पूरा लेख विशेष ध्यान से पढ़िये,
शायद इन तथ्यों पर कभी आपका ध्यान न गया हो।
यह लेख उपहास या आलोचना के बजाय शोध/चिंतन के द्रष्टिकोण
से लिखा गया है, और इसमें सिर्फ़ बालकाण्ड
से तथ्य लिये हैं जबकि पूरे रामचरित मानस में तो ऐसे प्रमाण अनेक स्थान पर हैं।
इसलिये कोई विद्वान इस सम्बन्ध में सटीक ज्ञान रखते हों तो टिप्पणी
द्वारा अवश्य अवगत करायें।
हिन्दू धर्म/समाज और वैश्विक जनमानस में राम चरित्र के
दो ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय/मान्य हैं,
वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरित
मानस। इन दोनों में मानस सरल भाषा और दोहों के कारण घर-घर में स्थापित धर्मकाव्य
है।
इन्हीं दोनों ग्रन्थों और कई अन्य धर्मग्रन्थों में राम और
फ़िर कृष्ण को विष्णु का अवतार और परमात्मा लिखा गया है। यहाँ उल्लेखनीय
है कि अवतार का वैशिष्टय करते समय राम को बारह और कृष्ण को सोलह कला पुरूष
बताया है। जबकि परमात्मा को अनन्तकला कहा जाता है। सही व्याख्याओं में परमात्मा
के लिये ‘पूर्ण’ शब्द का उपयोग न कर ‘अनन्त’ शब्द का उपयोग होता है।
ध्यान रहे पूर्ण में सीमा बोध है, अनन्त में सीमारहित।
इस लेख में ‘खास’ इस तथ्य का संकेत है कि राम, विष्णु के अवतार हैं? तो क्या ग्रन्थलेखक से कुछ चूक हुयी है।
दक्षपुत्री और शंकर जी की पत्नी सती द्वारा सीताहरण के पश्चात
राम की परीक्षा।
अब यहाँ राम अलग हैं, और विष्णु अलग
हैं।
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
देखे सिव-बिधि ((बिष्नु))
अनेका। अमितप्रभाउ एक तें एका॥
देखें, इसी विवरण में आगे इस
सत्ता को श्री (लक्ष्मी) पति (विष्णु) और बैकुंठ निवासी बताया है। बैकुंठ
का मतलब स्वर्ग है क्या? यदि ऐसा है तो स्वर्ग का राजा इन्द्र
कहा जाता है। वैसे विष्णु का वास क्षीरसागर भी कहा है।
अतिसुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥
दूषन रहित सकलगुन रासी। ((श्रीपति))
पुर बैकुंठनिवासी॥
कामदेव को जलाने के बाद रति को शिव का आश्वासन देना।
यहाँ सभी देवता विष्णु,
ब्रह्मा और शंकर उपस्थिति हैं। एक-दूसरे से परिचित हैं।
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥
सब सुर ((बिष्नु)) बिरंचि
समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
शंकर जी का विवाह में विष्णु।
अब शंकर जी दुल्हा बने हैं,
और बारात में सभी देव, विष्णु और ब्रह्मा हैं।
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
((बिष्नु)) बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि-चढ़ि बाहन चले बराता॥
((बिष्नु)) बचन सुनि सुर मुसकाने। निज-निज सेन सहित बिलगाने॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के
बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
विवाह के बाद पार्वती पूर्वजन्म (सती) के संशय अनुसार शंकर
जी से पूछ रही हैं।
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई??
की अज अगुन अलखगति कोई॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी?
शंकर जी ने उत्तर दिया
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोहबस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना?
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोहनिसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
आदि-अंत कोउ जासु न पावा? मति
अनुमानि निगम अस गावा॥
फ़िर पार्वती ने पूछा -
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्बरहित सब उर पुर बासी?
नाथ धरेउ नर-तनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
शंकर जी ने उत्तर दिया -
एक बार हरि (विष्णु) के द्वारपाल जय-विजय के कारण
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक-दुइ कहउँ बखानी? सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल ((हरि)) के प्रिय दोऊ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ?
मुकुत न भए हते भगवाना?
तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना।
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
दूसरा कारण बताया -
नारद का काम जीतने का अहम तोङने के लिये
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा?
जब नारद ने अपने द्वारा काम को जीतने का विवरण शंकर
को सुनाया तो शंकर ने कहा, जैसे ये
प्रसंग तुमने मुझे सुनाया, विष्णु को मत सुनाना।
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मनमाहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बारबार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
तिमि जनि ((हरिहि)) सुनावहु कबहूँ? चलेहुँ
प्रसंग दुराएडु तबहूँ?
लेकिन नारद अहंकारवश नही माने, और क्षीरसागर जाकर विष्णु को सब सुनाया।
((छीरसिंधु)) गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास
श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि ((रमानिकेता))।
बैठे आसन रिषिहि समेता॥
काम-चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
इसके बाद विष्णु ने नारद का अहंकार तोङने के लिये एक मायानगर बनाया, जिसमें राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था। फ़िर नारद
द्वारा विष्णु का रूप मांगना, और विष्णु द्वारा उन्हें (कपि)
बन्दर का रूप देना। और फ़िर नारद का विष्णु को शाप देना।
विशेष - यहाँ एक अन्य प्रसंग उल्लेखनीय है कि कई विद्वान, हनुमान और राम के सहायकों को बन्दर नहीं मानते।
लेकिन इस विवरण और शाप के अनुसार वह वानर ही थे।
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
((कपि आकृति)) तुम्ह
कीन्हि हमारी। करिहहिं ((कीस)) सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी
बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
विष्णु ने नारद का शाप स्वीकार किया।
श्राप सीस धरी हरषि हियँ,
प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता,
करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
फ़िर शंकर जी पार्वती को अवतार का एक और कारण बता रहे हैं।
स्वयंभू मनु और सतरूपा,
जिनसे यह सम्पूर्ण नर-सृष्टि हुयी है।
उन्होंने प्रभु के दर्शन आदि की अभिलाषा से घोर तप किया।
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा?
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा?
लेकिन मनु-सतरूपा को किस प्रभु के दर्शन की अभिलाषा है?
जिसके अंश से अनेको ब्रह्मा, विष्णु, शंकर उत्पन्न होते हैं।
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति-नेति जेहि बेद निरूपा।
निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि ((बिष्नु)) भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना?
फ़िर वह प्रभु सिर्फ़ वाणीरूप निराकार प्रकट हुये, और आकाशवाणी हुयी।
मागु-मागु बरु भै नभबानी। परम गभीर कृपामृत सानी?
मनु ने आकाशवाणी से मांगा।
श्रवन सुधा सम बचन सुनि,
पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत, प्रेम
न हृदयँ समात॥
मनु ने उस वाणी वक्ता से कहा - ब्रह्मा, विष्णु, शंकर आदि जिसकी उपासना करते हैं।
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि ((हरि))-हर बंदित पद रेनू॥
फ़िर मनु ने उन्हीं निराकार वाणीरूप प्रभु को साकार दर्शन देने
को कहा।
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परमप्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेमरस पागे॥
भगतबछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
और प्रभु ने दर्शन दिये।
विवरण, जिसके अंश से अनगिनत
लक्ष्मी, उमा (पार्वती), ब्रह्मानी उत्पन्न होते हैं। अर्थात यहाँ सीता अलग हैं, और विष्णुभार्या लक्ष्मी (का अवतार) नहीं हैं।
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि
उमा ब्रह्मानी?
भृकुटिबिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई?
फ़िर मनु ने वर मांगा।
दानि सिरोमनि कृपानिधि,
नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत,
प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
प्रभु ने एवमस्तु कहा, और उनके समान दूसरा नहीं। इसलिये
स्वयं ही नृपसुत होने को कहा।
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं
कहँ जाई? नृप तव तनय होब मैं आई॥
इच्छामय नरबेष सँवारें?
होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता? करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
आदिसक्ति जेहिं
जग उपजाया? सोउ अवतरिहि मोरि
यह माया।
इसके बाद प्रतापभानु राजा की कहानी, जो रावण के रूप में जन्म लेकर घोर
अत्याचार करता है तब प्रथ्वी बेहद दुखी होती है, और गाय
का रूप रखकर ब्रह्मा आदि देवों के पास जाती है।
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
धेनुरूप धरि
हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर-मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
लेकिन वे सब देवता असमर्थ थे। तब सब देव और प्रथ्वी, ब्रह्मा के पास गये लेकिन ब्रह्मा ने भी मना कर दिया।
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना,
मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी,
हमरेउ तोर सहाई॥
तब सब चिंता में पङ गये क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि विष्णु
(हा..हा) या वह अवतार लेने वाली शक्ति कहाँ और कैसे रहती है।
विशेष - अन्य धर्मग्रन्थ और मानस के अन्य विवरणों के अनुसार मेरी
द्रष्टि में यह बेहद हास्यास्प्रद विवरण है।
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा?
पुर बैकुंठ जान कह कोई?
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई?
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती?
फ़िर शंकर बोले -
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
((हरि)) ब्यापक
सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
फ़िर सभी स्तुति करने लगे - यहाँ विष्णु उपस्थिति नही हैं।
सुनि बिरंचि मन हरष तन,
पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर,
सावधान मतिधीर॥185॥
देखिये विरोधाभासी स्तुति - एक तरफ़ सिंधुसुता (लक्ष्मी) के
कंत (पति) भी बता रहे हैं, और फ़िर यह भी कह रहे हैं - जाकहुँ कोउ नहि जाना?
ऊपर वाले विवरण में भी कहा है,
वह कौन है, इसका देवों को पता नही है। कहँ पाइअ
प्रभु करिअ पुकारा? प्रश्न है, देवता, शंकर,
ब्रह्मा के लिये, विष्णु अपरिचित, अज्ञात हैं क्या?
गो द्विज हितकारी जय असुरारी,
सिधुंसुता प्रिय कंता?
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई, संग सहाय न दूजा?
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा,
जाकहुँ कोउ नहि जाना?
फ़िर निराकार आकाशवाणी हुयी, और आकाशवाणी ने सूर्यवंशी राजा
दशरथ के घर अपने ही अंशरूप तीनों भाई और परमशक्ति सीता समेत अवतार
का वचन दिया।
यहाँ विशेष है कि आकाशवाणी ने नारद वचन (विष्णु
को शाप) को सत्य करने की बात कही।
जानि सभय सुर भूमि,
सुनि बचन समेत सनेह।
((गगनगिरा)) गंभीर
भइ, हरनि सोक संदेह॥186॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर-बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा?
तिन्ह के (दसरथ) गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परमसक्ति समेत अवतरिहउँ?
फ़िर श्रंगी ऋषि द्वारा यज्ञ, और रामजन्म का प्रसंग
यहाँ भी जो प्रकट हुये,
वह श्रीकंत (विष्णु) थे।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,
कौसल्या हितकारी।
सो मम हित लागी जन अनुरागी,
भयउ प्रगट ((श्रीकंता))।
फ़िर बाल राम द्वारा कौशल्या को विराट रूप दिखाना।
यहाँ ध्यान दें कि श्रीकृष्ण,
अर्जुन को विराट रूप दिखाते समय कहते हैं, ये विराट
रूप इससे पहले किसी ने नहीं देखा। जबकि उन्होंने भी बाल अवस्था में यशोदा को,
और दुर्योधन द्वारा बन्दी बनाने की बात पर कौरवसभा में
भी दिखाया था, और बिना किसी दिव्यद्रष्टि के दिखाया था।
लेकिन युद्धभूमि में अर्जुन को दिखाते समय दिव्यद्रष्टि देकर कहा कि इसे सामान्य नेत्रों
से नहीं देख सकते। उत्तरकाण्ड में कागभुसुंडि भी यह रूप देखते हैं।
देखरावा मातहि,
निज अदभुत रूप अखंड?
रोम-रोम प्रति लागे,
कोटि-कोटि ब्रह्मंड॥
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
इसके बाद, अन्य प्रसंगों के बाद, राम का विवाह।
देखिये, राम की बारात में कौन-कौन है। शंकर जी, विष्णु (हरि) और ब्रह्मा (बिधि)।
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु रामरूप
अनुरागे। नयन पंचदस? अतिप्रिय लागे॥
((हरि)) हित सहित रामु जब जोहे। ((रमा)) समेत ((रमापति)) मोहे॥???
निरखि राम छबि (बिधि) हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥
देखिये, बारात में बदले हुये मानव वेश में देवियाँ भी हैं।
सची (इन्द्र की पत्नी) सारदा (सरस्वती, ब्रह्मा की पत्नी) रमा (लक्ष्मी, विष्णु की पत्नी) भवानी (उमा, पार्वती, शंकर की पत्नी)
सची सारदा रमा भवानी। जे
सुर-तिय सुचि सहज सयानी॥
कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥
फ़िर विवाह के अन्य कार्यक्रमों में जनक द्वारा सम्मान
आदि।
देखिये कौन-कौन मौजूद है - (बिधि) ब्रह्मा, (हरि) विष्णु, (हरु) शंकर, ब्राह्मण
के वेश में।
बिधि ((हरि))-हरु
दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥
कपट बिप्रबर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥
विवाह में सीताजी को मंडप में लाती देवियां, रमा (लक्ष्मी, विष्णु
की पत्नी)
बारबार सनमानहिं रानी। उमा ((रमा))
सारद सम जानी॥???
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥
विवाह में वेद विप्र (ब्राह्मण, मानव) वेश में, अग्नि द्वारा शरीर धारण कर होम आहुति लेना।
होम समय तनु धरि अनलु, अतिसुख आहुति लेहिं।
बिप्रबेष
धरि बेद सब, कहि बिबाह बिधि देहिं॥