03 मार्च 2014

सुरति का अर्थ याद करना नहीं है

दादू साधै सुरति को - और तब परमात्मा की स्मृति सध जाती है । पहले तो दर्द । फिर तार का जुड़ना । फिर सुरति का सध जाना । सुरति का अर्थ होता है - स्मृति । सुरति का अर्थ होता है - उसकी याद ।
जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को याद करती है । ऐसी जब तुम्हारी याद हो जाती है । सब भूल जाता है । वही याद रहता है । तब इस सुरति में ही तो तार जुड़ जाता है । तुम रहते यहां हो । यहां के नहीं रह जाते । होते बाजार में हो । बाजार में नहीं होते । खिंचते रहते हो मंदिर की तरफ । बात करते हो किसी से । संवाद " उसी ' से होता रहता है । सोते हो यहां । लेकिन कहीं और जागे रहते हो । भोजन करते हो । काम करते हो । जीवन की सब व्यवस्था जुटाते रहते हो । लेकिन भीतर 1 धुन बजती रहती है - अहर्निश उसके मिलन की । सुरति का अर्थ है - जिसकी याद तुम्हारी स्वांस स्वांस बन जाए । सुरति का अर्थ है - जिसकी याद न करनी पड़े । जिसकी याद होती रहे । इस फर्क को ठीक से समझ लेना । सुरति का अर्थ याद करना नहीं है । सुरति का अर्थ है - याद में रम जाना । 1 फकीर औरत हुई - राबिया । उससे किसी दूसरे फकीर हसन ने पूछा कि - राबिया, तू कितना समय परमात्मा की याद में बिताती है ? उसने कहा - हसन, तू भी पागल है । परमात्मा की याद में कितना समय ? याद तो मैं उसकी करती ही नहीं । याद से तो उसकी मैं छूटना चाहती हूं । 24 घंटे । सोते जागते । स्वांस स्वांस में याद बनी है । जल रही हूं । याद से छूटना है । किसी तरह ।
और 1 ही उपाय है । याद से छूटने का कि आदमी उसमें डूब जाए । परमात्मा जब तक तुम न हो जाओ । तब तक फिर याद न छूटेगी ।
1 तो उपाय है कि संसार में खोए रहो । ताकि याद ही न आए । फिर बीच की जगह है । जहां याद आएगी । और तुम तड़फोगे । बेचैन होओगे । रोआं रोआं तुम्हारा दर्द से भर जाएगा । और फिर 1 तीसरी घड़ी है । जब तुम छलांग लेकर वापिस सागर उतर जाओगे । मछली अपने घर पहुंच गई । सागर ही हो गई । परमात्मा ही जब तक तुम न हो जाओ । तब तक सुरति को । तब तक सुरति का उपयोग है । फिर कोई याद की जरूरत नहीं है । फिर कौन किसकी याद करता ? फिर तुम वही हो गए । जिसकी याद करते थे । फिर याद करने वाला ही न बचा । फिर याद किया जाने वाला भी न बचा । फिर 1 ही बचा ।
देवै किनका दरद का टूटा जोड़ै तार । दादू साधै सुरति को सो गुरु पीर हमार ।
और जो हमारी ऐसी सुरति को सधा दे । वही हमारा गुरु है । वही हमारा पीर है । तो गुरु कौन है ? इसकी परिभाषा कर रहे हैं वे । जो तुम्हारी याद को जगा दे परमात्मा की तरफ । वही गुरु है । जो तुम्हें तड़फा दे । वही गुरु है । देवे दर्द - वही गुरु है । जो तुम्हारे मीठे सपनों को तोड़ दे । क्योंकि मीठे सपने बड़े जहरीले हैं । झूठे हैं । जितना समय गया उसमें । व्यर्थ ही गया । जितना जाएगा । वह भी व्यर्थ जाएगा । सपनों से चलते रहने से यात्रा नहीं होती । जो तुम्हें जगा दे । दर्द से भर दे । प्यास से भर दे । वही गुरु है । ओशो
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प्रेम  मृत्यु ही जीवन है - सुबह घूमकर लौटा था । नदी तट पर 1 छोटे से झरने से मिलना हुआ । राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह झरना नदी की ओर भाग रहा था । उसकी दौड़ देखी । और फिर नदी में उसका आनंद पूर्ण मिलन भी देखा । फिर देखा कि नदी भी भाग रही है ।
और फिर देखा कि सब कुछ भाग रहा है । सागर से मिलने के लिए । असीम में खोने के लिए । पूर्ण को पाने के लिए समस्त जीवन ही । राह के सूखे मृत पत्तों को हटाता हुआ । भागा जा रहा है । बूंद सागर होना चाहती है । यही सूत्र समस्त जीवन का ध्येय सूत्र है । उसके आधार पर ही सारी गति है । और उसकी पूर्णता में ही आनंद है । सीमा दुख है । अपूर्णता दुख है । जीवन सीमा के, अपूर्णता के समस्त अवरोधों के पार उठना चाहता है । उनके कारण उसे मृत्यु झेलनी पड़ती है । उसके अभाव में वह अमृत है । उनके कारण वह खण्ड है । उनके अभाव में वह अखण्ड हो जाता है । पर मनुष्य अहं की बूंद पर रुक जाता है । और वहीं वह जीवन के अनंत प्रवाह में खण्डित हो जाता है । इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर 1 क्षीणकाय दीये की लौ में तृप्ति को खोजने का निरर्थक प्रयास करता है । उसे तृप्ति नहीं मिल सकती है । क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती है ? सागर हुए बिना कोई राह नहीं है । सागर ही गंतव्य है । सागर होना ही होगा । बूंद को खोना जरूरी है । अहं को मिटाना जरूरी है । अहं ब्रह्मं बने । तभी संतृप्ति संभव है । सागर होने की संतृप्ति ही सत्य में प्रतिष्ठित करती है । और वह संतृप्ति ही मुक्त करती है । क्योंकि जो संतृप्त नहीं है । वह मुक्त कैसे हो सकती है । जीसस क्राइस्ट ने कहा है - जो जीवन को बचाता है । वह उसे खो देता है । और जो उसे खो देता है । वह उसे पा जाता है ।
यही मुझे भी कहने दें । यही प्रेम है । अपने को खो देना ही प्रेम है । प्रेम का मृत्यु को अंगीकार करना ही । प्रभु के जीवन को पाने का उपाय है । तभी तो मैं कहता हूं - बूंदो ! सागर की ओर चलो । सागर ही गंतव्य है । प्रेम की मृत्यु को वरण करो । क्योंकि वही जीवन है । जो सागर के पहले ठहर जाता है । वह मर जाता है । और जो सागर में पहुंच जाता है । वह मृत्यु के पार पहुंच जाता है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326