महाकुण्डलिनी शक्ति को इन तुच्छ बुद्धि लोगों ने कोई ऐसा योग ज्ञान या साधारण क्रियात्मक ज्ञान समझ लिया (और लोगों को समझा दिया) मानों ये किसी छोटे मोटे उपकरण को नियन्त्रित संचालित करना मात्र हो ।
वास्तव में कुण्डलिनी महामाया योग शक्ति है । जिसे योगमाया शक्ति भी कहते हैं । जिसका सीधा सा अर्थ है कि विभिन्न पिंडी (शरीर या विराट) चक्रों को चक्र अनुसार ऊर्जा और शक्ति (से जोङने) देने वाली - एक इकाई, एक तन्त्र, एक बृह्माण्डिय स्थिति और प्रतीक गो रूप (शरीर इन्द्रिय रूप) में महादेवी भी । जो परम चेतना से शक्ति लेकर समग्र परिपथ को जरूरत अनुसार चेतना का वितरण करती है ।
मनुष्य शरीर और विराट (पुरुष में स्थिति) सृष्टि का सरंचना रूपी ढांचा आंतरिक और बाह्य रूप से एकदम समान ही है । फ़र्क केवल इतना है कि इस माडल में - असंख्य लोक लोकान्तर, असंख्य शून्य, असंख्य क्षेत्र, असंख्य मार्ग, असंख्य स्थितियां, असंख्य दरवाजे आदि विभिन्न स्थितियों पर स्थिति हैं और एक अदभुत तन्त्र द्वारा लाक्ड है ।
यह भी एक बेहद अदभुत बात है कि वहाँ (पूरी अखिल सृष्टि में कहीं भी) कोई दरवाजा और कोई ताला नहीं है । फ़िर भी एक क्षेत्र स्थिति से दूसरी स्थिति या क्षेत्र बङे चमत्कारिक तरीके से लाक्ड है । और विभिन्न चेतन पुरुषों (जैसे - दिव्य, बृह्म, सिद्ध, योगी, तांत्रिक आदि आदि अपनी प्राप्त स्थिति या पद के अनुसार ही किसी भी क्षेत्र या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में विचरण आदि कर सकते हैं ।
जैसे इस प्रथ्वी पर ही एक राज्य या देश से दूसरे राज्य या देश में जाने रहने कार्य करने की स्थिति में तमाम प्रशासनिक औपचारिकताओं और कागजी कार्यवाही की प्रक्रिया से गुजरना होता है । ठीक ऐसा ही शासन प्रशासनिक नियम इस विराट सृष्टि की विभिन्न गतिविधियों पर लागू होता है । और इन सबकी आज्ञा अधिकार पत्र आदि देने का मुख्य अधिकार उस क्षेत्र विशेष के द्वैत या अद्वैत सत्ता द्वारा नियुक्त सिर्फ़ समर्थ गुरु को ही प्राप्त होता है ।
अतः आपको आश्चर्य हो सकता है । अलग अलग स्थितियों क्षेत्रों और पद ज्ञान के अनुसार समर्थ आंतरिक पहुँच वाले गुरुओं की संख्या अनगिनत होती है । विराट के इन अनगिनत गुरुओं में भी इस प्रथ्वी पर देहधारी होकर प्रकट रूप गुरु गिने चुने ही होते हैं । क्योंकि अलौकिक ज्ञान किसी भी युग में इतने बङे पैमाने पर कभी नहीं फ़ैलता कि हजारों की संख्या में सच्चे गुरुओं की आवश्यकता हो । उदाहरण के तौर पर इस समूची प्रथ्वी के लिये इस घोर कलिकाल में भी 500 गुरु अधिकतम कहे जा सकते हैं ।
लेकिन बेहद आश्चर्यजनक रूप से किसी भी एक समय में देहधारी सदगुरु सिर्फ़ एक ही होता है । यानी सदगुरु कभी भी दो या अधिक नहीं हो सकते । सिर्फ़ समय के देहधारी सदगुरु में ही ये सामर्थ्य होती है कि वह किसी को भी (उसकी पात्रता अनुसार) परमात्मा से मिला सकता है । या साक्षात्कार करा सकता है । जबकि इस प्रथ्वी पर काल माया के जाल से अनेकानेक नकली पाखंडी सदगुरु पैदा हो जाते हैं । जो सदगुरु तो बहुत दूर सही अर्थों में छोटे मोटे गुरु या तांत्रिक मांत्रिक भी नहीं होते । तब कुण्डलिनी जैसे महाज्ञान को रेवङियों की तरह बाँटने वालों के लिये क्या कहा जाये । क्या ऐसा संभव है ? कदापि नहीं ।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा । मनुष्य का और इस विराट सृष्टि का ढांचा एकरूप ही है । पर मनुष्य (जीवात्मा) माया के आवरण में ढका होने से (बद्ध) अल्पज्ञ और अल्प शक्ति वाला है । क्योंकि इसका परिपथ समस्त ज्ञान विज्ञान या ऊर्जा स्रोतों से नहीं जुङा है । अतः जब कभी इसमें पुण्य कर्मफ़ल और भक्तिफ़ल आदि के फ़लस्वरूप जागरूकता, चैतन्यता का उदय होता है । तब यह अपने उत्थान और उद्धार हेतु प्रत्यनशील हो उठता है । ऐसा होते ही यह तत सम्बन्धी अलौकिक ज्ञान के सत साहित्य और सन्त समागम आदि से जुङने लगता है और कृमशः ही अलौकिक ज्ञान को जानने हेतु उन्मुख हो उठता है ।
संक्षेप में देखा जाये । तो यहीं से कुण्डलिनी ज्ञान की शुरूआत होने लगती है और कृमशः झूठे सच्चे गुरुओं से गुजरता हुआ मनुष्य असली, नकली और सार, असार का फ़र्क जानने लगता है । और फ़िर सच्चे सन्तों का शरणागति होने लगता है । इसलिये कुण्डलिनी या धारणा ध्यान समाधि जैसे योग बिना सच्चे गुरु के कभी संभव नहीं हैं । चाहें खुद के प्रयास से इसको सिद्ध करने में आप कितने ही जन्म क्यों न लगा दें ।
अलग अलग स्तर और पहुँच के गुरुओं के अनुसार कुण्डलिनी जागरण के तरीके भी भिन्न भिन्न से हो जाते हैं । और इस विषय से पूर्णतया अनभिज्ञ शिष्य किसी मामूली ऊर्जा आवेश या योग क्रिया को कुण्डलिनी जागरण समझने की भूल कर जाते हैं । जबकि किसी भी एक चक्र पर कुण्डलिनी का जागरण आपकी कल्पना से बहुत अधिक ऊर्जा पैदा करता है और ऐसे अलौकिक अनुभवों से शिष्य गुजरता है कि उसे ध्यान मस्ती का एक अदभुत नशा सा छाने लगता है और ये मैं सिर्फ़ मूलाधार चक्र की ही बात कर रहा हूँ ।
तब क्या ऐसे किसी व्यक्ति या गुरु को आपने देखा है या सुना है ? या फ़िर आप कैसे तय कर पायेंगे कि आपकी कुण्डलिनी पूर्ण हो गयी या सिर्फ़ एक ही चक्र खुला है । जबकि आपका गुरु सिर्फ़ मूलाधार चक्र का ही सिद्ध गुरु हो । आप पुस्तकों के आधार पर ये मिथ्या भ्रामक कल्पना कतई न करें कि मूलाधार जाग्रत हुआ तो आपको गुदा लिंग स्थान के आसपास ही विभिन्न अनुभूतियां होंगी । कोई छोटा अलौकिक आवेश भी आपके मष्तिष्क ह्रदय और पूरे शरीर में ही ऊर्जा सी दौङा देता है ।
तब आसानी से ये भृम हो सकता है कि आपकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत हो गयी और आप भारी भृम में उत्थान के बजाय तेजी से विनाश की ओर अग्रसर होने लगते हैं । क्योंकि निचले मंडल सिद्ध स्थितियां हैं । जिनमें भोग विलासिता का बाहुल्य है और जो आपको बहुत तेजी से कुमार्गी बनाता हुआ अन्त में नर्क जैसे परिणाम को देता है । क्योंकि सिद्धि और अलौकिक शक्ति बिना अच्छे गुरु और सटीक ज्ञान के आपको निर्माण की बजाय विध्वंस की ओर उन्मुख करती है । सरल शब्दों में खुद के द्वारा खुद का ही पतन । अतः ये मार्ग बङी सावधानी का है ।
अभी और भी जुङेगा ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें