17 मई 2012

सदगुरू किसे कहते हैं?



गुरू गूंगे गुरू बाबरे, गुरू के रहिये दास।
गुरू जो भेजे नरक को, स्वर्ग की रखिये आस॥

गुरू गूंगा हो, बाबरा (पागल) हो। गुरू के हमेशा दास रहना चाहिए। गुरू यदि नर्क को भेजे तब भी शिष्य को इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त (अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही) होगा। यदि शिष्य को गुरू पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा स्वयं गुरू भी नहीं कर सकते।

--------------------------------------
सदगुरू किसे कहते हैं?

अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरूवै नमः॥

जो जन्म-मरण दु:ख को छुड़ा दे, वही सदगुरू है। सदगुरू के अन्दर ईश्वरीय ज्ञान की धारा प्रवाहित रहती है। जिनके दर्शन और सदज्ञान से अज्ञान-अंधकार दूर हो, वही सदगुरूदेव हैं।

नित्य अनादि सदगुरू, स्वयंसिद्ध गुरू, अभ्याससिद्ध गुरू तथा परम्परा गुरू - चार सदगुरू होते हैं।
लौकिक, वैदिक, पारमार्थिक, तीन प्रकार के गुरू होते हैं। जो ब्रह्मविद्या तत्वज्ञान को देकर, आभ्यन्तर विहंगम योग का साधन-अभ्यास के द्वारा मनभावनी-मुक्ति प्रदान करे, वही सदगुरू हैं।

सदगुरू के अन्दर दिव्यशक्ति, दिव्यज्ञान और दिव्यप्रभा होती है। नर से देव हो, अमरतत्व की प्राप्ति सदगुरू द्वारा होती है। वेदादि शास्त्र पारङ्गत होने पर भी ब्रह्मप्राप्ति के लिए सदगुरू की आवश्यकता है। सदगुरू द्वारा सर्व संशय की निवृति और पूर्ण बोध की प्राप्ति होती है।

सदगुरू के अन्दर ही विशेष ज्ञान, ईश्वरीय धारा प्रकट होती है। जिनसे अनेक ऋषि, मुनि, सन्त, विद्वान और जपी-तपी-कर्मकाण्डी या सारा संसार अध्यात्म-प्रकाश लेकर अपने उचित कर्त्तव्य का ज्ञान प्राप्त करता है। अनेक विद्याओं के अनेक गुरू होते हैं, किन्तु विश्व में ब्रह्मविद्या, अध्यात्म तत्वज्ञान का मार्तण्ड सदगुरू एक ही होता है।

सदगुरू की धारा क्रमशः परम्परा गुरूओं में प्रवाहित रहती है। जब धारा बन्द हो जाती है, तब विशेष पुरूष प्रकट होकर उस ज्ञानशक्ति को अपने आत्मा में प्रकट कर संसार-क्षेत्र में आ करके जगत का कल्याण करते हैं। अनेक विद्वान, सन्त, तपस्वी, योगियों में कोई एक विशेष सत्यपुरूष ईश्वरीय ज्ञान-प्रवाही सदगुरू होता है।

विद्या आत्मा में प्रकट होती है, जड़ बुद्धि में नहीं। योगाभ्यास द्वारा जब आत्मा की अज्ञान-ग्रन्थि खुल जाती है, तब योग की चौथी भूमि में आत्मा के अन्दर विशेष प्रकाश प्रकट दृष्टिगोचर होने लगता है। यही अन्तर-दृष्टि और अन्तरी दिव्यज्ञान है।

शब्दाधार पर ही सदगुरूदेव के सहज स्नेह से अज्ञान-कपाट खुल जाता है, और शब्दावलोकन से सम्पुट शक्तियाँ विकसित हो, ऊर्ध्व में ज्ञान प्रकाशपुञ्ज की प्राप्ति होती है। सदगुरू आत्मा के प्रकाश हैं, और आत्मा की शक्तियाँ को अपने सहज स्नेह से आकर्षित कर स्वःधाम की प्राप्ति कराते हैं।

वेद-उपनिषदों के रहस्यों को सदगुरू द्वारा जानकर साधन-अनुभव द्वारा उस तत्व की परख कर सकते हैं। केवल पुस्तक के पठन-पाठन से, बिना सदगुरू मिले, यथार्थज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है।
उपनिषद सदगुरू-शरण की आवश्यकता बतलाते हैं। सदगुरू द्वारा ही अधिकारी जिज्ञासु बोधशान्ति को प्राप्त होकर चिन्मय स्वरूप में स्थित होता है।

योगी की परख योगी करता है। सदगुरू की परख उनके हंस और विरही भक्त, सच्चे निष्कामी-जन करते हैं। अधिकारी को शान्ति सदगुरू-शरण में होती है। पुत्र अपनी माता को, बछड़ा अपनी माँ गौ को पहचान लेता है। अधिकारी को अपने सदगुरू की परख सहज में ही होती है।

उपनिषदों में कहा हुआ दहराकाश क्या हैं? जो कमल के भीतर अन्तरकाश है, वह क्या वस्तु है? इसे सदगुरू ही बतला सकते हैं, कोरे पुस्तकीय कागजी विद्वान नहीं।

सदगुरू अध्यात्म-क्षेत्र के सूर्य हैं, और उनकी तपोनिधि अक्षयकोष की प्राप्ति सदगुरू के हंस और अनुरागी करते हैं। सदगुरू का जीवन और मरण विशेष स्थिति और विशेष कारण पर अवलम्बित रहता है। सदगुरू की आत्मप्रभा सदैव कार्य करती है, क्योंकि वे शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वरूप हैं।

अग्नि में धोका हुआ लोहा अग्नि स्वरूप हो जाता है, इसी प्रकार ब्रह्माग्नि के प्रज्वलित जिह्वा से जिसका अंत:करण और ज्ञानशक्ति विशुद्ध और प्रदीप्त हो चुकी है, वह ब्रह्मानन्द स्वरूप सदगुरूदेव सदैव अपनी ज्ञान-प्रतिभा से सारे संसार को आलोकित करते हैं।

सबका गुरू ईश्वर है, इसीलिए उसको परमगुरू कहते हैं, जो सर्वगुरूओं का गुरू, परमगुरू और परम ईश्वर है।

पूर्वेषामपि गुरू: कलेनानवच्छेदात।
(योगदर्शन)

सदगुरू में दिव्य शब्द, दिव्य गन्ध और दिव्य आकर्षण होता है। जो त्रिकालदर्शी और अमरत्व की प्राप्त कर लिया है, वही परमगुरू निर्मित ईश्वरीय ज्ञान-प्रवाही, पूर्ण ज्ञानवान, महान आत्मा सदगुरू है। सर्व साधु, महात्मा, विद्वान, सन्त को सदगुरू मानना अबोध का सूचक है।

विहंगम योग के द्वारा जब आत्मा प्रकृति-मण्डल को पारंगत कर जाती है, तब मन-माया का त्याग और शब्दब्रह्म का परिचय होता है। बाहरी त्याग और वैराग से माया नहीं छूटती है।

माया से छूटने का सरल और वेदविहित सर्वोत्तम उपाय योग है। बाहरी साधन और कर्मभूमि में इसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं है। एक विशेष स्थिति और विशेष अवस्था है। जब वह प्राप्त होती है, तब माया की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। बाहरी त्याग और मन-माया के साधन से माया की निवृत्ति नहीं होती है।

परीक्षार्थी से परीक्षक विशेष विद्वान और ज्ञाता होता है, तब उसकी वह परीक्षा करता करता है। अतएव योगी की पहचान के लिए योगी बनो। अपने समय को उसी प्रकार उपयोग कर सारे तत्वों का अन्वेषण और अनुभव कर विशेष भूमि में पहुँच जाओ, तब योग और योगी की पहचान हो सकेगी।

कौड़ीपति करोड़पति के धन की परीक्षा नहीं कर सकता। मूर्ख विद्वान की परख नहीं कर सकता। असत्यवादी, मिथ्याभिमानी, विषयी, पामर-जीव, योगी-महात्मा या किसी सन्त की परख नहीं कर सकते। सदगुरू और ब्रह्मविद्या के आचार्य की परख, इससे भी इन निम्नकोटि के मनुष्यों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है।

सदगुरू की संज्ञा जीव नहीं है। जो सदगुरू को जीव समझते हैं, वह अध्यात्म तत्वज्ञान से वंचित हैं। पहले सदगुरू के स्मरण और पूजन से ही उन्हीं के प्रकाश में आत्मा के ज्ञानतन्तु स्थिर और दृढ़ हो चिन्मय शक्ति में सदैव केन्द्रित होते हैं। अतएव प्रथम अध्यात्म क्षेत्र में सदगुरू की उपासना श्रेष्ठ है।

सदगुरू ही भवतपित जीवों के शान्ति-प्रदायक और भवसागर के कर्णधार हैं। हम उन्हीं की शरण में अपनी आत्मा का उद्धार कर दुःख-बंधन से छूट सकेंगे। अतएव सदगुरू की शरण में अमृतमय जीवन सदैव तृप्त और मधुमय हो, यही भगवान से प्रार्थना है।

काया मध्ये श्वास है। श्वास मध्य सार।
सार-शब्द विचारि के। साहब कहो सुधार।

सतगुरू जीव प्रबोध के। नाम लखावै सार।
सार-शब्द जो कोई गहे। सोई उतरिहै पार।

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326