=आत्मा के स्वरूप=
आत्मा के शुद्ध चेतनस्वरूप को ‘हंसदेह’ कहते हैं। इस स्थिति में
आत्मा ब्रह्म के तदरूप हो जाता है।
आत्मा में ‘अह्मब्रह्मास्मि’ के भाव को ‘अज्ञानग्रन्थि’ कहते हैं।
इस अभिमानयुक्त अवस्था को आत्मा का ‘केवल्यदेह’ कहते हैं।
प्रकृति की और प्रवाह होने से आत्मा में प्रकृतिभोग की इच्छा बलवती
हो जाती है। इस अवस्था को ‘महाकारण देह’ कहते हैं। यह आत्मा की आनन्दरहित भ्रमयुक्त
सत-चित अवस्था है।
भोगइच्छा से जीव का सम्बन्ध प्रकृति से होता है। चेतनआत्मा और
जड़प्रकृति के सम्बन्ध को ‘कारणशरीर’ कहते हैं। इसी को ‘जड़चेतन की ग्रन्थि’ भी कहते
हैं।
इस ग्रन्थि के कारण जीव प्रकृति के बन्धन में पड़ जाता है। उसे
पाँच प्राण, दस इन्द्रिय,
चार अन्त:करण तत्वों का ‘सूक्ष्मशरीर’ प्राप्त हो जाता है।
सूक्ष्मशरीर रज-वीर्य के संयोग होने से माता के गर्भ में प्रवेश
करता है, और दस मास में ‘स्थूलशरीर’
धारण कर जन्म लेता है।
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