18 दिसंबर 2018

ककहरा 2




धर्मराय को सबैपुकारै, धर्मै चीन्ह न पावै।
धर्मराय तिहुलोकहिं ग्रासै, जीवहिं बांधि झुलावै॥
धोखा दै सबको भरमावै, सुरनर मुनि नहिं बाचै।
नर बपुरे की कौन बतावै, तन धरिधरि सबनाचै॥

असुरहोय सतावही, फ़िर रच्छक को भाव।
रच्छक जानि के जपै जिव, पुनि वे भच्छ कराव॥

निरभै निडर नाम लौलावै, नकल चीन्हि परित्यागै।
नादबिन्द तें न्यार बताओ, सुरतोसोहंगम जागै॥
निराधार निःतत्व निअच्छर, निःसंसय निःकामी।
निःस्वादी निर्लिप्त वियापित, निःचिंत अगुन सुखधामी॥

नामसनेही चेतहू, भाखों घर की डोरि।
निरखो गुरूगम सुरति सों, तबचलि तृन जमतोरि॥

पापपुन्य में जिव अरुझाना, पार कौनविधि पावै।
पापपुन्य फ़लभुक्तै तनधरि, फ़िरफ़िर जमसंतावै॥
प्रेमभक्ति परमातमपूजा, परमारथ चितधारै।
पावनजन्म परसि पद पैहै, पारससब्द बिचारै॥

पीवपीव करि रटन लगावै, परिहरि कपटकुचाल।
प्रीतम बिरहबिजोग जेहिं, पाँवपरै तेहि काल॥

फ़रामोस कर फ़िकर फ़ेल बद, फ़हम करै दिलमाहीं।
परफ़ुल्लित सतगुरू गुनगावै, जम तेहिदेख डराहीं॥
फ़ाजिल सोजो आपामेटै, फ़नाहोय गुरू सेवै।
फ़ाँसी काटै कर्मभर्म की, सत्तसब्द चित्तदेवै॥

फ़िरैफ़िरै नर भरमबस, तीरथमांहि नहाय।
कहाभये नर घोर के पीये, ओस तें प्यास न जाय॥

ब्रह्म बिदित है सर्वभूत में, दूसरभाव न होय।
वर्तमान चित्त चेतैनाहीं, भूतभविष्य बिलोय॥
बङे पढ़े ते बिषमबुद्धि लिये, बोलनहार न जोहै।
ब्रह्म दुखति करि पाथर पूजै, बरबस आप बिगोहै॥

बन्दि परे नर काल के, बुद्धि ठगाइनि जानि।
बन्दी छोरौं लैचलौं, जोमोहि गहिपहिचान॥

भाङपरै यहदेस बिराना, भवसागर अवगाहा। अथाह
भक्तअभक्त सभन को बोरै, कोई न पावै थाहा॥
भच्छक आप लीलाविस्तारा, कलाअनंत दिखावै।
भच्छक को रच्छक करिजानै, रच्छक चीन्हि न पावै॥

भजैजाहि सो भच्छक, रच्छक रहानिनार।
भर्मचक्र में परे जीवसब, लखै न सब्दहमार॥

मनमयगर मदमस्त दिवाना, जीवहिं उलटि चलावै।
अकरमकरम करै मनआपहिं, पीछे जिव दुखपावै॥
मोहबस जीव मनहिं न चीन्है, जानै यहसुखदाई।
मारपरै तब मन ह्वै न्यारो, नरकपरै जिवजाई॥

मनगज अगुवा काल को, परखो संतसुजान।
अंकुस सतगुरूज्ञान है, मनमतंग भयमान॥

जो जिव सतगुरूसब्द विवेकै तौ मनहोवै चेरा।
जुक्तिजतन से मन को जीतै, जियतै करैनिबेरा॥
जहँलगि जालकाल विस्तारा, सो सब मन की बाजी।
मनै निरंजनधर्मराय है, मनपंडित मनकाजी॥

गुरूप्रताप भौ जोरजिव, निर्बल भौ मनचोर।
तस्कर संधि न पावही, गढ़पति जगै अंजोर॥

रहनि रहै रजनी नहिंव्यापै, रतेमते गुरूबानी।
राहबतावौं दयाजानि जिव, जातें होय न हानी॥
रमताराम कामकरि अपना, सुपना है संसारा।
रार रोर तजि रच्छक सेवो, जातें होयउबारा॥

रैनदिवस उहवाँ नहीं, पुरूषप्रकास अंजोर।
राखो तेईठांव जिव, जहाँ न चाँपैचोर॥

लगनलगी जेहि गुरूचरनन की, लच्छन प्रगट तेहिं ऐसा।
लगनलगी तब मगनभये मन, लोकलाज कुल कैसा॥
लगा रहै गुरूसुरत परेखै, निजतन स्वार्थ न सूझै।
लागैठोकर पीठ न देवै, सूरा सनमुखजूझै॥

लहरलाज मनबुद्धि की, निकट न आवैताहि।
लोटै गुरूचरनन तरे, गुरूसनेह चित जाहि॥

वाके निकट कालनहिं आवै, जो सतसब्द समाना।
वारपार की संसयनाहीं, वाही में मनमाना॥
वासिलवाकी का डरनाहीं, वारिस हाथबिकाना।
वारिस को सौंपै अपने तईं, वाही ह्रदयसमाना॥

वाकिफ़ हो सो गमिलहै, वाजिब सखुन अजूब।
वाही की करिबन्दगी, पाक जात महबूब॥

शहर चोर घनघोर करे रे, सोवैं सब घरबारी।
शोर कर निर्भरमै सोवै, लागी बिषमखुमारी॥
साहिब से तो फ़ेरि दिलअपना, दुनियां बीच बंधाया।
सालासाली ससुरा सरहज, समधी सजन सुहाया॥

सतगुरू सब्द चेतावहीं, समुझि गहै कोईसूर।
समबल लीजे हाथकरि, जाना है बङदूर॥

खलकसयाना मनबौराना, खोयजान निजकामा।
खबरनहीं घरखरच घटाना, चेतै रमतारामा॥
खोलिपलक चितचेतै अजहूँ, खाबिंद सों लौलावै।
खामख्याल करिदूर दिवाना, हिरदे नामसमावै॥

खाल भरी है बायु तें खाली, खाली होत न बार।
खैर परै जेहि काम तें, सो करु बेगिबिचार॥

सहजसील संतोषधरन धर, ज्ञानविवेक बिचार।
दयाछिमा सतसंगति साधो, सतगुरू सब्दअधार॥
सुमिरन सत्तनाम का निसुदिन, सूरभाव गहि रहना।
समर करै औ जोर परै जो, मन के संग न बहना॥

सैन कहा समुझाय कै, रहनीरहै सो सार।
कहेतरै तो जगतरै, कहनिरहनि बिनु छार॥

हरिआवै हरिनाम समावै, हरि मों हरि को जानै।
हरिहरि कहे तरै नहिंकोई, हरिभज लोक पयाने॥
हरिबिनसै हरि अजरअमर है, हरीहरी नहिं सूझै।
हाजिर छोङ बुत्त को पूजै, हसद करै नहिं बूझै। द्रोह

हमहमार सबछाङि कै, हक्क राह पहिचान।
हासिल हो मकसूद तब, हाफ़िज अमनअमान॥

छैलचिकनियां अभै घनेरे, छका फ़िरैदिवाना।
छायामाया इस्थिर नाहीं, फ़िरि आखिर पछताना॥
छरअच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै।
छर परिहरि अच्छर लौलावै, तब निःअच्छर पावै॥

अच्छरगहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न।
कहैकबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह॥

॥इति॥

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326