सन्तमत में ‘नकटा गुरू’ शीर्षक से एक द्रष्टांत है। यद्यपि मजे की बात है कि अब
इसे सुनाया नहीं जाता, या फ़िर पूर्ण ढीठता से सुनाते हैं? द्रष्टांत यह है कि एक अपराधी की सजा के तौर पर नाक काट दी गयी। कालांतर में
यह नये अवतार ‘सदगुरू’ रूप में प्रकट हुआ।
और जैसा कि अक्सर होता है कि भागे हुये अपराधी या दण्डित अभियुक्त, धर्म और धार्मिक चोले की आङ लेते हैं। इस गुरू ने भी वैसा ही किया,
और ऊँची-ऊँची बातों द्वारा जनसामान्य पर मोहिनी डालने लगा।
तब किसी बुद्धिजीवी व्यक्ति ने पूछा कि - गुरूजी, आपकी नाक कैसे कट गयी?
उसने कहा - बिना नाक कटे ईश्वर/परमात्म दर्शन संभव नहीं। इसलिये ईश्वर दर्शन करना
है तो नाक कटाना अनिवार्य है। इसके बाद भी यह सस्ता सौदा ही है।
लोगों को लगा कि वाकई सिर्फ़ नाक कट जाने से ईश्वर दर्शन होते हैं, तो सौदा सस्ता ही है। फ़िर जैसा कि प्रायः होता ही है, आरम्भ में कुछ लोग नाक कटाने के लिये तैयार हो गये।
गुरू ने नाक काटी, और कान में दीक्षामंत्र के बजाय कहा - देखो,
अब नाक तो कट गयी। इसलिये सभी से कहो कि तुम्हें ईश्वर दर्शन हुआ। ऐसी
अनुभूति हुयी। ऐसा ध्यान, ऐसी समाधि हुयी, अन्यथा लोग तुम्हारा उपहास करेंगे।
बात सच थी, और मजबूरी भी थी। अतः वह लोग कहने लगे - वाकई
अदभुत बात है। नाक कटते ही हमें ईश्वर दर्शन हुये।
फ़िर तो गुरूजी के पास नाक कटाने के लिये अनेक लोग आने लगे।
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कोई भी भक्ति/ज्ञान/योग/गुरूधारणा इन सभी का उद्देश्य जीते जी मोक्ष या सत्यदर्शन
कराना है, और प्रत्येक क्रिया का तुरन्त परिणाम पाना है,
न कि दस वर्ष, बीस वर्ष, या मृत्यु उपरान्त।
मज्जन फ़ल पावहु तत्काला, काक होय पिक बकउ मराला।
लेकिन आश्चर्य की बात है कि यही हो रहा है। दस-बीस वर्ष तक गुरूधारण के बाद भी
कोई ज्ञान नहीं हुआ, ध्यान नहीं हुआ, प्राप्ति
नहीं हुयी। फ़िर भी कहते हैं कि - हाँ, अच्छा ध्यान हो रहा है,
ऐसे अनुभव हो रहे हैं, समाधि हो रही है आदि आदि।
हमारे गुरूदेव की बङी कृपा है।
उल्लेखनीय है कि यह बात आत्मज्ञान मंडलों की है। दूसरे मतों की तो जाने ही दें।
असल में वर्तमान गुरू-शिष्य परंपरा में एक बङा दोष तो यही है कि शिष्य को पता ही
नही कि सही अर्थों में उसका लक्ष्य क्या है, और वह किस
प्राप्ति के लिये प्रयासरत है? और गुरू इस बारे में बताता नहीं,
या फ़िर स्वयं नहीं जानता। दूसरे, यदि बताये तो
वह खुद परेशानी में आ जायेगा।
विचार करिये - तब ध्यान का लक्ष्य या सत्य क्या है?
आपे मैं जब आपा निरष्या, अपनपै आपासूझ्या।
आपैकहत सुनतपुनि अपनाँ, अपनपै आपाबूझ्या॥
आपैकहत सुनतपुनि अपनाँ, अपनपै आपाबूझ्या॥
अपनैपरचै लागी तारी, अपनपै आपसमाँनाँ।
कहैकबीर जे आपबिचारै, मिटिगया आवनजाँना॥
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कहैकबीर जे आपबिचारै, मिटिगया आवनजाँना॥
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