09 जून 2018

माँ, और बस..माँ


दोनों कवितायें कापी पेस्ट हैं, मूल लेखक अज्ञात हैं।
कविताओं में कवित्त नियम तो नहीं, पर दर्द और संवेदना अवश्य है,
जो मानवीय तल पर सोचने पर विवश करती है।
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दूध पिलाया जिसने, छाती से निचोड़कर।
एक गिलास पानी, कभी उसे पिला न सका॥
बुढ़ापे का सहारा हूँ, अहसास दिला न सका।
पेट पर सुलाने वाली को, मखमल पर सुला न सका॥
वो भूखी सो गई बहू के डर से, एक बार मांगकर।
मैं रोटी के दो कौर, उसे खिला न सका॥
नजरें उन बूढ़ी आंखों से, कभी मिला न सका ।
वो दर्द दिल में सहती रही, और मैं तिलमिला न सका॥
जो जीवन भर, ममता के रंग, पहनाती रही मुझे।
दो जोड़ी कपङे कभी, उसे सिला न सका॥
बीमार बिस्तर से उसे, शिफा दिला न सका।
खर्च के डर से, बड़े अस्पताल ले जा न सका । 
बेटा कह के दम तोङने के बाद से, अब तक सोच रहा हूँ।
दवाई, इतनी भी महंगी न थी, कि मैं ला ना सका॥


एक बच्चे ने कब्रिस्तान जाकर
बस्ता माँ की कब्र पर फेंका,
आँखों में आंसू, भर्राये गले,
और शिकायती लहजे में कहा,
तेरी नींद पूरी हो गयी हो, तो चल उठ
और चल मेरे साथ, और चलकर जबाब दे
मेरी टीचर को, वो रोजाना मुझसे कहती है,
कि तेरी माँ बहुत लापरवाह है।
जो न तुझे अच्छी तरह तैयार करके भेजती है।
और न तुझे अच्छी तरह होमवर्क कराती है।
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जिन्दगी में माँ का न होना उसी तरह है।
जिस तरह कङकती धूप में पेङ का न होना।
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- पापा मैंने आपके लिए हलवा बनाया है । ग्यारह साल की बेटी पिता से बोली।
पिता - वाह क्या बात है, खिलाओ फिर पापा को।
बेटी खुशी से दौड़ती रसोई में गई और कटोरा भरकर हलवा ले आई।
पिता ने खाना शुरू किया और बेटी को देखा।
पिता की आँखों मे आँसू थे।
- क्या हुआ पापा, अच्छा नही लगा।
पिता - नही बेटी, बहुत अच्छा बना है।
पिता ने पूरा कटोरा खाली कर दिया।
तभी माँ बाथरूम से नहाकर बाहर आई, और बोली- ला मुझे भी खिला तेरा हलवा।
पिता ने बेटी को पचास रु. इनाम में दिए, बेटी खुशी से मम्मी के लिए हलवा लेकर आई।
उसने हलुवे की पहली चम्मच मुँह में डाली, फ़िर तुरन्त थूक दिया, और बोली - ये क्या बनाया है, ये हलवा है, इसमें चीनी नहीं, नमक भरा है..और आप कैसे खा गये, मेरे बनाये खाने में तो कभी नमक मिर्च कम, तेज है, कहते रहते हो, और बेटी को बजाय कुछ कहने के इनाम देते हो।

पिता (हंसते हुए) - पगली, तेरा मेरा तो जीवन भर का साथ है, रिश्ता है पति पत्नी का, जिसमें नोंकझोंक रूठना मनाना सब चलता है; मगर ये बेटी है, कल चली जाएगी, लेकिन आज इसे वो एहसास, वो अपनापन, महसूस हुआ, जो मुझे इसके जन्म के समय हुआ था। आज इसने बङे प्यार से पहली बार मेरे लिए कुछ बनाया है, फिर वो जैसा भी हो, मेरे लिए सबसे बेहतर, और सबसे स्वादिष्ट है; बेटियां अपने पापा की परियां, राजकुमारी होती हैं, जैसे तुम अपने पापा की हो।
वो रोते हुए पति के सीने से लग गई, और सोचने लगी,
“इसीलिए हर लङकी अपने पति में अपने पापा की छवि ढूंढ़ती है”
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हर बेटी अपने पिता के बेहद करीब या यूँ कहे कलेजे का टुकड़ा होती है। इसीलिये उसकी विदाई के समय सबसे ज्यादा पिता ही रोता है। इसीलिये पिता हर समय अपनी बेटी की फिक्र करता है, क्योंकि हर बेटी अपने पापा की परी होती है।
(कापी पेस्ट)

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326