महाराज जी प्रणाम ! प्रश्न 1 - कालपुरुष की भी आयु है । तो जब अगली बार लाखों साल बाद जब कोई नया व्यक्ति कालपुरुष के पद पर आएगा । तो क्या उसका स्वभाव बदला हुआ नहीं होगा ? ताकि वो जीवों को भरमाना छोड़ दे ।
- काल काल सब कोई कहे । काल न जाने कोय । जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय । काल पुरुष यानी समय पुरुष यानी मन यानी खुदा । जैसा कि मैंने एक उत्तर में बताया । एक मूल आत्मा को छोङकर शेष सभी स्थितियां उपाधियां महज अंतःकरण यानी सूक्ष्म शरीर ही हैं । ये खेल बनने के बाद विभिन्न जीवात्मा विभिन्न योग भक्तियों द्वारा अनेकानेक विभिन्न स्थितियों को प्राप्त होते रहे हैं । और जब तक वे मूल आत्मा नहीं हो जाते । जिसका कोई स्वभाव ही नहीं है । तब तक उस उपाधि को प्राप्त हुये पुरुष जीव का निज स्वभाव क्रियाशील रहता है । लेकिन कालपुरुष की क्रूरता या छलभेद आदि उसके निज स्वभाव की न होकर सृष्टि नियम के अंतर्गत है । वह जीवों को सिर्फ़ सताता ही नहीं है । उनके कर्म अनुसार स्वर्गिक भोग आराम सुख आदि भी देता है । यदि कोई पुलिस वाला या जेलर जघन्य अपराधियों के प्रति दयालु हो जाये । तो सामान्य और सज्जन लोगों का जीना कठिन हो जायेगा । इसलिये काल के सभी कार्य नियम अंतर्गत है । अकारण वह किसी को एक तिनका बराबर कष्ट नहीं दे सकता ।
प्रश्न 2 - अगर सूक्ष्म शरीर से सूर्य पर जायें । तो क्या स्थूल शरीर को गर्मी लगेगी । या जल जायेगा ?
- यहाँ ध्यान रखने योग्य बात ये है कि सभी साधनायें यदि वैधानिक तरीके से की जायें । तो वह उसके अधिकारी वर्तमान सशरीर गुरु द्वारा ही संभव हैं । और यदि साधक ऐसे विधिवत साधना करता है । तो वह नियम कानून के अंतर्गत साधना कर रहा है । अतः ऐसी कोई समस्या नहीं होती । दूसरी साधना की खास बात यह होती है कि - आप जिस भी स्थान पर यात्रा करते हैं । वहाँ के नियम कानून और पर्यावरण आदि के हिसाब से आपको वही तन्त्र ( सूक्ष्म शरीर आदि ) उपलब्ध हो जाता है । अतः स्थूल शरीर को कोई नुकसान नहीं होता । हाँ कोई कोई अधकचरे मनमुख या हठयोगी अवश्य ऐसी स्थिति का शिकार हो जाते हैं । इसके प्रसिद्ध उदाहरण में गीधराज जटायु का भाई संपाति ( जिसने हनुमान और वानर सेना को लंका और सीता का पता बताया था ) ऐसी ही स्थिति का शिकार हुआ था । अतः साधक जलता नहीं है । तमाम सूर्य साधनायें हैं । जिनमें स्वयं सूर्य ही पास में प्रकट हो जाता है । तब भी कोई नहीं जलता । ये स्थिति सिर्फ़ बाह्य जगत या अनियम पर लागू होती है ।
प्रश्न 3 - चन्द्रलोक, सूर्यलोक क्रमश चन्द्रमा सूर्य पर है क्या ?
- ये सभी विभिन्न लोक एक तरह से सृष्टि का प्रशासन है । जो अपना अपना निर्धारित कार्य करते हैं । वैसे यहाँ दिव्य अंतकरण और विभिन्न दिव्य स्थितियों को प्राप्त हुयी जीवात्मायें हैं । और सब कुछ थोङे परिवर्तन के साथ अलग अलग लोकों में वैसा ही है । जैसा आप स्वर्ग या फ़िर इसी प्रथ्वी पर सुनते देखते हैं । सूर्य पुत्र कर्ण मृत्युपरांत वापस सूर्यलोक ही चला गया था ।
प्रश्न 4 - जीवों को चेताने का क्या लाभ है ?
- द्वैत या अद्वैत के सत्य ज्ञान की बात हो । या सिर्फ़ जीवों को शुद्ध आचरण की तरफ़ प्रेरित उन्मुख करना हो । या सिर्फ़ भलाई की तरफ़ प्रेरित करना हो । आप अच्छी तरह जानते हैं । ये सभी अपने बदलाव के स्तर पर उसी % में सुख का कारण बनते हैं । और दूसरे को सुखी करना स्वयं भी सुखी होने का कारण है । उपाय है । जीवन की भाषा में इससे पुण्य का निर्माण होता है । यदि आपने किसी जीव को द्वैत के लिये चेता दिया । और उसे स्वर्ग या कोई देव पद प्राप्त हुआ । तो इसका पुण्यफ़ल आपको भी नियमानुसार निर्धारित उसी % में मिलेगा । जितना उसकी प्राप्ति में आपका योगदान और भूमिका थी । वैसे केवल यहीं किसी का जीवन स्तर ऊँचा उठाने और उसे सुखी करने का फ़ल भी है । उसका भी अच्छा पुण्य है । लेकिन सोचिये । आप किसी जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित कर उन्मुख कर हमेशा के लिये आवागमन से मुक्त और दुःखरहित आनन्द पूर्ण जीवन की ओर ले जाने का कारण बनते हैं । तो उसका पुण्यफ़ल कितना होगा ? कल्पना से बाहर । और जब तक वह जीव भजन भक्ति आदि से प्रकाशित होता रहेगा । आपका भाग उसमें स्वयं बनता रहेगा । एक निश्चित समय तक । जिस तरह देवताओं को यज्ञादि में भाग मिलता है । आप अच्छी तरह जानते हैं । संसार की बङी से बङी संपदा से पारलौकिक कुछ नहीं खरीदा जा सकता । अतः परलोक जहाँ यहीं सतकर्म और भक्ति आदि धन काम आता है । वहाँ ऐसी विपत्ति में जो सहायक बने । उसका पुण्य बहुत होगा । धन दो ही है । एक नाशवान भौतिक धन । इसका क्षय हो जाता है । दूसरा अविनाशी अक्षय धन । जिसका क्षय नहीं होता । और जो अशरीर होने पर काम आता है । जिससे नर्क और 84 आदि दूसरे कष्टों का निवारण भी हो जाता है ।
प्रश्न 5 - यमदूत कैसे पहचानते हैं । मरने वालों को ? और क्या उनसे भागकर बचा नहीं जा सकता ?
- ये अखिल सृष्टि वास्तव में एक ही प्राण से आन्दोलित है । जीवन्त है । यानी इसी एक चेतना की डोरी में सभी जीवन गुंथे हुये हैं । फ़िर इनके अति विशाल समूह से बने हुये हैं । और उन समूहों को विभिन्न स्तरों पर नियन्त्रित पोषित करने वाले अधिकारी भी नियुक्त हैं । अतः हर जीव का एक ( उस जीवन का ) अलग कोड भी है । और फ़िर अंतःकरण से काफ़ी पहले से करीब एक महीने पहले से किसी जीव के मरने का पता होता है । पता तो वैसे उसके पैदा होते समय ही होता है । पर उन्हें खास तभी मतलब होता है । जब उसका नम्बर आने वाला हो । तो जैसे अपने मोबायल फ़ोन या अन्य प्रकारों में मशीनरी प्रशासनिक तन्त्र उपभोक्ता आदि को जान लेता है । यमदूत भी जान लेते हैं । भाग इसलिये नहीं सकते । क्योंकि शरीर ही उससे पहले छूटने लगता है । छूट जाता है । वैसे भी वह हर तरह से मरने वाले जीवात्मा की तुलना में शक्तिशाली और गति वाले होते हैं । अतः नहीं भाग सकते ।
प्रश्न 6 - क्या कालपुरुष को ही महाब्रह्मा, महाविष्णु, महाशंकर भी कहते है ?
- नहीं । कालपुरुष अलग है । और यह सब अलग हैं । इनको समझाना थोङा कठिन है । और उसका कुछ लाभ भी नहीं है ।
प्रश्न 7 - देवता और भगवान में क्या अंतर है ? देवता और भगवान कौन कौन हैं । उदाहरण देकर बताईये ।
- ये दोनों ही कामन, उपाधियों और गुणों को प्रदर्शित करने वाले शब्द हैं । मगर दोनों ही अलग अलग दिव्यता को प्राप्त हुयी स्थितियां हैं । और दोनों में कुछ चीजें संयुक्त भी हैं । इन्द्र वरुण आदि को देवता कह सकते हैं । भगवान नहीं । और शंकर विष्णु आदि को देवता और भगवान दोनों कहा जाता है । इसी स्तर के ऋषि महर्षि सन्तों आदि को भी भगवान कहा जाता है ।
प्रश्न 8 - जब तक किसी ने परमात्मा की अंतिम अवस्था को प्राप्त नहीं किया है । तो क्या तब तक ये माना जायेगा कि उसे आत्मज्ञान नहीं हुआ है ?
- अगर पूर्ण आत्मज्ञान की बात की जाये । तो यही सत्य है कि आदि सृष्टि से पूर्व जब आत्मा था । जैसा था । जैसा है । उसी को जानने को ही सही मायनों में आत्मज्ञान कहा जाता है । पर अब सिर्फ़ इसी को आत्मज्ञान नहीं कहते । बृह्मांड की चोटी से ऊपर महासुन्न घाटी मैदान को पार करके जब सचखंड की सीमा शुरू हो जाती है । यह काल से परे का क्षेत्र है । इसी सचखंड में पहुंचे हुये को भी आत्मा के ज्ञानी कहा जा सकता है । क्योंकि ये अमरता को प्राप्त हो जाता है । लेकिन यहाँ भी बहुत स्थितियां हैं ।
प्रश्न 9 - जैसे किसी शिष्य ने अपनी नाम कमाई से इसी जन्म में परमहंस तक की स्थिति को प्राप्त कर लिया है । तो क्या परमात्मा में लीन होने तक का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए फिर से मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा ? ( या ये प्रश्न ऐसे भी पूछ रहा हूँ ) कबीर के सभी लगभग 10 हजार शिष्यों में से 4 को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ था । फिर अंत तक का ज्ञान प्राप्त कैसे करें ?
- जैसा कि विभिन्न सन्त वाणियों में कहा गया । एकदम अन्त तक का ज्ञान लाखों करोङों में किसी बिरले को ही प्राप्त हो पाता है । इसके पीछे उस व्यक्ति के पूर्व तथा वर्तमान जन्मों के पुण्य संस्कार, ज्ञान के प्रति गहन जिज्ञासा तथा सबसे बढकर परम लक्ष्य की तरफ़ चलने में जो त्याग मेहनत लगन संघर्ष पीङा अपमान और सूली पर लटकने के समान ऊँच नीच अनुभव ( एक बार विभिन्न सन्तों के जीवन चरित में ऐसी घटनाओं को याद करें ) आदि होते हैं । और इसमें जिस कङी पात्रता से गुजरना होता है । यदि यह सब किसी संयोग से बन जायें । तो फ़िर कोई कारण नहीं कि अंतिम लक्ष्य प्राप्त न हो । इसको इस तरह कहा जाता है - गुरु शिष्य और ज्ञान । ये तीनों पूर्ण हों । तो परम लक्ष्य मिल जाता है । अब आपके प्रश्न भाव के अनुसार किसी कारणवश ऐसी स्थिति बने कि अच्छी नाम कमाई और परमहंस स्थिति के बाद अभी यात्रा के साथ उसकी प्यास और चाहत शेष है । तो निश्चय ही अगला जन्म मनुष्य का होगा । वास्तव में एक मोटे अन्दाज में कहा जाये । तो बुद्ध महावीर ओशो आदि इसी प्रकार के जन्म थे । खुद आपका जन्म इसी प्रकार का है । भले ही उसका स्तर अभी ( पूर्व ) 8% है । जबकि उपरोक्त का 30-40% तक था । कबीर शिष्य धर्मदास को 4 जन्म में ज्ञान हुआ था । वो भी सब त्याग कर यहाँ तक सुराही पंखा तक फ़ेंक दिया था । अन्त तक के ज्ञान के लिये जब तक अन्त हो न जाये । प्यास और समग्र पात्रता बना रहना आवश्यक है ।
प्रश्न 10 - क्या मोक्ष मिलने के बाद जीवात्मा का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है ?
- क्या कोई मेडीकल का छात्र पढकर जब डाक्टर रूप में नियुक्त हो जाता है । तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ? या किसी व्यक्ति का विवाह हो जाता है । तो उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन हो जाता है । जो अभी तक नहीं था । क्या कोई राजा से रंक हो जाता है । तो राजा रंक से रहित उसका मूल अस्तित्व खत्म हो जाता है । ये सब एक ही चेतन आत्मा के कर्मयोग और ज्ञानयोग द्वारा होने वाले असंख्य अंतःकरण रूपांतरण और स्थिति रूपांतरण हैं । जबकि उसके मूल में कोई बदलाव नहीं होता । बाह्य और अस्थायी जीवन रूप बदलते रहते हैं । आंतरिक या मूल या निज जिसे स्वरूप कहते हैं । वह ज्यों का त्यों रहता है । जैसे एक ही अभिनेता विभिन्न मेकअप में हजारों अच्छी बुरी भूमिकायें निभाने के बाद भी अपने मूल में एक ही पहचान का होता है । और वही असली है ।
- काल काल सब कोई कहे । काल न जाने कोय । जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय । काल पुरुष यानी समय पुरुष यानी मन यानी खुदा । जैसा कि मैंने एक उत्तर में बताया । एक मूल आत्मा को छोङकर शेष सभी स्थितियां उपाधियां महज अंतःकरण यानी सूक्ष्म शरीर ही हैं । ये खेल बनने के बाद विभिन्न जीवात्मा विभिन्न योग भक्तियों द्वारा अनेकानेक विभिन्न स्थितियों को प्राप्त होते रहे हैं । और जब तक वे मूल आत्मा नहीं हो जाते । जिसका कोई स्वभाव ही नहीं है । तब तक उस उपाधि को प्राप्त हुये पुरुष जीव का निज स्वभाव क्रियाशील रहता है । लेकिन कालपुरुष की क्रूरता या छलभेद आदि उसके निज स्वभाव की न होकर सृष्टि नियम के अंतर्गत है । वह जीवों को सिर्फ़ सताता ही नहीं है । उनके कर्म अनुसार स्वर्गिक भोग आराम सुख आदि भी देता है । यदि कोई पुलिस वाला या जेलर जघन्य अपराधियों के प्रति दयालु हो जाये । तो सामान्य और सज्जन लोगों का जीना कठिन हो जायेगा । इसलिये काल के सभी कार्य नियम अंतर्गत है । अकारण वह किसी को एक तिनका बराबर कष्ट नहीं दे सकता ।
प्रश्न 2 - अगर सूक्ष्म शरीर से सूर्य पर जायें । तो क्या स्थूल शरीर को गर्मी लगेगी । या जल जायेगा ?
- यहाँ ध्यान रखने योग्य बात ये है कि सभी साधनायें यदि वैधानिक तरीके से की जायें । तो वह उसके अधिकारी वर्तमान सशरीर गुरु द्वारा ही संभव हैं । और यदि साधक ऐसे विधिवत साधना करता है । तो वह नियम कानून के अंतर्गत साधना कर रहा है । अतः ऐसी कोई समस्या नहीं होती । दूसरी साधना की खास बात यह होती है कि - आप जिस भी स्थान पर यात्रा करते हैं । वहाँ के नियम कानून और पर्यावरण आदि के हिसाब से आपको वही तन्त्र ( सूक्ष्म शरीर आदि ) उपलब्ध हो जाता है । अतः स्थूल शरीर को कोई नुकसान नहीं होता । हाँ कोई कोई अधकचरे मनमुख या हठयोगी अवश्य ऐसी स्थिति का शिकार हो जाते हैं । इसके प्रसिद्ध उदाहरण में गीधराज जटायु का भाई संपाति ( जिसने हनुमान और वानर सेना को लंका और सीता का पता बताया था ) ऐसी ही स्थिति का शिकार हुआ था । अतः साधक जलता नहीं है । तमाम सूर्य साधनायें हैं । जिनमें स्वयं सूर्य ही पास में प्रकट हो जाता है । तब भी कोई नहीं जलता । ये स्थिति सिर्फ़ बाह्य जगत या अनियम पर लागू होती है ।
प्रश्न 3 - चन्द्रलोक, सूर्यलोक क्रमश चन्द्रमा सूर्य पर है क्या ?
- ये सभी विभिन्न लोक एक तरह से सृष्टि का प्रशासन है । जो अपना अपना निर्धारित कार्य करते हैं । वैसे यहाँ दिव्य अंतकरण और विभिन्न दिव्य स्थितियों को प्राप्त हुयी जीवात्मायें हैं । और सब कुछ थोङे परिवर्तन के साथ अलग अलग लोकों में वैसा ही है । जैसा आप स्वर्ग या फ़िर इसी प्रथ्वी पर सुनते देखते हैं । सूर्य पुत्र कर्ण मृत्युपरांत वापस सूर्यलोक ही चला गया था ।
प्रश्न 4 - जीवों को चेताने का क्या लाभ है ?
- द्वैत या अद्वैत के सत्य ज्ञान की बात हो । या सिर्फ़ जीवों को शुद्ध आचरण की तरफ़ प्रेरित उन्मुख करना हो । या सिर्फ़ भलाई की तरफ़ प्रेरित करना हो । आप अच्छी तरह जानते हैं । ये सभी अपने बदलाव के स्तर पर उसी % में सुख का कारण बनते हैं । और दूसरे को सुखी करना स्वयं भी सुखी होने का कारण है । उपाय है । जीवन की भाषा में इससे पुण्य का निर्माण होता है । यदि आपने किसी जीव को द्वैत के लिये चेता दिया । और उसे स्वर्ग या कोई देव पद प्राप्त हुआ । तो इसका पुण्यफ़ल आपको भी नियमानुसार निर्धारित उसी % में मिलेगा । जितना उसकी प्राप्ति में आपका योगदान और भूमिका थी । वैसे केवल यहीं किसी का जीवन स्तर ऊँचा उठाने और उसे सुखी करने का फ़ल भी है । उसका भी अच्छा पुण्य है । लेकिन सोचिये । आप किसी जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित कर उन्मुख कर हमेशा के लिये आवागमन से मुक्त और दुःखरहित आनन्द पूर्ण जीवन की ओर ले जाने का कारण बनते हैं । तो उसका पुण्यफ़ल कितना होगा ? कल्पना से बाहर । और जब तक वह जीव भजन भक्ति आदि से प्रकाशित होता रहेगा । आपका भाग उसमें स्वयं बनता रहेगा । एक निश्चित समय तक । जिस तरह देवताओं को यज्ञादि में भाग मिलता है । आप अच्छी तरह जानते हैं । संसार की बङी से बङी संपदा से पारलौकिक कुछ नहीं खरीदा जा सकता । अतः परलोक जहाँ यहीं सतकर्म और भक्ति आदि धन काम आता है । वहाँ ऐसी विपत्ति में जो सहायक बने । उसका पुण्य बहुत होगा । धन दो ही है । एक नाशवान भौतिक धन । इसका क्षय हो जाता है । दूसरा अविनाशी अक्षय धन । जिसका क्षय नहीं होता । और जो अशरीर होने पर काम आता है । जिससे नर्क और 84 आदि दूसरे कष्टों का निवारण भी हो जाता है ।
प्रश्न 5 - यमदूत कैसे पहचानते हैं । मरने वालों को ? और क्या उनसे भागकर बचा नहीं जा सकता ?
- ये अखिल सृष्टि वास्तव में एक ही प्राण से आन्दोलित है । जीवन्त है । यानी इसी एक चेतना की डोरी में सभी जीवन गुंथे हुये हैं । फ़िर इनके अति विशाल समूह से बने हुये हैं । और उन समूहों को विभिन्न स्तरों पर नियन्त्रित पोषित करने वाले अधिकारी भी नियुक्त हैं । अतः हर जीव का एक ( उस जीवन का ) अलग कोड भी है । और फ़िर अंतःकरण से काफ़ी पहले से करीब एक महीने पहले से किसी जीव के मरने का पता होता है । पता तो वैसे उसके पैदा होते समय ही होता है । पर उन्हें खास तभी मतलब होता है । जब उसका नम्बर आने वाला हो । तो जैसे अपने मोबायल फ़ोन या अन्य प्रकारों में मशीनरी प्रशासनिक तन्त्र उपभोक्ता आदि को जान लेता है । यमदूत भी जान लेते हैं । भाग इसलिये नहीं सकते । क्योंकि शरीर ही उससे पहले छूटने लगता है । छूट जाता है । वैसे भी वह हर तरह से मरने वाले जीवात्मा की तुलना में शक्तिशाली और गति वाले होते हैं । अतः नहीं भाग सकते ।
प्रश्न 6 - क्या कालपुरुष को ही महाब्रह्मा, महाविष्णु, महाशंकर भी कहते है ?
- नहीं । कालपुरुष अलग है । और यह सब अलग हैं । इनको समझाना थोङा कठिन है । और उसका कुछ लाभ भी नहीं है ।
प्रश्न 7 - देवता और भगवान में क्या अंतर है ? देवता और भगवान कौन कौन हैं । उदाहरण देकर बताईये ।
- ये दोनों ही कामन, उपाधियों और गुणों को प्रदर्शित करने वाले शब्द हैं । मगर दोनों ही अलग अलग दिव्यता को प्राप्त हुयी स्थितियां हैं । और दोनों में कुछ चीजें संयुक्त भी हैं । इन्द्र वरुण आदि को देवता कह सकते हैं । भगवान नहीं । और शंकर विष्णु आदि को देवता और भगवान दोनों कहा जाता है । इसी स्तर के ऋषि महर्षि सन्तों आदि को भी भगवान कहा जाता है ।
प्रश्न 8 - जब तक किसी ने परमात्मा की अंतिम अवस्था को प्राप्त नहीं किया है । तो क्या तब तक ये माना जायेगा कि उसे आत्मज्ञान नहीं हुआ है ?
- अगर पूर्ण आत्मज्ञान की बात की जाये । तो यही सत्य है कि आदि सृष्टि से पूर्व जब आत्मा था । जैसा था । जैसा है । उसी को जानने को ही सही मायनों में आत्मज्ञान कहा जाता है । पर अब सिर्फ़ इसी को आत्मज्ञान नहीं कहते । बृह्मांड की चोटी से ऊपर महासुन्न घाटी मैदान को पार करके जब सचखंड की सीमा शुरू हो जाती है । यह काल से परे का क्षेत्र है । इसी सचखंड में पहुंचे हुये को भी आत्मा के ज्ञानी कहा जा सकता है । क्योंकि ये अमरता को प्राप्त हो जाता है । लेकिन यहाँ भी बहुत स्थितियां हैं ।
प्रश्न 9 - जैसे किसी शिष्य ने अपनी नाम कमाई से इसी जन्म में परमहंस तक की स्थिति को प्राप्त कर लिया है । तो क्या परमात्मा में लीन होने तक का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए फिर से मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा ? ( या ये प्रश्न ऐसे भी पूछ रहा हूँ ) कबीर के सभी लगभग 10 हजार शिष्यों में से 4 को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ था । फिर अंत तक का ज्ञान प्राप्त कैसे करें ?
- जैसा कि विभिन्न सन्त वाणियों में कहा गया । एकदम अन्त तक का ज्ञान लाखों करोङों में किसी बिरले को ही प्राप्त हो पाता है । इसके पीछे उस व्यक्ति के पूर्व तथा वर्तमान जन्मों के पुण्य संस्कार, ज्ञान के प्रति गहन जिज्ञासा तथा सबसे बढकर परम लक्ष्य की तरफ़ चलने में जो त्याग मेहनत लगन संघर्ष पीङा अपमान और सूली पर लटकने के समान ऊँच नीच अनुभव ( एक बार विभिन्न सन्तों के जीवन चरित में ऐसी घटनाओं को याद करें ) आदि होते हैं । और इसमें जिस कङी पात्रता से गुजरना होता है । यदि यह सब किसी संयोग से बन जायें । तो फ़िर कोई कारण नहीं कि अंतिम लक्ष्य प्राप्त न हो । इसको इस तरह कहा जाता है - गुरु शिष्य और ज्ञान । ये तीनों पूर्ण हों । तो परम लक्ष्य मिल जाता है । अब आपके प्रश्न भाव के अनुसार किसी कारणवश ऐसी स्थिति बने कि अच्छी नाम कमाई और परमहंस स्थिति के बाद अभी यात्रा के साथ उसकी प्यास और चाहत शेष है । तो निश्चय ही अगला जन्म मनुष्य का होगा । वास्तव में एक मोटे अन्दाज में कहा जाये । तो बुद्ध महावीर ओशो आदि इसी प्रकार के जन्म थे । खुद आपका जन्म इसी प्रकार का है । भले ही उसका स्तर अभी ( पूर्व ) 8% है । जबकि उपरोक्त का 30-40% तक था । कबीर शिष्य धर्मदास को 4 जन्म में ज्ञान हुआ था । वो भी सब त्याग कर यहाँ तक सुराही पंखा तक फ़ेंक दिया था । अन्त तक के ज्ञान के लिये जब तक अन्त हो न जाये । प्यास और समग्र पात्रता बना रहना आवश्यक है ।
प्रश्न 10 - क्या मोक्ष मिलने के बाद जीवात्मा का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है ?
- क्या कोई मेडीकल का छात्र पढकर जब डाक्टर रूप में नियुक्त हो जाता है । तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ? या किसी व्यक्ति का विवाह हो जाता है । तो उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन हो जाता है । जो अभी तक नहीं था । क्या कोई राजा से रंक हो जाता है । तो राजा रंक से रहित उसका मूल अस्तित्व खत्म हो जाता है । ये सब एक ही चेतन आत्मा के कर्मयोग और ज्ञानयोग द्वारा होने वाले असंख्य अंतःकरण रूपांतरण और स्थिति रूपांतरण हैं । जबकि उसके मूल में कोई बदलाव नहीं होता । बाह्य और अस्थायी जीवन रूप बदलते रहते हैं । आंतरिक या मूल या निज जिसे स्वरूप कहते हैं । वह ज्यों का त्यों रहता है । जैसे एक ही अभिनेता विभिन्न मेकअप में हजारों अच्छी बुरी भूमिकायें निभाने के बाद भी अपने मूल में एक ही पहचान का होता है । और वही असली है ।
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