल भी है । इसलिये मैं नहीं समझता कि इसका अर्थ बताने की आवश्यकता है । बस संसार के हाकिमों का मतलब - तोंदूमल पंडितों । और ऐसे ही मोटा छाप लोटा छाप सोटा छाप विभिन्न धर्म के मठाधीशों से हैं । जो धर्म के ठेकेदार तो बने बैठे हैं । पर जानते A B C D भी नहीं ।
अन्त में - धन्यवाद अशोक जी ! आपके सहयोग से ही मैं खास बाइबल पर लिख सका । अन्यथा ऐसे चयन के लिये मेरे पास समय का नितांत अभाव ही है ।
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