ते बिरले संसार मां । जे हरिहि मिलावैं ।
कान फ़ुकाय कहा भयै । अधिका भरमावै ।
आदि सृष्टि से ही निर्विवाद ‘सहज योग’ या ‘सुरति शब्द योग’ भक्ति का सबसे सरल सहज और उच्च माध्यम रहा है । जिसका सिद्धांत जाति, पांति, रूढ़ियों, वर्जनाओं, मान्यताओं, देश, धर्म, कुल, समाज से हटकर सिर्फ़ मानवता और आत्मज्ञान द्वारा जीव के निज स्वरूप के पहचान की बात कहता है ।
एकहि ज्योति सकल घट व्यापक । दूजा तत्व न होई ?
कहै कबीर सुनौ रे संतो । भटकि मरै जनि कोई ।
जिसको सन्तवाणी गुरुग्रन्थ साहिब में -
जपु आदि सचु जुगादि सचु । है भी सचु नानक होसी भी सचु ।
कहकर बताया है । यानी जो सृष्टि की शुरूआत से ही सत्य है । हर युग में सत्य है । स्वयं भी सत्य है और इसको जपने वाले को भी सत्य स्वरूप ही कर देता है ।
इसी भक्ति को कबीर साहब, गुरुनानक, रैदास, मीरा, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दादू, पलटू, रज्जब, अद्वैतानन्द, नंगली सम्राट स्वरूपानन्द, खिज्र, मंसूर, तबरेज आदि आदि प्रसिद्ध सन्तों ने किया है और सरल सहज भाव से परमात्मा को जाना है । यह ज्ञान कुण्डलिनी ज्ञान से बहुत उच्च श्रेणी का होता है ।
किसी भी सन्त, गुरु, सदगुरु द्वारा दी जाने वाली दीक्षा 4 प्रकार की होती है ।
1 मन्त्र दीक्षा - इसमें मन के कषाय (दोष) शुद्ध होते हैं ।
2 अणु दीक्षा - इसमें सूक्ष्म अलौकिक वस्तुओं पदार्थों का ज्ञान होता है ।
3 हँस दीक्षा - इसमें साधक को नीर क्षीर यानी सार असार ज्ञान होता है । यह दीक्षा साधक को बृह्माण्ड की चोटी तक ले जाती है ।
4 परमहँस दीक्षा - यह साधक को बृह्माण्ड की चोटी से ऊपर सत्यलोक की सीमा में यानी आत्मा परमात्मा के क्षेत्र में ले जाती है और लगनशील समर्पित साधक को परमात्मा का साक्षात्कार भी कराती है ।
इसके बाद ऊपर एक ‘शक्ति दीक्षा’ भी होती है । जो साधक को भी आंतरिक रूप से और गुरु भी आंतरिक रूप से दीक्षा देता है । यानी यह दीक्षा शरीर रूप से गुरु शिष्य के बीच नहीं होती ।
1 - सन्तमत के सहज योग का नामदान सीधा ‘हंसदीक्षा’ से शुरू किया जाता है और साधक को सीधा ‘आज्ञाचक्र’ से ऊपर उठाते हैं । इस तरह नीचे के चक्रों की मेहनत बच जाती है । जो अक्सर कई वर्षों का भी समय ले लेती है । हंसदीक्षा में तीसरा दिव्य नेत्र खुल जाता है । जङ चेतन की गाँठ खुल जाती है और साधक दिव्य प्रकाश या दिव्य लोकों के दर्शन दीक्षा के समय ही अपनी संस्कार स्थिति अनुसार करता है ।
हंसदीक्षा के बाद गुरु प्रदत्त नाम जप का सुमिरन वर्तमान में बहु प्रचलित ध्यान Meditation से भी सरल होता है । जो कभी भी कहीं भी किया जा सकता है । और इसे साधक आराम से अपने घर आदि पर करता हुआ अलौकिक अनुभूतियों के साथ भक्ति पदार्थ और अक्षय धन का संचय करता है । जो इस जीवन में और मृत्यु के बाद भी काम आता है ।
2 - यदि साधक लगनशील और अच्छा अभ्यासी है । तो अक्सर 1 या 2 वर्ष में उसकी ‘परमहंस दीक्षा’ कर दी जाती है । इस दीक्षा में साधक के अंतर में ‘अनहद ध्वनि रूपी नाम’ प्रकट किया जाता है । जिसका अभ्यास करने पर साधक को अनेकों सृष्टि के रहस्य और आत्मा के रहस्यों की जानकारी तथा स्वयं की पहचान Who Am I आदि होने लगती है । इस दीक्षा के अभ्यास को सफ़लता से करने पर साधक कृमशः अमर पद को प्राप्त करने की तरफ़ बढ़ने लगता है ।
3 - यदि कोई साधक अच्छा अभ्यासी समर्पित और सात्विक आचार विचार वाला होता है । तब शीघ्र ही उसको समाधि ज्ञान भी कराया जाता है । यह परमहंस दीक्षा के बाद होता है ।
समाधि ज्ञान बहु उपयोगी है । इसमें एक तरह से साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है और स्वयं तथा अन्य के तथा देश दुनियां आदि में होने वाली (या हो चुकी) घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने लगता है । समाधि द्वारा वह अपनी तथा अन्य लोगों की समस्याओं का बखूबी निवारण कर सकता है । तथा संस्कारों को जला सकता है ।
4 - आजकल बहुत से लोगों को जिस तरह से ‘ध्यान’ Meditation का अच्छा अभ्यास है । या किसी अन्य गुरु से नाम लेकर एक से तीन घन्टे तक ध्यान योग में बैठने का अभ्यास है । पर उनको कोई विशेष कामयाबी नहीं मिली है । वह सिर्फ़ पूरे 11 दिन का समय निकाल कर कृमशः हंसदीक्षा और परमहंस दीक्षा और फ़िर उसके बाद सहज समाधि का ज्ञान कर सकते हैं ।
लेकिन 11 दिन का ये विशेष ज्ञान सिर्फ़ उन्हीं लोगों पर कारगर हो पाता है । जो हर तरह से सन्तुष्ट हों और उनमें धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, नौकरी, मकान, दुकान आदि जैसी कोई अतृप्त इच्छा शेष न रही हो । वरना वही ‘इच्छा रूपी संस्कार’ इस ज्ञान के पूर्ण होने में बाधक बन जाता है ।
सरल शब्दों में, जिसमें सिर्फ़ निज पहचान या परमात्म साक्षात्कार की ही वासना शेष रही है और अब तक के सतसंग, ध्यान अभ्यास और चिन्तन, मनन से जो सांसारिक भावों से राजा जनक की भांति लगभग शून्य हो चुका है । वो इसमें सच्चे सन्त, सदगुरु के मिलते ही शीघ्र सफ़ल (एकाकार) हो सकता है ।
इसमें उसकी कुछ स्वयं की कृपा, गुरु की कृपा और स्वयं परमात्मा की कृपा का भी पूर्ण सहयोग रहता है ।
जेहि जानहि जाहि देयु जनाई ।
जानत तुमहि तुमही होय जाही ।
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