परन्तु दुष्ट, क्रूर और विषयभोगी प्रवृति के कालपुरुष ने उन्हें तरह तरह के मोह, माया और अज्ञान में फ़ंसा कर कैद कर लिया और भांति भांति के कष्ट देने लगा ।
और अब जीव उसके आगे लाचार हो चुका था क्योंकि वह अपना ज्ञान, निजी पहचान और घर भूल चुका था । तब वह कष्ट से त्राहि त्राहि कर अपने बनाने वाले को पुकारने लगा ।
उसकी ये करुण पुकार सतपुरुष के पास गयी और उसने अपना प्रतिनिधि उद्धारकर्ता सदगुरु के रूप में भेजा । जिसने जीव को उसका अपना ज्ञान, निजी पहचान और घर याद दिलाया ।
लेकिन इस रास्ते में अब भी एक बाधा थी । सतपुरुष का काल निरंजन को दिया वचन ।
इस ‘नये खेल’ के शुरू हो जाने से ही कालपुरुष ने धर्म के नाम पर तमाम भृमजाल फ़ैलाया । वास्तव में जीव को जिसकी कोई आवश्यकता ही न थी क्योंकि बिना कुछ किये वह इससे उच्च, अमर, अविनाशी स्थिति में था, है ।
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यह आद्या (इच्छाशक्ति या योगमाया या प्रमुख देवी) तथा काल निरजंन (मन या धर्मराज या राम या कृष्ण या ररंकार) दोनों पति पत्नी लोक (जीवेषणा) तथा वेदरूपी (जानना, मानना) भवसागर (होना) के दोनों किनारों (जन्म मृत्यु - बन्धन, मोक्ष) पर जीवों को रोकने के लिए अत्यंत सावधानी पूर्वक बैठे हैं ।
सात द्वीप नौ खण्ड में, औ इक्कीस ब्रम्हांड ।
सतगुरु बिना न बाचिहा, काल बडो परचंड ।
संसार के धर्मग्रन्थों में जिन पहले स्त्री पुरुष के विषयभोग में आसक्त होने के कारण सत्यलोक से निकाले जाने या वहाँ प्रवेश वर्जित हो जाने का जिक्र है । वे भी यही दोनों है ।
देव पैगम्बर रिषि मिलि, इनही माना मूल ।
निराकार में यह सब अटके, यही सबन की भूल ।
हमरा यह सब कीन कराया, हमहीं बस पर गांव ।
कहे कबीर सबको जगह, हमको नाहीं ठांव ।
और इस भवसागर के बीच में (इनके तीन पुत्र) तीन अहेरी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश - रज, सत, तम) कर्मों का जाल लिए फिरते हैं । यह अनेक हजारों प्रकार के पंथ प्रचलित करके एक दूसरे के विपरीत राह दिखाकर स्वपक्ष यानी अपने अपने धर्म, जाति, मजहब में फँसाकर मनुष्य मात्र को अंधा करते हैं । जिससे समस्त मनुष्य अज्ञानतावश भटक भटक कर मरते हैं ।
माता ते डांइन भई, लिया जगत सब खाय ।
कहें कबीर हम क्या करें, जगत नाहिं पतियाय ।
त्रियदेवा समझे नहीं, भई माय ते नार ।
उन भूलत भूला सब कोई, कहें कबीर पुकार ।
वेदन बरन जो पावें, कहें एक तो बात ।
जैसी कुछ माता कही, सोइ कहें दिन रात ।
किसी को भी मुक्ति का मार्ग नहीं मिलता । ये तीनों मछुआरें (ब्रह्मा, विष्णु, महेश - रज, सत, तम) ऐसे बलिष्ठ हैं कि अपने अनंत कपट जालों द्वारा जीवों को फँसा ही लेते हैं । और भांति भांति के कर्म, उपासना, योग तथा ज्ञान द्वारा लोभ लालच बतलाकर किसी को अपने जाल से बाहर जाने नहीं देते ।
माता गुरु पुत्र भये चेला, सुत को मंत्र दीन ।
कहें कबीर माता को वचन, सबहिन चित धर लीन ।
अज्ञानवश समस्त मनुष्य अपने आप आकर स्वयं कैद होकर इन पाँचों शिकारियों का शिकार बनते हैं । इस भवसागर में समस्त जीव मछलियों के समान हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों मछुआरों की तरह इस
और अनजान मनुष्य इनको अपना भगवान, अल्लाह, रब, खुदा, मालिक मानते हैं । पर जीवों को क्या पता कि हमारे दुःख का कारण यही पाँचों हैं ।
तिसका मंत्र सब जपे, जिसके हाथ न पांव ।
कहें कबीर सो सुत माको, दिया निरंजन नांव ।
कबीर साहेब अपनी वाणी में इनके बारे में बहुत समझाते हैं कि अगर मनुष्य इन देवी देवताओं की पूजा आराधना करेगा तो वो जीव कभी मालिक को नहीं पा सकेगा ।
कबीर ने कहा है ।
देवी देव मानैं सबै, अलख ना मानैं कोय ।
जा अलखे का सब किया, तासों वेमुख होय ।
मांइ मसानी सेढी सीतला, भैरु भूत हनुमंत ।
साहेब से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत ।
राम कृष्ण अवतार है, इनकी नाही मांड़ ।
जिन साहब रचना रची, कबहू ना जन्मा रांड ।
ब्रह्मा विष्णु शंकर कहिये, इन सर लागी काई ।
इनके भरोसे कोई मत रहियों, इनै ना मुक्ति पाई ।
पाँच तत्व तीन गुण के, आगे मुक्ति मुकाम ।
जहाँ कबीरा घर किया, गोरख दत ना राम ।
काल के मुँह से निकला पहला शब्द ॐ है । और वो ही भवसागर में डालने वाला मंत्र (शब्द) है ।
करता ते अनखानी माया, आगम कीन्ह उपाय ।
कहॅ कबीर त्रिया चंचल, राखा पुरुष दुराय ।
पौरुष अपने ते विरची नारी, घर घर कीन्हा ठांव ।
निरगुन को करता ठहराया, मेट हमारा नांव ।
कबीर साहब कहते हैं -
केता हम समझाइया, पै ना समझे कोय ।
उनका कहा जगत मिल माना, हमरे कहे क्या होय ।
जिन ॐकार निश्चय किया, वो करता मत जान ।
साँचा शब्द कबीर का, पर्दा माही पहचान ।
करता के हम करता कहिये, सब दातो के दात ।
सकल मूल सत साहेब कहिये, बाकी जम जंजाल ।
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