12 अक्टूबर 2016

अदल कबीर गुरु प्रणाली

कबीर साहिब का चेतावनी युक्त सुन्दर भजन जो जीवन की निस्सारता और निजत्व के सदा स्मरण कर निज घर वापसी का आह्वान करता है ।

क्या सोया उठ जाग मन मेरा, भई भजन की बेरा रे ।
रंगमहल तेरा पङा रहेगा, जंगल होगा डेरा रे ।
सौदागर सौदा को आया, हो गया रैन बसेरा रे ।
कंकर चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा रे ।
ना घर मेरा ना घर तेरा, चिङिया रैन बसेरा रे ।
अजावन का सुमिरण कर लें, शब्द स्वरूपी नामा रे ।
भंवर गुफ़ा से अमृत चुवे, पीवे सन्त सुजाना रे ।
अजावन वे अमर पुरुष हैं, जावन सब संसारा रे ।
जो जावन का सुमिरन करिहै, पङो चौरासी धारा रे ।
अमरलोक से आया बन्दे, फ़िर अमरापुरु जाना रे ।
कहें कबीर सुनो भाई साधो, ऐसी लगन लगाना रे ।
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श्री गुरु रामानन्द जू, तिनके दास कबीर ।
तत्वा जीवा शिष्य भये, तिनके ज्ञान गंभीर ।
सत्वा जीवा शिष्य भये, तिनहुँ के मतिमान ।
‘पुरुषोत्तम’ जीवा भये, अति पुनीत परधान ।
‘कुन्तादास’ तिनके भये, सकल ज्ञान के धाम ।
सुखानन्द सुख रूप ही, रत विचार गत काम ।
‘सम्बोधदास’ पुनि तिनके, शिष्य भये बुध भूप ।
‘देवादास’ सु देवही, जिनकी कथा अनूप ।
‘विश्वरूपदास’ जु भये, सो तो जगदाधार ।
‘विक्रोधदास’ जु कोपगत, विगत सदा मद मार ।
‘ज्ञान मुकुन्ददास’ भये, सुगति देत सब काहु ।
‘सुरूपदास’ सब शिष्य को, जगजीवन लाहु ।
‘निर्मलदास’ निर्मल मति, ‘कोमलदास’ मृदुचित्त ।
‘गणेशदास’ जु विघ्न हरि, शरणागत को चित्त ।
‘गुरुदयालदास’ जु भये, सो वैराग्य निधान ।
‘घनश्यामदासो भये, घनश्याम इव मान ।
‘भरतदास’ विश्व के भरण, ‘मोहनदास’ सुखैन ।
‘रघुवरदास’ रघुवर सम, सब जग मंगल दैन ।
‘दयालदास’ भये जगत, विदित दया आगार ।
‘ज्ञानीदास’ उदार मति, दीनन करत उद्धार ।
‘केशवदास’ केशव सम, सब विभूति के खान ।
शान्त चित्त सो सन्त हित, सदा सन्त परमान ।
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भक्ति भावना को जाग्रति करती यह विनती भक्ति भाव को प्रगाढ़ करती है और गहरे ध्यान में ले जाने में सहयोग करती है । पठनीय ही नही, संग्रहणीय भी ।

सुरति करो मेरे साईयां, हम हैं भव जल माहिं ।
आपहि से बहि जायेंगे, जो नही पकङो बांह ।
मैं अपराधी जन्म का, नख शिख भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो उबार ।
अवगुण मेरे बाप जी, बख्सो गरीब निवाज ।
जो मैं पूत कपूत हौं, तउ पिता कों लाज ।
मुझ में औगुण तुझहि गुण, तुझ गुण अवगुण मुझ्झ ।
जो मैं बिसरूँ तुझ्झ को, तुम नहि बिसरो मुझ्झ ।
साहिब तुम मत बिसरो, लाख लोग मिल जायं ।
हम सम तुम्हरे बहुत हैं, तुम सम हमरे नायं ।
साहिब तुम दयाल हो, तुम लगि मेरी दौर ।
जैसे काग जहाज को, सूझै और न ठौर ।
अब के जब साईं मिलें, सब दुख आँखों रोय ।
चरणों ऊपर सिर धरूँ, कहूँ जो कहना होय ।
अन्तर्यामी एक तुम, आतम के आधार ।
जो तुम छोङो साथ को, कौन उतारे पार ।
कर जोरे विनती करूं, भवसागर है अपार ।
बन्दा ऊपर महर करो, आवागवन निवार ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326