हिन्दू मुस्लिम विवाद, खास मुस्लिमों की धार्मिक सोच, नास्तिकों की सन्तों के प्रति धारणा, गुप्त ईश्वरीय विधान और सन्तों की रहस्यमय कार्यप्रणाली आदि पर एक दुर्लभ लेख ।
यह घटनाकृम द्वितीय विश्वयुद्ध 11Feb1915 के समय की है । अर्थात इसका समय इतना पुराना नहीं कि इसके प्रमाणित होने में किसी प्रकार की कठिनाई हो । इसके स्थान और जीवित साक्ष्य ( अगली पीढी ) अभी भी होंगे ।
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ऊपर का चित्र इस लेख में वर्णित दादा गुरु यानी श्री परमहंस दयाल जी का है । और दूसरा उनके सर्वोच्च सुयोग्य शिष्य श्री स्वरूपानन्द जी महाराज परमहंस का । जो वर्तमान में प्रसारित ‘सत्यनाम’ ज्ञान परम्परा के श्री अनिरुद्ध महाराज ( हंस जी के गुरु ) और राधास्वामी या जय गुरुदेव आदि मंडलों के जनक गुरु थे । आज के अधिकतर सतनाम मंडल स्वरूपानन्द जी की ही देन हैं ।
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टेरी में काफ़ी अधिक सर्दी पङती थी । परन्तु श्री परमहंस दयाल जी केवल एक मलमल का चोला ही पहनते थे । सर्दी के कारण 11Feb1915 को आपके पवित्र शरीर के दाहिने भाग पर फ़ालिज गिरा । बन्नू, कोहाट और कई स्थानों से डाक्टर तथा हकीम बुलाये गये । और चिकित्सा शुरू हो गयी । परन्तु कोई विशेष आराम न आया । आप पलंग पर लेटे रहते थे । लोग बारी बारी आकर सेवा करते थे । उन दिनों टेरी में याकी पठान आकर काफ़ी डाके डालते थे । श्री परमहंस दयाल जी की कृपा से स्थिति में बहुत सुधार हुआ । एक दिन श्री परमहंस दयाल जी ने स्वयं ये वचन फ़रमाये थे - लोगों ने समझ रखा है कि हम बीमार हैं । परन्तु वे भला इस रहस्य को क्या जाने । टेरी का संकट हमने अपने ऊपर ले रखा है । सत्य है । महापुरुषों के संकल्प में बहुत शक्ति होती है ।
हजूर दाता दयाल जी के इस अदभुत रोग के पीछे भी एक बहुत बङा रहस्य है । भला उनको यह तकलीफ़ क्यों हुयी ? यह सवाल दिलों में उठ सकता है । किन्तु इस राज पर से भी पर्दा उठ गया ।
टेरी के दो तहसीलदार थे । एक मालगुजारी विभाग का । और दूसरा अंग्रेजों के राजनैतिक प्रतिनिधि द्वारा नियुक्त अरबाब अजब खान टेरी का दूसरा तहसीलदार था ।
वह बहुत धर्मान्ध मतस्सवी मुसलमान था । टेरी के नबाव श्री परमहंस जी को सलाम करने आते जाते । तो उसे बहुत महसूस होता था । पीर हदायतुल्ला शाह साहिब श्री परमहंस दयाल जी के पास आते । तो भी उसे बहुत तकलीफ़ होती थी । हाफ़िज अब्दुल करीम साहिब रावलपिंडी से पीर शाह चिराग के गद्दीनशीं हजूर को सलाम करने आते । तो भी उसे बहुत दुख होता था । वह प्रचार किया करता था कि आप लोग इस हिन्दू फ़कीर के पास किसलिये आते हो ? वह श्री परमहंस दयाल जी के विरुद्ध प्रचार किया करता । नौशहरा में एक मशहूर सूफ़ी फ़कीर थे - बाबा नूरगुल ।
अरबाव अजब खान उनका मुरीद था । एक बार वह उनकी खिदमत में हाजिर हुआ । अर्ज की कि बाबा मैंने छुट्टी ले ली है । अगर आपकी इजाजत हो । तो मैं हज करने जाता हूँ ।
बाबा बहुत खुश हुये । उन्होंने फ़रमाया - जरूर हज करो । हज से फ़ारिग होकर बगदाद चले जाना । वहाँ एक जंगल में इस हुलिये के एक फ़कीर मिलेंगे । वे इस समय के गौस उल आजम हैं । मुसलमानों के विश्वासानुसार हर शताब्दी में भारत में एक कुतुब रहता है । और मध्य पूर्व में एक - गौस उल आजम ।
बाबा नूर गुल बोले - गौस उल आजम से इजाजत ले ली है । आप उनके दर्शन करना । अपना सलाम भी करना । हमारा सलाम भी बोलना । अरबाव अजब खान हज करके बगदाद पहुँचे । और गौस उल आजम से मिले । उन्होंने फ़रमाया - हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे । हमने किसी जरूरी काम से कहीं जाना था । अच्छा किया । आप आ गये ।
अरबाव अजब खान ने दर्शन किये । सलाम किया । और बाबा साहिब का भी सलाम बोला । गौस साहिब बोले - अरबाव साहिब हम आपकी क्या खिदमत करें । हम आपको कुछ दे नहीं सकते । कुछ ले नहीं सकते । दर्शन ही दर्शन है । दीदार ही दीदार है । अरबाव ने अर्ज की - आप इतने बङे गौस होकर मुझे दुआ नहीं दे सकते । उन्होंने फ़रमाया - हम दुआ तो सबको देते हैं । पर ये बेफ़ायदा है । क्योंकि तुम हमारी प्रजा नहीं हो । अपने शहंशाह से दुआ लो । तुम्हारा शहंशाह तुम्हें दुआ दे सकता है । सब कुछ दे सकता है । असल में तुम्हारे मुर्शिद को भी पता नहीं कि इस समय हिन्दुस्तान में ‘शाहे विलायत’ कौन है ?
अरबाव ने हैरानी से पूछा - हजूर फ़िर बताईये । शाहे विलायत कौन हैं ?
गौस साहिब बोले - तुम समुद्र के किनारे बैठे हुये भी प्यासे हो । परमहंस अद्वैतानन्द जी इस समय भारत के ‘शाहे विलायत’ हैं । वही तुझ पर कृपा कर सकते हैं ।
तुम पास बैठे हुये भी हिन्दू मुसलमान के चक्कर में पङे हुये हो । वहाँ ऐसा कोई चक्कर नहीं । कोई भी फ़कीर न हिन्दू है । न मुसलमान । फ़कीर ‘अहले अल्लाह’ होता है ।
अरबाव ने कहा - उन्हें तो इस समय फ़ालिज है । अधरंग है । उनका तो इलाज चल रहा है । वे इतने बङे महापुरुष हैं । तो फ़िर अपने को ठीक क्यों नहीं कर लेते ।
गौस साहिब ने फ़रमाया - तुम्हें क्या पता है कि उन्हें फ़ालिज वगैरह कुछ नहीं । इस समय जो बङी लङाई विश्व युद्ध हो रहा है । सन 1914 का । उसमें महाराज परमहंस जी ने अपना आधा शरीर दे रखा है । दो फ़कीर और हैं । जिन्होंने अपने शरीर का बायां हिस्सा दे रखा है । और परमहंस जी ने दायां । वे अंग्रेजों की ओर से लङ रहे हैं । यह ईश्वरीय फ़रमान है कि - यह लङाई अंग्रेज जीतेंगे ।
अरबाव अजब खान ने अर्ज की - जी मैं लिख लूँ ।
उन्होंने फ़रमाया - जरूर लिख लो । जो सच्चाई है । वह तो सच्चाई ही है ।
अरबाव अजब खान टेरी लौटा । अंग्रेजों के प्रतिनिधि को सारी बात बताई । उसने कहा कि - परमहंस जी के पास प्रसाद लेकर जाओ ।
अरबाव अजब खान पंचायत लेकर टेरी में आया । श्री परमहंस दयाल जी उस समय पलंग पर लेटे हुये थे । अरबाव ने सलाम किया । परमहंस जी ने पूछा - हज कर आये । अच्छा हुआ ।
अरबाब ने अर्ज की - हाँ महाराज ..
- आप तो गौस उल आजम से भी मिलकर आये हैं । परमहंस जी ने सवाल किया ।
- हाँ महाराज मेरे मुर्शिद ने कहा था । उन्हें सलाम करके आना ।
परमहंस जी ने पूछा - क्या कहा था गौस साहिब ने ?
उसने सारी बात कह सुनाई । साथ ही पूछा कि - हजूर क्या यह ठीक है कि आपका आधा शरीर लङ रहा है ?
परमहंस जी मुस्कराकर बोले - तो क्या गौस उल आजम भी गलत कहेंगे । गौस उल आजम जो कहेंगे । सत्य ही कहेंगे ।
इतने शब्द कहकर हजूर परमहंस दयाल जी पलंग से उठे । और अपनी पहले जैसी तेज चाल से उस दालान में टहलने लगे । और फ़िर फ़रमाया - कहाँ है वह फ़ालिज ?
यह अदभुत दृश्य सभी ने देखा । सैकङों श्रद्धालु वहाँ मौजूद थे ।
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शीर्षक - अदभुत रोग, शाहे विलायत ( प्रष्ठ संख्या 67 )
पुस्तक - श्री स्वरूप दर्शन ( अष्टम संस्करण ) 2008
प्रकाशक - सारशब्द मिशन प्रकाशन विभाग ।
मिलने का पता - नंगली ( मेरठ )
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श्री अद्वैत स्वरूप आश्रम
w/9 राजौरी गार्डन, नई दिल्ली
110027
यह घटनाकृम द्वितीय विश्वयुद्ध 11Feb1915 के समय की है । अर्थात इसका समय इतना पुराना नहीं कि इसके प्रमाणित होने में किसी प्रकार की कठिनाई हो । इसके स्थान और जीवित साक्ष्य ( अगली पीढी ) अभी भी होंगे ।
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ऊपर का चित्र इस लेख में वर्णित दादा गुरु यानी श्री परमहंस दयाल जी का है । और दूसरा उनके सर्वोच्च सुयोग्य शिष्य श्री स्वरूपानन्द जी महाराज परमहंस का । जो वर्तमान में प्रसारित ‘सत्यनाम’ ज्ञान परम्परा के श्री अनिरुद्ध महाराज ( हंस जी के गुरु ) और राधास्वामी या जय गुरुदेव आदि मंडलों के जनक गुरु थे । आज के अधिकतर सतनाम मंडल स्वरूपानन्द जी की ही देन हैं ।
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टेरी में काफ़ी अधिक सर्दी पङती थी । परन्तु श्री परमहंस दयाल जी केवल एक मलमल का चोला ही पहनते थे । सर्दी के कारण 11Feb1915 को आपके पवित्र शरीर के दाहिने भाग पर फ़ालिज गिरा । बन्नू, कोहाट और कई स्थानों से डाक्टर तथा हकीम बुलाये गये । और चिकित्सा शुरू हो गयी । परन्तु कोई विशेष आराम न आया । आप पलंग पर लेटे रहते थे । लोग बारी बारी आकर सेवा करते थे । उन दिनों टेरी में याकी पठान आकर काफ़ी डाके डालते थे । श्री परमहंस दयाल जी की कृपा से स्थिति में बहुत सुधार हुआ । एक दिन श्री परमहंस दयाल जी ने स्वयं ये वचन फ़रमाये थे - लोगों ने समझ रखा है कि हम बीमार हैं । परन्तु वे भला इस रहस्य को क्या जाने । टेरी का संकट हमने अपने ऊपर ले रखा है । सत्य है । महापुरुषों के संकल्प में बहुत शक्ति होती है ।
हजूर दाता दयाल जी के इस अदभुत रोग के पीछे भी एक बहुत बङा रहस्य है । भला उनको यह तकलीफ़ क्यों हुयी ? यह सवाल दिलों में उठ सकता है । किन्तु इस राज पर से भी पर्दा उठ गया ।
टेरी के दो तहसीलदार थे । एक मालगुजारी विभाग का । और दूसरा अंग्रेजों के राजनैतिक प्रतिनिधि द्वारा नियुक्त अरबाब अजब खान टेरी का दूसरा तहसीलदार था ।
वह बहुत धर्मान्ध मतस्सवी मुसलमान था । टेरी के नबाव श्री परमहंस जी को सलाम करने आते जाते । तो उसे बहुत महसूस होता था । पीर हदायतुल्ला शाह साहिब श्री परमहंस दयाल जी के पास आते । तो भी उसे बहुत तकलीफ़ होती थी । हाफ़िज अब्दुल करीम साहिब रावलपिंडी से पीर शाह चिराग के गद्दीनशीं हजूर को सलाम करने आते । तो भी उसे बहुत दुख होता था । वह प्रचार किया करता था कि आप लोग इस हिन्दू फ़कीर के पास किसलिये आते हो ? वह श्री परमहंस दयाल जी के विरुद्ध प्रचार किया करता । नौशहरा में एक मशहूर सूफ़ी फ़कीर थे - बाबा नूरगुल ।
अरबाव अजब खान उनका मुरीद था । एक बार वह उनकी खिदमत में हाजिर हुआ । अर्ज की कि बाबा मैंने छुट्टी ले ली है । अगर आपकी इजाजत हो । तो मैं हज करने जाता हूँ ।
बाबा बहुत खुश हुये । उन्होंने फ़रमाया - जरूर हज करो । हज से फ़ारिग होकर बगदाद चले जाना । वहाँ एक जंगल में इस हुलिये के एक फ़कीर मिलेंगे । वे इस समय के गौस उल आजम हैं । मुसलमानों के विश्वासानुसार हर शताब्दी में भारत में एक कुतुब रहता है । और मध्य पूर्व में एक - गौस उल आजम ।
बाबा नूर गुल बोले - गौस उल आजम से इजाजत ले ली है । आप उनके दर्शन करना । अपना सलाम भी करना । हमारा सलाम भी बोलना । अरबाव अजब खान हज करके बगदाद पहुँचे । और गौस उल आजम से मिले । उन्होंने फ़रमाया - हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे । हमने किसी जरूरी काम से कहीं जाना था । अच्छा किया । आप आ गये ।
अरबाव अजब खान ने दर्शन किये । सलाम किया । और बाबा साहिब का भी सलाम बोला । गौस साहिब बोले - अरबाव साहिब हम आपकी क्या खिदमत करें । हम आपको कुछ दे नहीं सकते । कुछ ले नहीं सकते । दर्शन ही दर्शन है । दीदार ही दीदार है । अरबाव ने अर्ज की - आप इतने बङे गौस होकर मुझे दुआ नहीं दे सकते । उन्होंने फ़रमाया - हम दुआ तो सबको देते हैं । पर ये बेफ़ायदा है । क्योंकि तुम हमारी प्रजा नहीं हो । अपने शहंशाह से दुआ लो । तुम्हारा शहंशाह तुम्हें दुआ दे सकता है । सब कुछ दे सकता है । असल में तुम्हारे मुर्शिद को भी पता नहीं कि इस समय हिन्दुस्तान में ‘शाहे विलायत’ कौन है ?
अरबाव ने हैरानी से पूछा - हजूर फ़िर बताईये । शाहे विलायत कौन हैं ?
गौस साहिब बोले - तुम समुद्र के किनारे बैठे हुये भी प्यासे हो । परमहंस अद्वैतानन्द जी इस समय भारत के ‘शाहे विलायत’ हैं । वही तुझ पर कृपा कर सकते हैं ।
तुम पास बैठे हुये भी हिन्दू मुसलमान के चक्कर में पङे हुये हो । वहाँ ऐसा कोई चक्कर नहीं । कोई भी फ़कीर न हिन्दू है । न मुसलमान । फ़कीर ‘अहले अल्लाह’ होता है ।
अरबाव ने कहा - उन्हें तो इस समय फ़ालिज है । अधरंग है । उनका तो इलाज चल रहा है । वे इतने बङे महापुरुष हैं । तो फ़िर अपने को ठीक क्यों नहीं कर लेते ।
गौस साहिब ने फ़रमाया - तुम्हें क्या पता है कि उन्हें फ़ालिज वगैरह कुछ नहीं । इस समय जो बङी लङाई विश्व युद्ध हो रहा है । सन 1914 का । उसमें महाराज परमहंस जी ने अपना आधा शरीर दे रखा है । दो फ़कीर और हैं । जिन्होंने अपने शरीर का बायां हिस्सा दे रखा है । और परमहंस जी ने दायां । वे अंग्रेजों की ओर से लङ रहे हैं । यह ईश्वरीय फ़रमान है कि - यह लङाई अंग्रेज जीतेंगे ।
अरबाव अजब खान ने अर्ज की - जी मैं लिख लूँ ।
उन्होंने फ़रमाया - जरूर लिख लो । जो सच्चाई है । वह तो सच्चाई ही है ।
अरबाव अजब खान टेरी लौटा । अंग्रेजों के प्रतिनिधि को सारी बात बताई । उसने कहा कि - परमहंस जी के पास प्रसाद लेकर जाओ ।
अरबाव अजब खान पंचायत लेकर टेरी में आया । श्री परमहंस दयाल जी उस समय पलंग पर लेटे हुये थे । अरबाव ने सलाम किया । परमहंस जी ने पूछा - हज कर आये । अच्छा हुआ ।
अरबाब ने अर्ज की - हाँ महाराज ..
- आप तो गौस उल आजम से भी मिलकर आये हैं । परमहंस जी ने सवाल किया ।
- हाँ महाराज मेरे मुर्शिद ने कहा था । उन्हें सलाम करके आना ।
परमहंस जी ने पूछा - क्या कहा था गौस साहिब ने ?
उसने सारी बात कह सुनाई । साथ ही पूछा कि - हजूर क्या यह ठीक है कि आपका आधा शरीर लङ रहा है ?
परमहंस जी मुस्कराकर बोले - तो क्या गौस उल आजम भी गलत कहेंगे । गौस उल आजम जो कहेंगे । सत्य ही कहेंगे ।
इतने शब्द कहकर हजूर परमहंस दयाल जी पलंग से उठे । और अपनी पहले जैसी तेज चाल से उस दालान में टहलने लगे । और फ़िर फ़रमाया - कहाँ है वह फ़ालिज ?
यह अदभुत दृश्य सभी ने देखा । सैकङों श्रद्धालु वहाँ मौजूद थे ।
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शीर्षक - अदभुत रोग, शाहे विलायत ( प्रष्ठ संख्या 67 )
पुस्तक - श्री स्वरूप दर्शन ( अष्टम संस्करण ) 2008
प्रकाशक - सारशब्द मिशन प्रकाशन विभाग ।
मिलने का पता - नंगली ( मेरठ )
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श्री अद्वैत स्वरूप आश्रम
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