02 मई 2012

वाह स्वपनिल वाह

जय जय श्री गुरुदेव । बिश्नोई जी ! आत्म ज्ञान कर्मकाण्डों और मन्त्रों से सर्वथा परे है । यधपि इनसे शुद्धिकरण संभव है । तथापि आत्म ज्ञान की प्राप्ति कदाचित संभव नहीं है । हिन्दू धर्म जैसा कि हमें बताया जाता है । कर्मकाण्ड प्रमुख है । और ऐसा ही वेद भी कहते हैं । परन्तु यह सनातन धर्म नहीं है । भारत वर्ष में कालांतर में अनेकों श्रेणी के ज्ञानी हुए । कुछ ने यौगिक कर्मो के माध्यम से सत्यकीखोज की । और कुछ ने भक्ति मार्ग से । और ये दोनों ही वेदानुरूप मार्ग हैं । परन्तु सत्य भक्ति ? के विषय में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी भी निसंकोच ही ज्ञानी थे । परन्तु आत्म ज्ञान किसे प्राप्त है ? यह तो केवल वही व्यक्ति अनुभव कर सकता है । जिसने आत्म साक्षात्कार किया हो । ये सभी चीजे गुप्त हैं । साधारण मनुष्य मात्र दूसरों के द्वारा कही सुनी बातों से विद्वान बनने की कोशिश करता है । परन्तु ये सब तो अनुभव गम्य बाते हैं । गुप्त ज्ञान भी अधिकारी मात्र को ही प्राप्त होता है । अनाधिकार चेष्ठा करने से अगर ज्ञान मिलता भी है । तो पच नहीं पाता है । राजीव भईया ऐसे ही अनेकों रहस्य हमारे लिए उदघाटित कर रहे हैं । जिनके कारण अनेकों पहेलियाँ सुलझ रही हैं । इसलिए हम जैसे साधारण मनुष्यों को चाहिये कि - ज्ञान जहाँ से भी मिलता हो । उसको हर दिशा से ग्रहण करें । उस पर चिंतन करें । और अपने तर्क बुद्धि का प्रयोग कर निर्धारित करे कि - हमारे लिए क्या उचित है । बाकी हम जिसके अधिकारी होंगे । वो हमें सहज ही प्राप्त हो जायेगा । और बाकी साहिब की कृपा । स्वपनिल तिवारी । मध्य प्रदेश ।
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जय जय श्री गुरुदेव । बिश्नोई जी ! आपके कथन से ऐसा लग रहा है । जैसे आप बाहरी चीजों और दिखावे पर बहुत ज्यादा विश्वास करते हैं । आपके अनुसार जो व्यक्ति बहुत ज्यादा प्रचारित है । वही महान है । पर इन सबसे मात्र पांडित्य बढ़ता है । ज्ञान नहीं प्राप्त होता । आप कुछ समय के लिए - क्यों ? कैसे ? और व्यर्थ के तर्कों को एक ओर करके ग्राह्य बनकर ॥ है ॥ पर ध्यान करिये । आपको समझ में आ जायेगा । जो ऊपरी रूप दिखाई देता है । उसकी सत्यता क्या है ? और सनातन धर्म को छुपाने के लिए कितने ज्यादा प्रयास करे जा रहे हैं । स्वपनिल तिवारी । मध्य प्रदेश ।
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स्वपनिल जी से मेरा कोई परिचय नहीं है । स्वपनिल हमारे मण्डल से भी जुङे नहीं है । स्वपनिल की आयु क्या है ? ये भी मुझे पता नहीं । और स्वपनिल का ज्ञान ध्यान से किस प्रकार का । और कितना वास्ता है ? ये भी मुझे पता नहीं । और स्वपनिल कब से हमारे

पाठक हैं । ये भी मुझे पता नहीं । अभी  तीन चार दिन पहले से इनकी टिप्पणी ब्लाग पर आना शुरू हुयी है । लेकिन ये वो प्रथम पाठक की टिप्पणी हैं । जो एक सुलझे हुये विकसित दिमाग का इशारा करती है । ये एक इंसान की टिप्पणी है । न कि किसी जाति धर्म कबीले के प्रोग्राम्ड रोबोट की । काफ़ी पहले रूप कौर से शुरू हुआ टिप्पणी का ये सिलसिला आज तक जारी है । लेकिन सच्चाई यही है कि - मुझे आज तक एक भी इंसान नहीं मिला । कोई हिन्दू मिला । कोई मुसलमान मिला । कोई सिख । कोई ईसाई मिला ।
चलिये । इस बात को भी छोङिये । इतनी महत्वपूर्ण । और शोधित । लगभग सार निचोङ बात । आज तक किसी ने नहीं कही । क्या है वो बात ? ये है वो बात ।
- आप कुछ समय के लिए - क्यों ? कैसे ? और व्यर्थ के तर्कों को एक ओर करके । ग्राह्य बनकर ॥ है ॥ पर ध्यान करिये । आपको समझ में आ जायेगा । जो ऊपरी रूप दिखाई देता है । उसकी सत्यता क्या है ?
ये एक तरह से सूत्र है । मेरी समस्त मेहनत । समस्त कोशिश का आप जब भी सार निकालेंगे । इतना ही निकलेगा । कितनी अजीब बात है । पूरा विश्व ही मानता है । ( सबका ) परमात्मा 1 ही है । असल
शक्ति 1 ही है । फ़िर भी इतने सारे झंझट किसने पैदा किये ? खुद इंसान ने । इसको नजर अंदाज कर दिया जाये । तो ऊपर का सीधा सीधा सरल सूत्र है । लेकिन सरल भाव छोङ कर । इंसान ने बेहद सरल भक्ति में तमाम जटिलतायें पैदा कर दी । और आने वाली पीङियों को अंधेरे में झोंक दिया ।
मैंने एक उपनिषद में एक पैराग्राफ़ में ध्यान की विधि में ऐसा ही सूत्र देखा था । सिर्फ़ एक पैराग्राफ़ । और कोई बहुत रहस्यमय बात नहीं लिखी थी । बहुत सरल सीधी साधी बात लिखी थी । बस आप लगातार ये सोचिये । सबसे पहले क्या था ? और बैज्ञानिक से लेकर छोटे बङे सभी मानते हैं कि आदि सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था । मतलब ये सब कुछ नहीं था । धार्मिक बैज्ञानिक मानते हैं - पर तब वो परमात्मा था । और उसी से यह सब कुछ हुआ । तो फ़िर उसी का ध्यान सर्वश्रेष्ठ है । और विशेष ध्यान रहे । वह ये सब कुछ नहीं है ।
और समझिये । आपका चिंतन बार बार वहीं जाये कि - उस समय क्या था ? जब ये सृष्टि आदि कुछ नहीं था । और फ़िर ये एक तरह से क्रान्ति घटित होगी । आपके अन्दर । पीछे लौटना । उदगम को । स्रोत को जानना । और उसी के लिये सारी कोशिशें होती हैं । चाहे वो बैज्ञानिकों की हों । साधकों की हों । या धर्म बैज्ञानिकों की ।
इसलिये यही मैं भी बार बार कहता हूँ । प्रथम कोई रास्ता न मिलने तक । कोई संशय रहने तक । आप बार बार यही सोचें । तब क्या था ? आप मेरी बात भी न मानें । किसी गुरु की बात भी न मानें । आप किसी धर्म ग्रन्थ को भी न 
मानें । क्योंकि ये बात बङी सीधी साधी है । तुरन्त समझ में आती है । इसलिये इसको मानने में कोई हर्ज नहीं । कोई ढोंग लीला भी नहीं । और ये सबसे उत्तम और उच्च भक्ति होगी । सबसे अच्छा ध्यान होगा । क्योंकि बीच का सारा कचरा आपने इस सरल सूत्र से खत्म ही कर दिया । है । वो ॥ है ॥ वो कभी बना नहीं । जो बनता है । वो बिगङता है । और निर्मित चीज  सृष्टि नियम के अंतर्गत आती है । ईश्वर भी निर्मित है । मगर परमात्मा ॥ है ॥
इसलिए हम जैसे साधारण मनुष्यों को चाहिये कि - ज्ञान जहाँ से भी मिलता हो । उसको हर दिशा से ग्रहण करें । उस पर चिंतन करें । और अपने तर्क बुद्धि का प्रयोग कर निर्धारित करे कि - हमारे लिए क्या उचित है । बाकी हम जिसके अधिकारी होंगे । वो हमें सहज ही प्राप्त हो जायेगा । और बाकी साहिब की कृपा ।
हालांकि स्वपनिल जी ब्राह्मण जाति से आते हैं । लेकिन सारी ! मैं ये सत्य बात अवश्य कहना चाहूँगा । धर्म
परम्परा के कारण सदियों से पूजित ब्राह्मण जाति मिथ्या अहंकार का शिकार हो गयी । इसलिये स्वपनिल ने ये दूसरी बात उससे भी बङी कही । क्योंकि मेरा निजी और अन्य सर्वेक्षण प्रकार का अनुभव है । कोई भी ब्राह्मण सिर्फ़ ब्राह्मण जाति में जन्म होने से अपने को उच्च और ज्ञानी मान लेता है । भले ही उसने ढंग से रामायण गीता भी न पढी हो । यहाँ ध्यान रहे । मैं सभी की बात नहीं कह रहा । पर अपवाद बहुत ही कम देखे । मैंने इस मामले में । इसलिये स्वपनिल तिवारी की ये साधारण और सरल बात और भी ऊँची हो जाती है । इसी बात को आगे बढाते हैं ।
मैं फ़िर गुरु की बात पर लौटता हूँ । मैंने अक्सर देखा । गुरुवाद का भी कीङा सा काट लेता है । लोगों को । वे जिसमें श्रद्धा कर बैठते हैं । वो गुरु उन पर हावी सा हो जाता है । जबकि वजह कोई भी नहीं । गुरु से कभी मिले ? नहीं । कुछ प्राप्ति हुयी ? नहीं । आईये कुछ ज्ञान चर्चा करें । कुछ आत्म चर्चा करें । .. भाई साहब इस स्तर की भक्ति नहीं कर पाते । घर बार दुनियाँ दारी भी देखनी होती है ।
यानी गुरु और ज्ञान दोनों से सम्बन्ध 0 । फ़िर क्या वजह है ? आपका ही गुरु सर्वश्रेष्ठ है । उत्तर - क्योंकि उसे बहुत लोग मानते हैं । दरअसल ये उत्तर भी जल्दबाजी का है । यूँ कहिये । संयोगवश कोई गुरु बन गया । 

बस वही ठीक है । गुरु बनाना जरूरी बताया गया है । फ़िर वो चाहे कोई हो । इसलिये कर लिया । औपचारिकता पूर्ण हो गयी । उद्देश्य भी पूर्ण हो गया ?
इससे कुछ और आगे । जो थोङा गुरु के संस्थान से प्रकाशित पुस्तकें प्रवचन आदि पढ लेते हैं । और उन्हें स्वयं के स्तर पर लगता है । सर्वश्रेष्ठ पा गये । वो सिर्फ़ उन्हीं से बात करना पसन्द करते हैं । जो उनकी ही बात मानें । उन्हें माने । मीन मेख न निकालें । आलोचना किन्तु परन्तु वालों से किनारा कर जाते हैं । या इसके लिये कई तरह के पूर्व स्थापित तर्क हैं - ज्ञान भक्ति तर्क का विषय नहीं है । करके देखो । पता चल जायेगा । फ़िर ये कैसा गुरु हुआ । और कैसा ज्ञान हुआ ? जो साधारण जिज्ञासा से भी घबराता है ।
परन्तु यह सनातन धर्म नहीं है । और सनातन धर्म को छुपाने के लिए कितने ज्यादा प्रयास करे जा रहे हैं ।
स्वपनिल की ये तीसरी बात भी उच्चकोटि की और खुले  दिमाग का इशारा करती है । ये सत्य जिसने ठीक से समझ लिया । उस पर कबीर साहब का ये फ़ार्मूला - साधु ऐसा चाहिये । जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे । थोथा देय उङाय ।
एकदम सार्थक होकर क्रियाशील हो जायेगा । क्योंकि लगभग सभी थोथा एक झटके में उङ गया । जब आप सनातन धर्म या सिर्फ़ आत्मा की बात करते हैं । तो यात्रा बहुत शीघ्र शुरू हो जाती है ।
चलते चलते - इसी सम्बन्ध में ओशो एक रोचक दृष्टांत सुनाते हैं । दो आदमी साथ साथ एक गुरु के पास ज्ञान हेतु पहुँचे । गुरु फ़ीस लेते थे । उन्होंने दोनों से पूछा - तुम्हें पहले से क्या क्या आता है ?
एक ने कहा - कुछ भी नहीं । दूसरे ने कहा - सभी वेद शास्त्र आदि । जिसको कुछ भी नहीं आता था । उसे आधी फ़ीस बतायी । और जिसे आता था । उसको ठीक उससे दुगनी बतायी । वो बङा हैरान हुआ । मुझसे दुगनी क्यों ? ये तो ठीक उल्टी बात है । गुरु बोला - जो तुमने भर रखा है । उसे खाली करने में बहुत मेहनत होगी । तुम तमाम तर्क यों क्यों करोगे । जबकि ये सीधा गृहण करता चला जायेगा ।
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