22 फ़रवरी 2018

गुरूदेव को अंग



साखी

गुरूदेव को अंग

गुरू को कीजै दंडवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जानै भृंग को, गुरू करिले आप समान॥
दंडवत गोविंद गुरू, बन्दौं ‘अब जन’ सोय।
पहिले भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय॥
गुरू गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तो दंडवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय॥
गुरू गोविंद दोऊ खङे, किसके लागौं पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय॥
गुरू गोविंद दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरि भजै, तब पावै दीदार॥
गुरू हैं बङे गोविंद ते, मन में देखु विचार।
हरि सिरजे ते वार हैं, गुरू सिरजे ते पार॥
गुरू तो गुरूआ मिला, ज्यौं आटे में लौन।
जाति पाँति कुल मिट गया, नाम धरेगा कौन॥
गुरू सों ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिये दान।
बहुतक भौंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान॥
गुरू की आज्ञा आवई, गुरू की आज्ञा जाय।
कहै कबीर सो संत है, आवागवन नसाय॥
गुरू पारस गुरू पुरुष है, चंदन वास सुवास।
सतगुरू पारस जीव को, दीन्हा मुक्ति निवास॥
गुरू पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त।
वह लोहा कंचन करै, ये करि लेय महन्त॥
कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय॥
गुरू धोबी सिष कापङा, साबू(न) सिरजनहार।
सुरति सिला पर धोइये, निकसै जोति अपार॥
गुरू कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहिर वाहै चोट॥
गुरू समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरू दीन्ही दान॥
पहिले दाता सिष भया, तन मन अरपा सीस।
पाछै दाता गुरू भये, नाम दिया बखसीस॥
गुरू जो बसै बनारसी, सीष समुंदर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुन होय सरीर॥
लच्छ कोस जो गुरू बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द तुरी असवार ह्वै, छिन आवै छिन जाय॥
गुरू को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा मांहि।
कहे कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥
गुरू को मानुष जो गिनै, चरनामृत को पान।
ते नर नरके जायेंगे, जनम जनम ह्वै स्वान॥
गुरू को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फ़ंद॥
गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न भेव।
गुरू बिन संशय ना मिटै, जय जय जय गुरूदेव॥
गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष॥
गुरू नारायन रूप है, गुरू ज्ञान को घाट।
सतगुरू वचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट॥
गुरू महिमा गावत सदा, मन अति राखे मोद।
सो भव फ़िरि आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद॥
गुरू सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवै भाग॥
गुरू मुक्तावै जीव को, चौरासी बंद छोर।
मुक्त प्रवाना देहि गुरू, जम सों तिनुका तोर॥
गुरू सों प्रीति निबाहिये, जिहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरू कंत॥
गुरू मारै गुरू झटकरै, गुरू बोरे गुरू तार।
गुरू सों प्रीति निबाहिये, गुरू हैं भव कङिहार॥
गुरू भक्ता मम भक्त है, साध भक्त मम दास।
हरि भक्ता सो उत्तमा, कहैं कबीर हरि व्यास॥
गुरू की महिमा को कहै, सिव विरंचि नहि जान।
गुरू सतगुरू को चीन्हि के, पावै पद निरबान॥
गुरू मुख बानी ऊचरे, सीष साँच करि मान।
या विधि फ़ंदा छूटही, और युक्ति नहि आन॥
गुरू मूरति गति चंद्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहै, गुरू मूरति की ओर॥
गुरू समाना सीष में, सीष लिया करि नेह।
बिलगाये बिलगे नहीं, एक प्रान दुइ देह॥
गुरू सरनागत छाँङि के, करै भरोसा और।
सुख संपति की कह चली, नहीं नरक में ठौर॥
गुरू मूरति आगे खङी, दुतिय भेद कछू नाँहि।
उनही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाँहि॥
ज्ञान प्रकासी गुरू मिला, सो जनि बिसरौ जाय।
जब गोविंद किरपा करी, तब गुरू मिलिया आय॥
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विस्वास।
गुरू सेवा ते पाइये, सतगुरू चरन निवास॥
कबीर ते नर अंध हैं, गुरू को कहते और।
हरि के रूठै ठौर है, गुरू रूठे नहि ठौर॥
कबीर हरि के रूठते, गुरू के सरनै जाय।
कहैं कबीर गुरू रूठते, हरि नहि होत सहाय॥
हरि रूठै गति एक है, गुरू सरनागत जाय।
गुरू रूठे एकौ नही, हरि नहि करै सहाय॥
कबीर गुरू ने गम कही, भेद दिया अरथाय।
सुरति कंवल के अंतरे, निराधार पद पाय॥
बलिहारी गुरू आपकी, घरी घरी सौ बार।
मानुष ते देवता किया, करत न लागी बार॥
सिष खांडा गुरू मसकला, चढ़े शब्द खरसान।
शब्द सहै सनमुख रहै, निपजै सीप सुजान॥
भली भई जो गुरू मिले, नातर होती हानि।
दीपक जोति पतंग ज्यौं, पङता आय निदान॥
भली भई जो गुरू मिले, जाते पाया ज्ञान।
घट ही मांहि चबूतरा, घट ही मांहि दिवान॥
सत्तनाम के पटतरै, देवै को कछु नांहि।
कह ले गुरू संतोषिये, हवस रही मन मांहि॥
निज मन माना नाम सों, नजरि न आवै दास।
कहै कबीर सो क्यों करै, राम मिलन की आस॥
निज मन तो नीचा किया, चरन कमल की ठौर।
कहैं कबीर गुरूदेव बिन, नजरि न आवै और॥
तन मन दीया मल किया, सिर क जासी भार।
जो कबहूँ कहै मैं दिया, बहुत सहै सिर मार॥
तन मन ताको दीजिये, जाको विषया नांहि।
आपा सबही डारि के, राखै साहिब मांहि॥
ऐसा कोई ना मिला, सत्तनाम का मीत।
तन मन सौंपे मिरग ज्यौं, सुने बधिक का गीत॥
जल परमानै माछली, कुल परमानै सुद्धि।
जाको जैसा गुरू मिला, ताको तैसी बुद्धि॥
जैसी प्रीति कुटुंब की, तैसी गुरू सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकङै कोय॥
सब धरती कागद करूं, लिखनी सब वनराय।
सात समुंद की मसि करूं, गुरू गुन लिखा न जाय॥
बूङा था पर ऊबरा, गुरू की लहरि चमक्क।
बेङा देखा झांझरा, उतरी भया फ़रक्क॥
अहं अगनि निसदिन जरै, गुरू सों चाहै मान।
ताको जम न्यौता दिया, हो हमार मिहमान॥
जम गरजै बल बाघ के, कहैं कबीर पुकार।
गुरू किरपा ना होत जो, तो जम खाता फ़ार॥
अबरन बरन अमूर्त जो, कहो ताहि किन पेख।
गुरू दया ते पावई, सुरति निरति करि देख॥
पढ़ित पढ़ि गुनि पचि मुये, गुरू बिन मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहीं मुक्ति है, सत्त सब्द परमान॥
मूल ध्यान गुरू रूप है, मूल पूजा गुरू पांव।
मूल नाम गुरू वचन है, मूल सत्य सत भाव॥
कहैं कबीर तजि भरम को, नन्हा ह्वै करि पीव।
तजि अहं गुरू चरन गहु, जम सों बाचै जीव॥
तीन लोक नव खंड में, गुरू ते बङा न कोय।
करता करै न करि सकै, गुरू करै सो होय॥
कोटिन चंदा ऊगहीं, सूरज कोटि हजार।
तीमिर तो नासै नहीं, बिनु गुरू घोर अंधार॥
पहिले बुरा कमाइ के, बांधी विष की पोट।
कोटि करम पल में कटै, आया गुरू की ओट॥
जगत जनायो सकल जिहि, सो गुरू प्रगटे आय।
जिन गुरू आँखिन देखिया, सो गुरू दिया लखाय॥
हरि किरपा तब जानिये, दे मानव अवतार।
गुरू किरपा तब जानिये, छुङावे संसार॥
जाके सिर गुरू ज्ञान है, सोइ तरत भव मांहि।
गुरू बिन जानो जन्तु को, कबहूं मुक्ति सुख नांहि॥
देवी बङा न देवता, सूरज बङा न चंद।
आदि अंत दोनों बङे, कै गुरू कै गोविंद॥
सब कुछ गुरू के पास है, पाइये अपने भाग।
सेवक मन सौंपे रहै, निसदिन चरनौं लाग॥
बहुत गुरू भै जगत में, कोई न लागे तीर।
सबै गुरू बहि जायेंगे, जाग्रत गुरू कबीर॥
वेद पुरान साधु गुरू, सबन कहा निज बात।
गुरू ते अधिक न दूसरा, का हरि का पितु मात॥
ताते सब्द विवेक करि, कीजै ऐसो साज।
जिहि विधि गुरू सों प्रीति रह, कीजै सोई काज॥
सो सो नाच नचाइये, जिहि निबहै गुरू प्रेम।
कहे कबीर गुरू प्रेम बिन, कितहुं कुसल नहि छेम॥
तन मन सीस निछावरै, दीजै सरबस प्रान।
कहैं कबीर दुख सुख सहै, सदा रहै गलतान॥
तबही गुरू प्रिय बैन कहि, सीष पङी चित्त प्रीत।
तो रहिये गुरू सनमुखा, कबहूं न दीजै पीठ॥
स्नेह प्रेम गुरू चरन सों, जिहि प्रकार से होय।
क्या नियरै क्या दूर बस, प्रेम भक्त सुख सोय॥
जिहि विधि सिष को मन बसै, गुरू पद परम सनेह।
कहैं कबीर क्या फ़रक ढिंग, क्या परबत बन गेह।
जो गुरू पूरा होय तो, सीषहि लेय निबाह।
सीष भाव सुत जानिये, सुत ते श्रेष्ठ आहि॥
अबुध सुबुध सुत मात पितु, सबहि करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥
कहैं कबीर गुरू सों मिले, होय नाम परकास।
गुरू मिले सिष भवनिधि तरै, कहैं कृस्न मुनि व्यास॥
सुनिये संतो साधु मिलि, कहैं कबीर बुझाय।
जिहि विधि गुरू सों प्रीति ह्व, कीजै सोइ उपाय॥
आध सब्द गुरूदेव का, ताका अनंत विचार।
थाके मुनिजन पंडिता, वेद न पावै पार॥
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सु देय।
बलिहारी वे गुरून की, हंस उबारि जु लेय॥
हरि सेवा युग चार है, गुरू सेवा पल एक।
ताके पटतर ना तुलै, संतन कियो विवेक॥
ते मन निरमल सत खरा, गुरू सों लागे हेत।
अंकुर सोई ऊगसी, सब्दे बोया खेत॥
भौसागर की त्रास ते, गुरू की पकङो बांहि।
गुरू बिन कौन उबारसी, भौजल धारा मांहि॥
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय।
कहैं कबीर गुरू साबु(न) सों, कोइ इक ऊजल होय॥
साबु विचारा क्या करै, गांठै राखै मोय।
जल सो अरसा परस नहिं, क्यौं करि ऊजल होय॥
नारद सरिखा सीष है, गुरू है मच्छीमार।
ता गुरू की निन्द करै, पङै चौरासी धार॥
राजा की चोरी करै, रहै रंक की ओट।
कहैं कबीर क्यों ऊबरै, काल कठिन की चोट॥ 

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