सभी के लिये यह एक सहज प्रश्न होना चाहिये कि आखिर जीव को शरीर संचालन क्रियाओं के लिये जो शक्ति प्राप्त होती है उसका “मुख्य स्रोत” क्या है? मोटे तौर पर, क्या भोजन से मिलने वाली उर्जा या इससे और ऊपर की योग-व्यायाम या प्राणायाम जैसी क्रियायें, या कुछ-कुछ ऐसी ही मंत्र-तंत्र आदि की वैज्ञानिक सिद्धियां।
यदि इनमें से किसी एक या सभी को भी हम स्वीकार कर लें तो भी यह प्रश्न बना रहेगा कि भोजन, योग या तंत्र-मंत्र को भी प्राप्त होने वाली उर्जा का “मुख्य स्रोत” क्या है? और उस मुख्य-स्रोत से हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कैसे जुङे हैं।
वैसे इसका उत्तर सरल ही है। ज्ञान-योग की स्थिति के बिना जीव “मन के आवरण” में ही घूमता खद्योत (जुगनू) है। जबकि ज्ञान-योग युक्त जीव सूर्य के समान खुले आकाश में प्रकाशित है। अतः जीव को प्राप्त होने वाली शक्ति का रहस्य उसकी “गहन निद्रा” में छुपा है।
कोई भी सफ़ल योगी इस निद्रा से जाग जाता है, और तब परिणाम स्वरूप उसके सुषुप्ति में आने वाले स्वपन सदैव के लिये खत्म हो जाते हैं। और गहन निद्रा से वह जाग ही चुका है अतः अब एकमात्र बचा उसका जीवन रूपी स्वपन भी अभ्यास से मिटने लगता है, और यकायक एक दिन उस योगी को अन्तिम अनुभूति होती है कि वह रात और दिन दोनों के स्वपन से निकल आया है। और यही मोक्ष होना है।
यदि इनमें से किसी एक या सभी को भी हम स्वीकार कर लें तो भी यह प्रश्न बना रहेगा कि भोजन, योग या तंत्र-मंत्र को भी प्राप्त होने वाली उर्जा का “मुख्य स्रोत” क्या है? और उस मुख्य-स्रोत से हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कैसे जुङे हैं।
वैसे इसका उत्तर सरल ही है। ज्ञान-योग की स्थिति के बिना जीव “मन के आवरण” में ही घूमता खद्योत (जुगनू) है। जबकि ज्ञान-योग युक्त जीव सूर्य के समान खुले आकाश में प्रकाशित है। अतः जीव को प्राप्त होने वाली शक्ति का रहस्य उसकी “गहन निद्रा” में छुपा है।
कोई भी सफ़ल योगी इस निद्रा से जाग जाता है, और तब परिणाम स्वरूप उसके सुषुप्ति में आने वाले स्वपन सदैव के लिये खत्म हो जाते हैं। और गहन निद्रा से वह जाग ही चुका है अतः अब एकमात्र बचा उसका जीवन रूपी स्वपन भी अभ्यास से मिटने लगता है, और यकायक एक दिन उस योगी को अन्तिम अनुभूति होती है कि वह रात और दिन दोनों के स्वपन से निकल आया है। और यही मोक्ष होना है।
ये जीवन क्या है?
यथार्थ बोध में औसत सौ वर्ष का जीवन सिर्फ़ एक दिवा-स्वपन (स्व-अवस्था) ही है। जो जीव की व्यष्टि वासनाओं से निर्मित होकर सिर्फ़ माया द्वारा आभासित हो रहा है किन्तु यह उस तरह सत्य नहीं है जिस तरह अनुभूत होता है।
निद्रा की स्थिति में जीव जो लघु-स्वपन देखता है वह “अ-चेतन मन” द्वारा क्षीण वासनाओं और कभी-कभी दृढ़ वासना के परिणाम स्वरूप प्रकट हुआ अनुभव है। लेकिन जाग्रत अवस्था का दृश्य-ध्वनि एवं बलाबल रूपी जगत-अनुभव “चेतन मन” का परिणाम है। जो संस्कार बीजों द्वारा जन्मांतर प्रारब्ध वासनाओं का परिणाम है।
यहाँ जोर इस बिन्दु पर है कि अपने शरीर से लेकर इस पूर्ण स्रष्टि में जीव जो भी पदार्थ आदि तथा अन्यान्य दूसरे जीवों का अनुभव करते हैं, वह सिर्फ़ मायिक यानी एक जादूगरी मात्र है। स्वपन है। और इसी स्वपन से बाहर निकलना वास्तविक मोक्ष है।
1 टिप्पणी:
उपयोगी आलेख।
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