गरुदेव प्रणाम, आपकी शरण में फ़िर उपस्थित हूँ । अपनी शंकाओ के समाधान हेतु । जो निम्न प्रकार है ।
१ जीवन के चार पुरषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । गुरुदेव मेरा मानना है कि धर्म एक व्यवहारिक चींज है । और धर्म तो इतना व्यापक है कि तीनों पुरूषार्थों को समाहित कर सकता है । फ़िर इन्हें वेदों में समान स्थान क्यों दिया गया है । इनकी अलग-२ व्याख्या क्यों की गयी है ।
उत्तर - धर्म का अर्थ - धारण किया हुआ । अर्थ का अर्थ - उस पदार्थ वस्तु व्यक्ति आदि में निहित मायने या उपयोग या जो कुछ भी वह है । वह क्या है । काम का अर्थ - सभी इच्छायें या वासनायें । मोक्ष का अर्थ - छुटकारा या अज्ञान रूपी मोह का क्षय हो जाना ।
अब दरअसल इस विषय में सही जानकारी न होने से आपकी बात भी स्पष्ट प्रश्न के रूप में नहीं है । उदाहरण के लिये मान लीजिये । एक वृक्ष है । अब वृक्ष होना उसका शरीरी धर्म है । फ़ल फ़ूल पत्ते लकङी जङ आदि का उपयोग उसमें निहित अर्थ है । हवा पानी धूप स्थान आदि उसका काम या जरूरतें है । और आयु पूर्ण होने पर उस शरीर से छुटकारा पाना कर्तव्य आदि से मुक्त हो जाना ही उसका उस शरीर से मोक्ष है । अतः बताईय़े । कौन सी चीज महत्वहीन है । जिसको समान महत्व न दिया जाय । या व्याख्या करने में उपेक्षित या नकार दिया जाये । अब मान लीजिये । मनुष्य शरीर है । आत्मा से अशरीरी जीवात्मा का शरीर धारण करना शरीर धर्म हुआ । अब केवल शरीर धारण करने का ही तो कोई मतलब नहीं हुआ । क्योंकि शरीर किसी कारण से उपजता है । तो उस कारण और शरीर के अर्थ क्या हैं ? अब विभिन्न वासनाओं और काम मूल का जो यह शरीर रूपी समूह निर्मित हुआ है । वो क्या हैं ? और ये शरीर ( धर्म ) उसका मतलब ( अर्थ ) और उसके कारण संस्कार आदि से निर्मित इच्छायें ( काम ) और फ़िर इसका उद्देश्य पूर्ण होकर इसका त्याग ( मोक्ष ) होना । बताईये । इनमें से कौन सा अमहत्वपूर्ण है । जिसको कम माना जाये । या उसके विषय में बात ( व्याख्या ) करना महत्वपूर्ण न हो ?
अगर आपने थोङा भी बुद्धि का इस्तेमाल किया होता । तो दरअसल ये कोई प्रश्न ही नहीं था । इसका उत्तर दृश्य जगत में ही स्पष्ट है । जैसा कि मैंने कई बार जिक्र किया । परमात्मा की सबसे प्रमुख शक्ति ऊर्जा का रूपांतरित रूप संसार में बिजली है । क्या आज तक बिजली को किसी ने देखा है ? हाँ उसकी शक्ति और आवेश निरंतर अनुभव में आता है । लेकिन जब यह बिजली बल्ब आदि किसी यन्त्र से जुङती है । तो किसी हद तक इसका प्रकट रूप देखा जा सकता है । ठीक यही बात योग में कही जा सकती है कि योगी को उसकी शक्ति आवेश और अंतर रूप प्रकाश नजर आता है । और शरीर में महसूस होता है ।
निराकार से अर्थ इसके इन्द्रियजनित या स्थूल भौतिक आदि आकार से विरोध है । वह ऐसा नहीं है । बल्कि स्वयं प्रकाश है । अतः देखा जा सकता है । मैंने कहा । योग में जब ध्यान एकाग्रता होती है । तो शक्ति आवेश प्रकाश और दिव्य आसमानी ध्वनियां आदि स्पष्ट और साधक की उच्चता अनुसार देर तक और स्पष्ट नजर आते हैं । अतः आपके उपरोक्त शब्द नितांत अनजान व्यक्तियों के शुरूआत्ती पाठयकृम हेतु ही है । न कि अंतिम सत्य । अगर आपने इसके आगे भी पढा होता । तो स्पष्ट वर्णन है । उस निराकार कालातीत इन्द्रियातीत परम को कैसे देखा जाना हुआ जा सकता है । बिजली के बाद सामान्य तत्व हवा आकाश अग्नि को कभी आपने देखा है ? जिसको आप आकाश कहते हैं । वह क्या है ? बङी बारीकी से इस पर गौर करें । जबकि आप आकाश का निरंतर प्रयोग व्यवहार और मान्यता देते हैं । आप कहते हैं । आपको आकाश दिख रहा है । आकाश में बादल है । आकाश साफ़ है आदि आदि । ये आकाश क्या है ? आपको कैसे और क्या दिखता है । मैंने कहा - गहराई से सोचना ?
उत्तर - अध्यात्म इतना सूक्ष्म और गहन विषय है कि यदि मैं इस प्रश्न का विस्त्रत और पूर्ण उत्तर दे दूँ । तो इस मार्ग के साधकों को इसी उत्तर का शोध करने और फ़िर प्रयोगात्मक रूप से जानने में एक या कई जीवन लग सकते हैं । लग जाते हैं । फ़िर भी मुझे पता है । ये प्रश्न मोटे तौर पर और आंशिक भाव ही लिये है ।
इसको एक सजीव उदाहरण से समझिये । कभी कोई डाक्टर या किडनैपर अपने पेशेंट को बेहोशी का इंजेक्शन लगा देता है । और फ़िर इच्छानुसार क्रिया करता है । तब वह मनुष्य अ-मन ही तो होता है । तो प्रकृति कौन सा कार्य नहीं कर रही होती । वह व्यक्ति चीखता चिल्लाता हाथ पैर फ़टकार कर प्रतिरोध भी करता है । पर मन निष्क्रिय होने से यानी शरीर पर उसका नियन्त्रण न होने से ये प्रतिरोध क्षीण और अप्रभावी होता है । परा अपरा दो प्रकृतियां हैं । जिन्हें सरल भाषा में सूक्ष्म और स्थूल कह सकते हैं । जब आप सोते हैं । तब भी लगभग अ-मन ही होते हैं । मगर आपके शरीर को छोङकर पूरी सृष्टि का कार्य बेहद समुचित तरीके से चल रहा होता है । यहाँ तक कि आपके सोते शरीर में भी रक्त प्रवाह प्राण बहना पाचन क्रिया आदि तमाम क्रियायें होती रहती हैं । प्रकृति परमात्मा से प्रकट है । अतः योगियों या साधकों के लिये ( आपके भावनुसार ) प्रकृति के नियम अनुकूल हो जाते हैं । सिर्फ़ परमात्मा और उससे साक्षात्कार हुये योगी पर प्रकृति के नियम कार्य नहीं करते । लेकिन ध्यान रहे । स्वयं परमात्मा या ऐसा योगी प्रकृति से भी परे है । उसकी इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं होती ।
अ-मन की अनेकानेक अवस्थायें स्थितियां हैं । अतः सिर्फ़ परमात्म साक्षात्कार वाले अ-मन को छोङकर वह संसार से मुक्त नहीं होता । हाँ एक लम्बे समय तक दिव्यादि लोकों की प्राप्ति हो जाने को इस मृत्युलोक संसार से स्वतन्त्र हो जाना माना जाय । तो वह हो जाता है । पर ध्यान रहे । वह भी संसार ही है । दीर्घ जीवन और ऐश्वर्यपूर्ण संसार ।
अ-मन होने से शून्य अवस्था आती अवश्य है । पर वह मुक्त रूप से अलग है । मन बुद्धि का लोप नहीं होता । बल्कि इसकी क्षमता और स्तर उच्च हो जाता है । शून्य अवस्था में क्या क्या बचता है । दरअसल आप शून्य अवस्था के बारे में सही तरह से नहीं जानते । सब कुछ बचता है । जो उस शून्य अवस्था को प्राप्त व्यक्ति के पास शेष रहा हो । बुद्ध को शून्य अवस्था हुयी थी । उनके कथनों से आप थोङा तो समझ ही सकते हैं । शून्य अवस्था कोई एक नहीं । कई हैं । अतः इसके बारे में मोटे अन्दाज में नहीं कहा जा सकता । जब तक यह स्पष्ट न हो । आप कहाँ और क्या कह रहे हैं ?
किसी भी योग में मनुष्य सर्वप्रथम गुरुशक्ति तदुपरांत अंतर प्रकाश अंतरध्वनि के सहारे उस स्थिति तक स्वयं द्वारा प्राप्त की हुयी ऊर्जा भक्ति अधिकार ( हक ) और कृपा के द्वारा ही आगे बङता है । यह बात बिलकुल प्रारम्भ से लेकर भक्ति यात्रा के अन्त तक लागू होती है ।
उत्तर - इसका उत्तर भी वर्तमान तकनीक में है । जैसे कम्प्यूटर ( जीव ) के चलन ( आदि सृष्टि ) के समय से कोई एक हार्ड डिस्क ( अंतःकरण ) में एक से एक बढकर अच्छे प्रोग्राम ( एप्लीकेशन ) और एक से एक बढकर घटिया प्रोग्राम ( जीव के विभिन्न संस्कार और कर्म ) क्रियान्वित ( जीवन ) किये जाते रहे हों । यहाँ ध्यान रहे । साधारण जीव अवस्था में कम्प्यूटर ( जीव ) और हार्ड डिस्क ( अन्तःकरण ) ज्ञान या मोक्ष न होने तक अनन्तकाल तक चलते ही रहेंगे । जीव तो निर्लेप और अविनाशी है ही । लेकिन यह अन्तःकरण भी कभी नष्ट या खराब नहीं होता । सिर्फ़ इस पर कर्म, संस्कार का लिखना मिटना निरंतर होता रहता है । और इस पर लिखे कारण संस्कार से ही जीव जन्म मरण मैं तू सृष्टि आदि का बोध मायावश करता है । ज्ञानयोग में यही अन्तःकरण जब फ़ुल फ़ार्मेट ( निर्बीज समाधि से कारण और संस्कार जलना - जबहि नाम ह्रदय धरा अंतर हुआ प्रकाश । जैसे चिनगी आग की परी पुरानी घास ) होता है । उसे आपके भाव अनुसार फ़िर से पहला एकदम नया जन्म कह सकते हैं । और अब आप अन्दाजा लगा सकते हैं । वह कैसा और उसका व्यक्तित्व कैसा होता होगा । वास्तविक स्थित में तो जीव भी अजन्मा ही है । और इसका मरण भी नहीं होता । जन्म मरण बंधन मोक्ष और कल्पित सृष्टि सिर्फ़ मन के धर्म हैं । मन की मायिक रचना है । जो निसंदेह स्वपन चित्र से अधिक सत्य नहीं है । जनसंख्या बढने की बात ये है कि आप अपनी सीमित बुद्धि से इसका अन्दाजा नहीं लगा सकते । सागर ( परमात्मा ) के पानी से कितनी बूंदें ( जीव ) बन सकती हैं । और इसके बाद घूम फ़िर कर कितनी वापिस सागर में आ जाती हैं । और कितनी नई बनती बिगङती रहती हैं । ये मनुष्य बुद्धि से कभी नहीं जाना जा सकता ।
१ जीवन के चार पुरषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । गुरुदेव मेरा मानना है कि धर्म एक व्यवहारिक चींज है । और धर्म तो इतना व्यापक है कि तीनों पुरूषार्थों को समाहित कर सकता है । फ़िर इन्हें वेदों में समान स्थान क्यों दिया गया है । इनकी अलग-२ व्याख्या क्यों की गयी है ।
उत्तर - धर्म का अर्थ - धारण किया हुआ । अर्थ का अर्थ - उस पदार्थ वस्तु व्यक्ति आदि में निहित मायने या उपयोग या जो कुछ भी वह है । वह क्या है । काम का अर्थ - सभी इच्छायें या वासनायें । मोक्ष का अर्थ - छुटकारा या अज्ञान रूपी मोह का क्षय हो जाना ।
अब दरअसल इस विषय में सही जानकारी न होने से आपकी बात भी स्पष्ट प्रश्न के रूप में नहीं है । उदाहरण के लिये मान लीजिये । एक वृक्ष है । अब वृक्ष होना उसका शरीरी धर्म है । फ़ल फ़ूल पत्ते लकङी जङ आदि का उपयोग उसमें निहित अर्थ है । हवा पानी धूप स्थान आदि उसका काम या जरूरतें है । और आयु पूर्ण होने पर उस शरीर से छुटकारा पाना कर्तव्य आदि से मुक्त हो जाना ही उसका उस शरीर से मोक्ष है । अतः बताईय़े । कौन सी चीज महत्वहीन है । जिसको समान महत्व न दिया जाय । या व्याख्या करने में उपेक्षित या नकार दिया जाये । अब मान लीजिये । मनुष्य शरीर है । आत्मा से अशरीरी जीवात्मा का शरीर धारण करना शरीर धर्म हुआ । अब केवल शरीर धारण करने का ही तो कोई मतलब नहीं हुआ । क्योंकि शरीर किसी कारण से उपजता है । तो उस कारण और शरीर के अर्थ क्या हैं ? अब विभिन्न वासनाओं और काम मूल का जो यह शरीर रूपी समूह निर्मित हुआ है । वो क्या हैं ? और ये शरीर ( धर्म ) उसका मतलब ( अर्थ ) और उसके कारण संस्कार आदि से निर्मित इच्छायें ( काम ) और फ़िर इसका उद्देश्य पूर्ण होकर इसका त्याग ( मोक्ष ) होना । बताईये । इनमें से कौन सा अमहत्वपूर्ण है । जिसको कम माना जाये । या उसके विषय में बात ( व्याख्या ) करना महत्वपूर्ण न हो ?
२ जब विवेकानंद जी को उनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस जी ने अद्वैत का अनुभव कराया । तो विवेकानन्द जी को हर वस्तु मे ब्रह्म नजर आने लगा । निराकार, इन्द्रियातीत परम ब्रह्म को विवेकानन्द जी ने कैसे पहचाना ? उन्हे वो किस तरह दिखाईं दिये ? जिसका न कोई आकार है । न रंग जो इन्द्रियोँ से भी न जाना जा सके । तो विवेकानन्द जी ने क्या देखा ? मुकेश शर्मा, अलवर ( ई मेल )
उत्तर - मैनें कई बार स्पष्ट किया । विवेकानन्द या कालातीत तमाम अन्य को कब और कौन सा बृह्म नजर आया । या रामकृष्ण ने क्या अनुभव कराया । ऐसी बातों का मेरे लिये कभी कोई महत्व नहीं रहा । मैं ऐसी बातों को विज्ञान के तरह अध्यात्म में खोज हेतु प्रेरणा और संकेत सूत्र अवश्य मानता हूँ । पर एकदम जस का तस सत्य हरगिज नहीं । आप यदि सभी प्रचलित वर्तमान अध्यात्म मंडलों के साहित्य या उनके गुरुओं के बारे में अध्ययन करे । तो तमाम भ्रामक बातें आपको जानने को मिलेगी । यही नहीं जिनका साहित्य उपलब्ध नहीं होगा । उनके बारे में भी सत्य असत्य बातों की भरमार मिलेगी । यहाँ तक कि जिसके बारे में यह कहा गया है । वह पढकर स्वयं भी हंस सकता है कि - ये मेरे बारे में क्या लिखा है । अतः हमें इतिहास से सीखना खोजना जानना अवश्य चाहिये । पर उसी को अक्षरसः सत्य नहीं मान लेना चाहिये । मैंने पहले भी कहा कि मेरे रहते और मेरे बाद भी स्वयं मेरे मंडल और मेरे ही बारे में ऐसी ऐसी बातें प्रचलित हो जायेंगी । जिनका सत्य से दूर दूर तक वास्ता न होगा । मैं कहता हूँ । यदि यह सब सत्य भी हो । तो भी इसको पढने सुनने से किसी को कुछ लाभ नहीं होने वाला । असली सत्य वही है । जो स्वयं आपके अनुभव में आया । और सबसे बढकर आपको उससे कुछ प्राप्ति हुयी । अन्यथा ये व्यर्थ की माथापच्ची और मनोरंजन से अधिक नहीं । अतः मनोरंजन की बजाय मनोमंजन करें ।अगर आपने थोङा भी बुद्धि का इस्तेमाल किया होता । तो दरअसल ये कोई प्रश्न ही नहीं था । इसका उत्तर दृश्य जगत में ही स्पष्ट है । जैसा कि मैंने कई बार जिक्र किया । परमात्मा की सबसे प्रमुख शक्ति ऊर्जा का रूपांतरित रूप संसार में बिजली है । क्या आज तक बिजली को किसी ने देखा है ? हाँ उसकी शक्ति और आवेश निरंतर अनुभव में आता है । लेकिन जब यह बिजली बल्ब आदि किसी यन्त्र से जुङती है । तो किसी हद तक इसका प्रकट रूप देखा जा सकता है । ठीक यही बात योग में कही जा सकती है कि योगी को उसकी शक्ति आवेश और अंतर रूप प्रकाश नजर आता है । और शरीर में महसूस होता है ।
निराकार से अर्थ इसके इन्द्रियजनित या स्थूल भौतिक आदि आकार से विरोध है । वह ऐसा नहीं है । बल्कि स्वयं प्रकाश है । अतः देखा जा सकता है । मैंने कहा । योग में जब ध्यान एकाग्रता होती है । तो शक्ति आवेश प्रकाश और दिव्य आसमानी ध्वनियां आदि स्पष्ट और साधक की उच्चता अनुसार देर तक और स्पष्ट नजर आते हैं । अतः आपके उपरोक्त शब्द नितांत अनजान व्यक्तियों के शुरूआत्ती पाठयकृम हेतु ही है । न कि अंतिम सत्य । अगर आपने इसके आगे भी पढा होता । तो स्पष्ट वर्णन है । उस निराकार कालातीत इन्द्रियातीत परम को कैसे देखा जाना हुआ जा सकता है । बिजली के बाद सामान्य तत्व हवा आकाश अग्नि को कभी आपने देखा है ? जिसको आप आकाश कहते हैं । वह क्या है ? बङी बारीकी से इस पर गौर करें । जबकि आप आकाश का निरंतर प्रयोग व्यवहार और मान्यता देते हैं । आप कहते हैं । आपको आकाश दिख रहा है । आकाश में बादल है । आकाश साफ़ है आदि आदि । ये आकाश क्या है ? आपको कैसे और क्या दिखता है । मैंने कहा - गहराई से सोचना ?
प्रणाम गुरुदेव
१ यदि अ-मन की अवस्था आ जाये । तो क्या प्रकृति के नियम उस मनुष्य पर काम नहीं करते । वह इस संसार से स्वतंत्र हो जाता है ? क्या यही शून्य अवस्था है ? क्या शून्य अवस्था में मन के साथ-२ बुद्धि का भी लोप हो जाता है ? इस शून्य अवस्था में क्या -२ बचता है ? और मनुष्य इस शून्य अवस्था से आगे किसके आलम्बन के सहारे बढ़ता है ? उत्तर - अध्यात्म इतना सूक्ष्म और गहन विषय है कि यदि मैं इस प्रश्न का विस्त्रत और पूर्ण उत्तर दे दूँ । तो इस मार्ग के साधकों को इसी उत्तर का शोध करने और फ़िर प्रयोगात्मक रूप से जानने में एक या कई जीवन लग सकते हैं । लग जाते हैं । फ़िर भी मुझे पता है । ये प्रश्न मोटे तौर पर और आंशिक भाव ही लिये है ।
इसको एक सजीव उदाहरण से समझिये । कभी कोई डाक्टर या किडनैपर अपने पेशेंट को बेहोशी का इंजेक्शन लगा देता है । और फ़िर इच्छानुसार क्रिया करता है । तब वह मनुष्य अ-मन ही तो होता है । तो प्रकृति कौन सा कार्य नहीं कर रही होती । वह व्यक्ति चीखता चिल्लाता हाथ पैर फ़टकार कर प्रतिरोध भी करता है । पर मन निष्क्रिय होने से यानी शरीर पर उसका नियन्त्रण न होने से ये प्रतिरोध क्षीण और अप्रभावी होता है । परा अपरा दो प्रकृतियां हैं । जिन्हें सरल भाषा में सूक्ष्म और स्थूल कह सकते हैं । जब आप सोते हैं । तब भी लगभग अ-मन ही होते हैं । मगर आपके शरीर को छोङकर पूरी सृष्टि का कार्य बेहद समुचित तरीके से चल रहा होता है । यहाँ तक कि आपके सोते शरीर में भी रक्त प्रवाह प्राण बहना पाचन क्रिया आदि तमाम क्रियायें होती रहती हैं । प्रकृति परमात्मा से प्रकट है । अतः योगियों या साधकों के लिये ( आपके भावनुसार ) प्रकृति के नियम अनुकूल हो जाते हैं । सिर्फ़ परमात्मा और उससे साक्षात्कार हुये योगी पर प्रकृति के नियम कार्य नहीं करते । लेकिन ध्यान रहे । स्वयं परमात्मा या ऐसा योगी प्रकृति से भी परे है । उसकी इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं होती ।
अ-मन की अनेकानेक अवस्थायें स्थितियां हैं । अतः सिर्फ़ परमात्म साक्षात्कार वाले अ-मन को छोङकर वह संसार से मुक्त नहीं होता । हाँ एक लम्बे समय तक दिव्यादि लोकों की प्राप्ति हो जाने को इस मृत्युलोक संसार से स्वतन्त्र हो जाना माना जाय । तो वह हो जाता है । पर ध्यान रहे । वह भी संसार ही है । दीर्घ जीवन और ऐश्वर्यपूर्ण संसार ।
अ-मन होने से शून्य अवस्था आती अवश्य है । पर वह मुक्त रूप से अलग है । मन बुद्धि का लोप नहीं होता । बल्कि इसकी क्षमता और स्तर उच्च हो जाता है । शून्य अवस्था में क्या क्या बचता है । दरअसल आप शून्य अवस्था के बारे में सही तरह से नहीं जानते । सब कुछ बचता है । जो उस शून्य अवस्था को प्राप्त व्यक्ति के पास शेष रहा हो । बुद्ध को शून्य अवस्था हुयी थी । उनके कथनों से आप थोङा तो समझ ही सकते हैं । शून्य अवस्था कोई एक नहीं । कई हैं । अतः इसके बारे में मोटे अन्दाज में नहीं कहा जा सकता । जब तक यह स्पष्ट न हो । आप कहाँ और क्या कह रहे हैं ?
किसी भी योग में मनुष्य सर्वप्रथम गुरुशक्ति तदुपरांत अंतर प्रकाश अंतरध्वनि के सहारे उस स्थिति तक स्वयं द्वारा प्राप्त की हुयी ऊर्जा भक्ति अधिकार ( हक ) और कृपा के द्वारा ही आगे बङता है । यह बात बिलकुल प्रारम्भ से लेकर भक्ति यात्रा के अन्त तक लागू होती है ।
२ आप कहते है कि सम्पूर्ण सृष्टि के जीव एक प्राण से जुड़े हुये है । क्या इसका मतलब यह भी है कि जैसे कोई मनुष्य किसी विशेष देवता की साधना करके उसे साध लेता है । ऐसे ही कोई अन्य मनुष्य भी उसी देवता को साध लेता । तो क्या दोनों के लिये वो देवता अलग-२ होंगे ? जैसे रामकृष्ण परमहंस काली के साधक थे ।
उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर समझना कुछ अधिक कठिन भी नहीं । बल्कि आज के तकनीकी समय में यह प्रश्न ही हंसने योग्य है । जैसे एक मुख्य सर्वर और फ़िर बङे सर्वर और फ़िर अन्य सर्वरों के साथ विश्व के करोङों कम्प्यूटर जुङकर इंटरनेट सेवायें दे रहे हैं । जैसे एक ही बेवपेज को उसकी क्षमता और सर्वर आदि के अनुसार हजारों व्यक्ति एक ही समय पर अलग अलग प्रकार से जानकारी प्राप्त करने और प्रेषित करने में प्रयोग करते हैं । जैसे किसी पूछताछ आदि नम्बर पर जिसमें पहले से ही निर्धारित रिकार्डिड उत्तर होते हैं । उस नम्बर से जोङी गयी क्षमताओं के अनुसार हजारों या लाखों व्यक्ति लाभान्वित होते हैं । जैसे केबल टीवी का एक ही मालिक एक समय में लाखों उपभोक्ताओं को सेवायें दे सकता है । जैसे एक साधारण कम्प्यूटर ही अपनी क्षमता अनुसार एक ही समय में एक से और अलग अलग प्रकार के भी अनेकों कार्य कर सकता है । अगर आप गौर करें । तो ये सब किसी एक ही मुख्य तन्त्र से जुङे उस तन्त्र द्वारा नीचे तक संचालित हो रहे हैं । ठीक उसी प्रकार परमात्मा द्वारा सृजित प्रमुख अन्तःकरण ( गुरु ) से अनेकानेक अन्तःकरण कृमशः स्तर, पद और उपाधियों द्वारा जुङे हुये हैं । जैसे कोई विद्युतवाही तार ही विभिन्न परिपथों द्वारा किसी यन्त्र सयन्त्र को कार्य क्षमता देता है । ऐसे ही समस्त जीव और सृष्टि एक ही चेतना से एक विशाल अति विराट कल्पनातीत अन्दाज में जुङी हुये हैं । अब आपके प्रश्न भाव के अनुसार वह देवता जितनी क्षमता वाला होगा । एक ही समय में उसके अधिकाधिक उतने ही साधक जुङ सकते हैं । अतः वो देवता उनके लिये एक ही होगा । क्योंकि आप यहाँ देवता को सामान्य मनुष्य की तरह देख रहे हैं । जबकि सिद्ध पुरुष और देवता भगवानों आदि द्वारा एक ही समय में कई कई शरीरों से अनेक लोगों से मिलने के कई वर्णन हैं ।
३ सभी धर्म के मनुष्यों का अन्तर मन अलग-२ होता है । तो सभी के मृत्यु के बाद के अनुभव भी अलग-२ होते होंगे । जैसे भारत मे हिंदू धर्म के लोगों को यमराज के दूत ले जाते है । परन्तु क़्या ऐसा अनुभव किसी वैस्टर्न कल्चर या यूरोपियन लोगों को होता होगा ?
उत्तर - आपसे किसने कहा - अन्तर मन अलग-२ होता है ? सिर्फ़ देश काल जाति धर्म समाज आदि के अनुसार संस्कार पहनावा संस्कृत और भाषा अवश्य अलग हो जाती है । इसके बाबजूद आप किसी अंग्रेज, रसियन, चीनी, फ़्रांसीसी को जोर से डन्डा मार के देखना । शुद्ध हिन्दी में हाय या आह ही निकलेगी । हंसेगा तो हा हा ही ही निकलेगा । रोयेगा तो शुद्ध हिन्दी में ऊं आं ऊं ही निकलेगा । इस तरह सभी मूल क्रियायें मूल ध्वनियां एक ही होगीं । अतः कुछ बाह्य चीजें अलग होती हैं । बाकी अन्तरमन या आंतरिक ढांचा आदि मूलतः समान ही होता है ।
४ गुरुदेव जैसे हमारा सूक्ष्म शरीर काफी पुरातन है । हमारे कई जन्म हो चुके हैं । क्या ऐसे भी जीव या मनुष्य है । जिनका जन्म पहला ही जन्म हो । वो कौन से जीव होंगे । क्या ऎसे भी मनुष्य हैं । जिनका पहला ही जन्म हो । अगर हैं । तो उनका व्यक्तित्व कैसा होता होगा ? अगर नहीं होते । तो ये जनसंख्या कैसे बढ़ रही है ।
उत्तर - इसका उत्तर भी वर्तमान तकनीक में है । जैसे कम्प्यूटर ( जीव ) के चलन ( आदि सृष्टि ) के समय से कोई एक हार्ड डिस्क ( अंतःकरण ) में एक से एक बढकर अच्छे प्रोग्राम ( एप्लीकेशन ) और एक से एक बढकर घटिया प्रोग्राम ( जीव के विभिन्न संस्कार और कर्म ) क्रियान्वित ( जीवन ) किये जाते रहे हों । यहाँ ध्यान रहे । साधारण जीव अवस्था में कम्प्यूटर ( जीव ) और हार्ड डिस्क ( अन्तःकरण ) ज्ञान या मोक्ष न होने तक अनन्तकाल तक चलते ही रहेंगे । जीव तो निर्लेप और अविनाशी है ही । लेकिन यह अन्तःकरण भी कभी नष्ट या खराब नहीं होता । सिर्फ़ इस पर कर्म, संस्कार का लिखना मिटना निरंतर होता रहता है । और इस पर लिखे कारण संस्कार से ही जीव जन्म मरण मैं तू सृष्टि आदि का बोध मायावश करता है । ज्ञानयोग में यही अन्तःकरण जब फ़ुल फ़ार्मेट ( निर्बीज समाधि से कारण और संस्कार जलना - जबहि नाम ह्रदय धरा अंतर हुआ प्रकाश । जैसे चिनगी आग की परी पुरानी घास ) होता है । उसे आपके भाव अनुसार फ़िर से पहला एकदम नया जन्म कह सकते हैं । और अब आप अन्दाजा लगा सकते हैं । वह कैसा और उसका व्यक्तित्व कैसा होता होगा । वास्तविक स्थित में तो जीव भी अजन्मा ही है । और इसका मरण भी नहीं होता । जन्म मरण बंधन मोक्ष और कल्पित सृष्टि सिर्फ़ मन के धर्म हैं । मन की मायिक रचना है । जो निसंदेह स्वपन चित्र से अधिक सत्य नहीं है । जनसंख्या बढने की बात ये है कि आप अपनी सीमित बुद्धि से इसका अन्दाजा नहीं लगा सकते । सागर ( परमात्मा ) के पानी से कितनी बूंदें ( जीव ) बन सकती हैं । और इसके बाद घूम फ़िर कर कितनी वापिस सागर में आ जाती हैं । और कितनी नई बनती बिगङती रहती हैं । ये मनुष्य बुद्धि से कभी नहीं जाना जा सकता ।
५ जब मनुष्य ऐसी अवस्था प्राप्त करता है । जिस पर प्रकृति का नियंत्रण नहीं रहता । वह कोई भी कार्य करने के लिये स्वतन्त्र है । यदि ऐसी अवस्था में वह कोई ऐसा कार्य कर दे । जो प्रकृति ने डिसाइड ना कर रखा हो । तो क्या प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा ?
उत्तर - सती कभी शाप देती नहीं । और वैश्या का शाप फ़लीभूत नहीं होता । अतः निश्चिन्त रहने की बात है । वास्तव में जङ प्रकृति हर स्थिति में मनुष्य के नियन्त्रण में ही है । लेकिन अज्ञान और मायायुक्त स्थिति में द्विपक्ष या प्रकृति को कहीं अलग अनुभव करता है । जैसे एक बच्चा ( जीव ) कोरे कागज ( अन्तःकरण ) पर एक सुन्दर चित्र ( मन अनुकूल ) बना सकता है । और भद्दा या डरावना ( मन प्रतिकूल ) भी बना सकता है । लेकिन इससे कागज या चित्र ( प्रकृति ) या रंग ( गुण ) आदि पर कोई असर नहीं पङता । और वह सुन्दर या भद्दा प्रिय अप्रिय भी मन को ही लग रहा है । और भी वास्तव में वहाँ सिर्फ़ मन के रंग ही बिखरे हैं । चाहे उन्हें अच्छा बुरा कैसा भी कह लो । प्रकृति ने क्या डिसाइड कर रखा है ? और उसका सन्तुलन कैसे बिगङ जायेगा । अभी मैं इसका मतलब ठीक से समझा नहीं ।
मुकेश शर्मा, अलवर ( राजस्थान ) ( ई मेल )
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