09 जुलाई 2020

योगी को सपने नहीं आते

स्वपन, मनुष्य की गहरी, अतृप्त, दबी हुयी वासनाओं के परिणाम स्वरूप हैं जो अर्धनिद्रा (सुषुप्ति) की अवस्था में मन की अवचेतन स्थिति में अनुभूत होते हैं। लेकिन ये क्रिया सामान्य मनुष्य के (भौहों से नीचे) पिंड से नीचे तक ही रहने की विवशता के कारण होती है। और कंठ स्थित चित्रणी नाङी में जमा “कारण” संस्कारों से होती है।

कारण में जाय, नाना संस्कार देखे।

जबकि एक सफ़ल योगी का (भौंहों के मध्य स्थित) ब्रह्माण्डी द्वार खुला होता है, और उसका (सुरति) ध्यान सदैव ब्रह्माण्ड में रहता है।

कर से कर्म करो विध नाना। राखो ध्यान “जहाँ” कृपानिधाना॥

उसकी चेतना का उर्जा स्तर भी सामान्य मनुष्य से सौ गुना या हजार गुना तक होता है। अत: उसकी तुरिया अवस्था में से एक “सुषुप्ति” हमेशा के लिये खत्म हो जाती है। दूसरे, योग समाधि द्वारा वह अचेतन में दबी ‘कारण’ रूपी वासनाओं को जलाता
रहता है।

तब उसका अगला कदम तुरिया की शेष दो अवस्थाओं “निद्रा” से जागना और “जाग्रत” स्वपन से बाहर आकर आनन्द स्वरूप अवस्था मोक्ष ही रह जाता है। अतः अपने ही इस रहस्य को जानने का गहन चिन्तन करें।
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कोड-डिकोड (आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य)

तत्वदर्शी, प्रकाशित आत्म, अनहद-नाद का श्रोता, शब्द का भेदी/मर्मी, आत्मदर्शी, अनन्त का यात्री..साधु-सन्त, गुरू-सदगुरू के आधीन हुये बिना किये गये ज्ञान, ध्यान, योग आदि अंतर-क्रियायें उस “कागज के फ़ूल” के समान हैं, जो देखने में तो सुन्दर है पर उसमें पुष्प के वास्तविक तत्व सुगन्ध, पराग, अर्क आदि नाम को नहीं है। अतः ऐसी कोई भी साधना, भक्ति, आराधना आदि भगवत उपक्रम क्षीण लाभ पहुँचा कर अन्ततः थोथे ही साबित होते हैं।

जस है तस जानत नाहीं। जस जानत हैं तस है नाहीं॥

अधिकतर मनुष्य, शारीरिक (ध्यान) क्रियाओं एवं उनके अवयवों पर ध्यान केन्द्रित कर आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य को जानना चाहते हैं जो कि सम्भव ही नहीं हैं। क्योंकि इससे, सिर्फ़ कुछ हद तक शरीर के रहस्यों का ज्ञान एवं शरीर की उर्जा, विद्युत, तरंगें और नाङी, प्राण आदि की कार्य-प्रणाली का ही पता चलता है। और वह भी बेहद न्यून स्तर पर।

वस्तु कहीं खोजे कहीं, वस्तु ना आवै हाथ।
वस्तु तभी पाईये, जब भेदी होवै साथ॥

वास्तव में ज्ञान, ध्यान, शक्ति एवं प्रकृति के सभी रहस्य “शब्द” से उत्पन्न “चेतन अणु” में कोड के रूप में छिपे हुये हैं, और किसी स्थान विशेष में नहीं हैं। क्योंकि परमात्मा असंख्य कला है इसलिये ये अणु भी असंख्य ही हैं। तब..

होय बुद्धि जो परम सयानी।

के द्वारा गुरू, ज्ञान (वस्तु) एवं ध्यान तीनों के संयोग से इस कोडेड अणु को विस्फ़ोट करके डिकोड किया जाता है। तब वह शक्ति, उपकरण, रहस्य उस साधक में लय होकर समाहित हो जाता है। और मनुष्य की सभी ध्यान चेष्टायें इन्हीं लक्ष्यों को लेकर प्रयासशील हैं। पर सही जानकारी न होने से वह इन्हें कभी प्राप्त नहीं कर पाता।

सत्य तो यह है कि मनुष्य “मोक्ष है क्या” यही नहीं जानता।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326