प्रश्न 41 - जब अंतरिक्ष से कोई उल्का पिंड गिरता है । तो उसे भी तो टूटता तारा कहते है न । जब कोई स्वर्ग से पदच्युत होकर नीचे आएगा । तो फिर उसमें और उल्कापिंड में अंतर क्या रह गया ?
- उल्का पिंड या तारे का टूटना या पूर्णत समाप्त होने का सम्बन्ध अंतरिक्षीय जङ पिंडों से है । और स्वर्ग या अन्य अपवर्ग से गिरे दिव्यात्माओं का गिरना अलग तरह से है । जो भी तारे या जङ उल्का पिंड टूटते हैं । उनका अधिकांश खंडित पदार्थ अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण द्वारा दूसरे तारों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । या फ़िर अवशेष रूप में कुछ समय अंतरिक्ष में तैरता रहता है । और बाद में ब्लैक होल आदि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । जबकि कोई दिव्यात्मा च्युत होने पर उसके शरीर के तत्व ( प्रथ्वी की तरह ही ) वहीं के तत्वों में चले जाते हैं । और दिव्य शरीर से अलग हुआ सिर्फ़ सूक्ष्म शरीर निर्धारित प्रथ्वी की तरफ़ गिरते गिरते ऐसे चमकीले और सुन्दर आकर्षक छोटे कीटों के रूप में बदल जाता है । जो आमतौर पर प्रथ्वी पर नहीं पाये जाते । ये मुश्किल से कुछ दिन जीवित रहकर किसी दूसरे शरीर में चले जाते हैं । एक पौराणिक दृष्टांत के अनुसार श्रीकृष्ण एक चींटें को देखकर हंसते हैं । रुक्मणी उसका कारण पूछती है । तो वह कहते हैं - यह चींटा अठारह बार इन्द्र पद प्राप्त कर चुका । मगर भोग लिप्सा इसे फ़िर वहीं का वहीं ले आती है ।
प्रश्न 42 - आपके अन्दर भी एक आंतरिक गुरु मौजूद है । देहधारी गुरु आपको उसी गुरु से मिलाते हैं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यहाँ प्रश्नकर्ता कौन है ? आपका जीव अज्ञान या सही भाव में अज्ञान स्थिति । आपने प्रश्न किससे किया ? एक देहधारी से । अगर वो आपके प्रश्न का उत्तर दोनों तलों ( बाह्य ( मौखिक ) आंतरिक ( क्रिया घटित या पदार्थिक ) पर देने में समर्थ है । तो वह देहधारी कौन हुआ ? गुरु । अब गौर करो । देहधारी के उत्तर से अज्ञान किस जगह हटा ? और प्रकाश किस जगह हुआ ? अंतर में । जहाँ अभी तक अंधकार या अज्ञान की स्थिति थी । इसका वैज्ञानिक अर्थ आपके अन्दर गु ( अंधकार या अज्ञान ) और रू ( ज्ञान या प्रकाश ) दोनों ही हैं । तो आपके गु को जो रू कर दे । वही गुरु है । ऐसे ही आत्मज्ञान यात्रा में अनेक पढावों पर अनेक स्थितियों पर प्रश्न उत्पन्न होते रहते हैं । और देहधारी गुरु उसे वास्तविक आंतरिक गुरु से जोङता हुआ निराकरण करता रहता है । देहधारी गुरु की आवश्यकता सिर्फ़ इसलिये है कि अभी तुम इतने मोहित हो । इतने भ्रांतिमय हो कि अंतर घटित घटनाओं में क्या सच क्या असच ? इसको लेकर सही निर्णय नहीं कर पाओगे । और ये भी सच है कि अन्दर बहुत से मार्ग और मायाजाल भी है । इन्हीं को सफ़लता पूर्वक पार करना शिष्यता और भक्ति है ।
प्रश्न 43 - साधारण स्थिति में स्वांस मुँह में तलुये ( नाक द्वारा ) से नाभि तक आती जाती प्रतीत होती है । पर वास्तव में इसका आना जाना धुर ( सिर के मध्य ) से हो रहा है । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- अब तक काफ़ी हद तक तुम निःअक्षर से अक्षर और अक्षर के कंपन से सृष्टि में होता स्पंदन आदि आदि विज्ञान जान ही चुके हो । मूल बात इसी कंपन के विज्ञान पर आधारित है । जो कि वास्तव में मूल बृह्म की वासना वायु ही है । पर यह मूल है । और जीवों की वासना वायु क्षीण और सीमित दायरे में है । अतः सभी जीवों के अंतःकरण पर आत्म चेतना का फ़ोकस पङ रहा है । और उससे ही जीवन और जीवन क्रियायें भासित महसूस हो रही हैं । इसी में यह स्वांस का चलना भी है । क्योंकि स्वांस प्राणवायु है । और प्राण अक्षर ( शब्द ध्वनि ) से कंपित हो रहा है । इसी से सभी तत्वों का गुण रूपांतरण हो रहा है । अतः वायु का भी चलना इसी से है । इसलिये स्वांस का आवागमन वास्तव में धुर से है । न कि कहीं बाहर से ।
प्रश्न 44 - यह पाप कर्म का भोग संस्कार है । इसकी दवा नहीं हो सकती । रोग संस्कार की ही दवा हो पाती है । भोग की कभी नहीं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यह तो बङी साधारण सी बात है । रोग का उपचार औषधि होता है । पर भोग का उपचार नहीं होता । डाक्टर भी लाइलाज रोग के इलाज से मना कर देते हैं । जिस प्रकार अदालत में कोई केस विचाराधीन है । क्षम्य है । वह तर्क दलीलों याचना से छूट सकता है । पर गम्भीर और अक्षम्य केस के अपराधी के कोई तर्क दलील या याचना नहीं सुनी जाती । ठीक इसी तरह भोग को भोगना ही होता है - काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।
प्रश्न 45 - क्या हर महायुग में रामायण, महाभारत repeat ( दुहराव ) होती है ?
- यदि सच कहा जाये । तो रामायण हंस स्तर के ( मर्यादित ) अलौकिक ज्ञान का रूपक है । और महाभारत परमहंस ज्ञान के मध्य बनने वाली स्थितियां । इसीलिये रामायण के नायक हंस ज्ञानी मर्यादा पुरुष राम और महाभारत के नायक परमहंस ज्ञानी श्रीकृष्ण हैं । लेकिन इसके बाद भी ये सच है कि ये घटनाये स्थूल या साक्षात रूप भी धर्म स्थापना आदि कार्यों हेतु जगत में भी उस समय पर प्रत्यक्ष होती हैं । लेकिन मेरे कहने का मतलब है । प्रत्येक साधक के साधना जीवन में भी अलग अलग स्तरों पर संस्कार स्थिति अनुसार रामायण महाभारत जैसी घटनायें घटित होती हैं । हर बार कहानी एक जैसी ही हो । ये कोई आवश्यक नहीं । हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । नाना भांति राम अवतारा । रामायण सत कोटि अपारा ।
प्रश्न 46 - मणिपुर चक्र में आठ दल है । या दस दल ? कबीर वाणी में अष्ट दल वाला बताया गया है । जबकि अन्य सभी जगह और आपके ब्लॉग में दस दल वाला बताया गया है । नाभि ( 8 ) अष्टकंवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । नाभि चक्र का देवता बिष्णु है । वहाँ 8 अष्ट दल ( पत्ते ) कमल हैं । यहाँ 6000 अजपा जाप है ।
- अगर सही कहूँ । तो सुरति शब्द योग में चक्रों और कुंडलिनी का कोई महत्व नहीं है । और हमारे साधकों का यहाँ अधिक ठहराव भी नहीं है । और क्योंकि न तो इन चक्रों के इष्ट से उनका कोई लेना देना । और न ही चक्र की सिद्धियों सम्पदाओं से । अतः वे यहाँ से झलक सी देखते हुये तेजी से गुजर जाते हैं । ये सिर्फ़ उनके लिये प्रमाणित होता है । जो उसी चक्र विशेष पर साधना कर रहे हैं । फ़िर भी मेरे ख्याल से आठ दल कमल ही है । और ये जाप वगैरह गिनना नहीं होता । बल्कि सच्ची साधना में स्वतः पूरा होने पर बन्द हो जाता है । कहने का मतलब ये संकेत भर हैं । अन्दर जाने पर अलग ही स्थिति अलग ही अनुभव होते हैं । जो बहुत कुछ साधक के गुरू के तरीके पर आधारित होते हैं । ये संकेत सिर्फ़ समझने हेतु हैं । वास्तविक चक्र जागरण में बहुत कुछ होता है ।
प्रश्न 47 - मनुष्य 84 लाख योनियों के अन्तर्गत आता है ? आपके blog पढ़ने से कभी प्रतीत होता है - मनुष्य 84 के अंतर्गत नहीं आता । तो कभी प्रतीत होता है कि मनुष्य 84 के अंतर्गत आता है ।
- आकर चार लक्ष चौरासी । जोनि भ्रमति जिव अविनाशी ।
जङ चेतन ग्रन्थि परि गई । जधपि मृषा छूटत कठिनई ।
तब ते मायावश भयहु गुसाईं । बंध्यों कीर मरकट की नाई ।
इसलिये निसंदेह मनुष्य चौरासी लाख योनियों में ही आता है । और इतना ही नहीं । इन चौरासी लाख में चार लाख प्रकार के सिर्फ़ मनुष्य ही होते हैं । जो मुख्यतः दो तौर पर जङता से चेतनता तक अज्ञानता से ज्ञान तक और पाप से पुण्य तक इस आधार पर विभाजित है । और इसी आधार पर पाप, कर्म और बंधन से छूटने हेतु कृमशः यात्रा भी करते हैं । हाँ चौरासी लाख योनियों में ही आने वाले मनुष्य में अन्य से एक अन्तर अवश्य है । मनुष्य कर्मयोनि के अंतर्गत आता है । जबकि शेष भोग योनि के अंतर्गत । लेकिन यह भी ध्यान रहे । मैंने कई बार कहा है । एक सामान्य नियम जो 85% होता है । और एक अपवाद जो 15% होता है । इसके अंतर्गत जङ योनियां पशु तथा वृक्षादि तथा शापित दिव्यात्मायें भी सन्तों की कृपा से उस योनि से छूटकर अगला मनुष्य जन्म प्राप्त कर भक्ति मार्ग पर चलती हैं । इसको सृष्टि के लिये प्रयोग किया जाने वाला शब्द " विलक्षण " के तौर पर देखना चाहिये ।
प्रश्न 48 - मनोवैज्ञानिको के मुताबिक इंसान का दिमाग दो हिस्सों में बंटा होता है । बायां हिस्सा एनालिसिस ( विश्लेषण ) कैलकुलेशन ( गणना ) और लॉजिक ( तर्क ) के काम करता है । दाहिना हिस्सा इमेजिनेशन ( कल्पना शक्ति ) क्रिएटिविटी ( सृजनात्मकता ) ड्रीम्स ( सपने देखना ) और फैंटेसी ( हवाई कल्पना ) के काम करता है । आम आदमी के दिमाग का दाहिना हिस्सा लॉक होता है । यह सिद्ध क्षेत्र है । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ ।
- वास्तविकता ये है कि वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक न कभी मस्तिष्क को पूरी तरह जान पाये । और न कभी इसे आध्यात्म विज्ञान के वगैर मनुष्य स्तर पर जाना जा सकता है । अतः ऊपर का विवरण भी सत्य कम कल्पना अधिक है । मस्तिष्क का बायां भाग काल क्षेत्र है । दायां भाग सिद्ध क्षेत्र है । और पीछे का दयाल क्षेत्र है । जिनसे निमित्त मनुष्यों द्वारा अनेकानेक कार्य और क्रियायें सिद्ध होती रही हैं । अगर सरल अन्दाज में कहा जाये । तो इतने बङे मस्तिष्क का कोई भी मनुष्य राईदाने से अधिक उपयोग नहीं कर पाता । सिद्ध क्षेत्र पर विस्त्रत जानकारी का अर्थ है । ज्ञानयोग पर बात करना । न कि मस्तिष्क आदि की क्षमता पर बात करना आदि आदि ।
प्रश्न 49 - कई एक जटिल संस्कार { जो अभी मुझे अपने जलाने हैं } मुझसे इस तरह की संस्कार अटैचमेंट की वजह से उसके ऊपर ट्रान्सफ़र हो जायँ । योग में ऐसा हो जाता है । मजा आप ले रहे हो । तो सजा भी आप भुगतोगे । यही नियम है । मेरे संस्कार से { आप लोगों के मुझसे भावनात्मक जुङाव के वजह से } आप लोग प्रभावित न हों । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ ।
- ये स्थिति विशेष के ऊपर बात है । कोई समर्पण और श्रद्धावान शिष्य के भाव अनुसार कभी गुरु मार्गदर्शक को उस शिष्य के पाप या कर्म समूह अपने ऊपर लेने होते हैं । और ज्ञान की शिष्यता में चल रहे अच्छे शिष्य को दूसरे अन्य शिष्य के पाप या कर्म समूह भोगने होते हैं । ये सत संकल्प और सुरति के आपस में जोङने से संभव होता है । प्रारम्भ में किसी शिष्य पर गुरु द्वारा यह क्रिया की जाती है । फ़िर स्वयं होने लगती है । आप जितनी ऊँची प्राप्ति चाहते हैं । जितना उच्च सन्तत्व चाहते हैं । तो उसी तरह के परीक्षणों से गुजरना ही होता है । भक्ति के इस पाठयक्रम का उत्तर बहुत विस्तार से ही संभव है । जो समय समय पर बिन्दुवत स्पष्ट होता रहेगा ।
प्रश्न 50 - क्या मकड़ी का जाला हटाने से पाप नहीं लगता ?
- वास्तव में कर्म सिद्धांत का रहस्य और गति इतनी सूक्ष्म है कि मनुष्य के लिये कल्पनातीत ही है । अतः सामान्य बुद्धि से पाप पुण्य का निर्धारण करना बेहद कठिन है । कुछेक प्रचलित और मोटी मोटी बातों को छोङकर । क्योंकि एक हिसाब में यदि तुम कोई भी परमार्थिक कार्य नहीं कर रहे । तो हवा पानी प्रकाश शाक सब्जी आदि का उपभोग भी पाप कमाने के अंतर्गत ही है । तुम्हारे हर कार्य से प्रतिदिन लाखों जीवाणुओं का नाश हो जाता है । जाने अनजाने छोटे कीट पतंगों की हत्या हो जाती है । तब यही कहा जा सकता है कि सामान्य स्थिति में बुद्धि विवेक से कार्य लेते हुये यथासंभव इनसे बचना चाहिये । और यदि आप किसी भी सच्ची भक्ति से जुङे हैं । तो कुछ न कुछ ऐसा होगा कि आपके द्वारा पाप कर्म नहीं हो पायेगा । दूसरे सामान्य स्थिति में जीवों की सहायता करना उन्हें दाना आटा पानी आदि डालना ऐसे अनजाने में हुये पाप कर्मों का नाश करता रहता है । और यदि नहीं हुये । तो पुण्य बनता रहता है । अतः मकङी का जाला आदि हटाने जैसी आवश्यक क्रियाओं में कोई पाप नहीं होता । घर या खेत में कीटनाशक आदि छिङकने से कोई पाप नहीं होता । पागल कुत्ते द्वारा या पागल कुत्ते के समान ही अकारण दूसरे की हत्या पर उतारू जीव ( मनुष्य आदि ) को मार डालने पर भी कोई पाप नहीं होता । समझें । हालांकि हर हत्या पर पाप है । पर प्रश्न ये भी है कि हत्या का उद्देश्य क्या था । तब वह हुआ पाप भी क्षीण हो जाता है । और पुण्य प्रभावी हो जाता है । हालांकि एक ही कार्य से उस समय दोनों हुये थे । और दोनों का ही फ़ल है । इसीलिये राम और कृष्ण आदि ने महा युद्धों के बाद विभिन्न यज्ञादि क्रियाओं द्वारा प्रायश्चति और शुद्धि के उपाय किये ।
- उल्का पिंड या तारे का टूटना या पूर्णत समाप्त होने का सम्बन्ध अंतरिक्षीय जङ पिंडों से है । और स्वर्ग या अन्य अपवर्ग से गिरे दिव्यात्माओं का गिरना अलग तरह से है । जो भी तारे या जङ उल्का पिंड टूटते हैं । उनका अधिकांश खंडित पदार्थ अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण द्वारा दूसरे तारों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । या फ़िर अवशेष रूप में कुछ समय अंतरिक्ष में तैरता रहता है । और बाद में ब्लैक होल आदि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । जबकि कोई दिव्यात्मा च्युत होने पर उसके शरीर के तत्व ( प्रथ्वी की तरह ही ) वहीं के तत्वों में चले जाते हैं । और दिव्य शरीर से अलग हुआ सिर्फ़ सूक्ष्म शरीर निर्धारित प्रथ्वी की तरफ़ गिरते गिरते ऐसे चमकीले और सुन्दर आकर्षक छोटे कीटों के रूप में बदल जाता है । जो आमतौर पर प्रथ्वी पर नहीं पाये जाते । ये मुश्किल से कुछ दिन जीवित रहकर किसी दूसरे शरीर में चले जाते हैं । एक पौराणिक दृष्टांत के अनुसार श्रीकृष्ण एक चींटें को देखकर हंसते हैं । रुक्मणी उसका कारण पूछती है । तो वह कहते हैं - यह चींटा अठारह बार इन्द्र पद प्राप्त कर चुका । मगर भोग लिप्सा इसे फ़िर वहीं का वहीं ले आती है ।
प्रश्न 42 - आपके अन्दर भी एक आंतरिक गुरु मौजूद है । देहधारी गुरु आपको उसी गुरु से मिलाते हैं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यहाँ प्रश्नकर्ता कौन है ? आपका जीव अज्ञान या सही भाव में अज्ञान स्थिति । आपने प्रश्न किससे किया ? एक देहधारी से । अगर वो आपके प्रश्न का उत्तर दोनों तलों ( बाह्य ( मौखिक ) आंतरिक ( क्रिया घटित या पदार्थिक ) पर देने में समर्थ है । तो वह देहधारी कौन हुआ ? गुरु । अब गौर करो । देहधारी के उत्तर से अज्ञान किस जगह हटा ? और प्रकाश किस जगह हुआ ? अंतर में । जहाँ अभी तक अंधकार या अज्ञान की स्थिति थी । इसका वैज्ञानिक अर्थ आपके अन्दर गु ( अंधकार या अज्ञान ) और रू ( ज्ञान या प्रकाश ) दोनों ही हैं । तो आपके गु को जो रू कर दे । वही गुरु है । ऐसे ही आत्मज्ञान यात्रा में अनेक पढावों पर अनेक स्थितियों पर प्रश्न उत्पन्न होते रहते हैं । और देहधारी गुरु उसे वास्तविक आंतरिक गुरु से जोङता हुआ निराकरण करता रहता है । देहधारी गुरु की आवश्यकता सिर्फ़ इसलिये है कि अभी तुम इतने मोहित हो । इतने भ्रांतिमय हो कि अंतर घटित घटनाओं में क्या सच क्या असच ? इसको लेकर सही निर्णय नहीं कर पाओगे । और ये भी सच है कि अन्दर बहुत से मार्ग और मायाजाल भी है । इन्हीं को सफ़लता पूर्वक पार करना शिष्यता और भक्ति है ।
प्रश्न 43 - साधारण स्थिति में स्वांस मुँह में तलुये ( नाक द्वारा ) से नाभि तक आती जाती प्रतीत होती है । पर वास्तव में इसका आना जाना धुर ( सिर के मध्य ) से हो रहा है । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- अब तक काफ़ी हद तक तुम निःअक्षर से अक्षर और अक्षर के कंपन से सृष्टि में होता स्पंदन आदि आदि विज्ञान जान ही चुके हो । मूल बात इसी कंपन के विज्ञान पर आधारित है । जो कि वास्तव में मूल बृह्म की वासना वायु ही है । पर यह मूल है । और जीवों की वासना वायु क्षीण और सीमित दायरे में है । अतः सभी जीवों के अंतःकरण पर आत्म चेतना का फ़ोकस पङ रहा है । और उससे ही जीवन और जीवन क्रियायें भासित महसूस हो रही हैं । इसी में यह स्वांस का चलना भी है । क्योंकि स्वांस प्राणवायु है । और प्राण अक्षर ( शब्द ध्वनि ) से कंपित हो रहा है । इसी से सभी तत्वों का गुण रूपांतरण हो रहा है । अतः वायु का भी चलना इसी से है । इसलिये स्वांस का आवागमन वास्तव में धुर से है । न कि कहीं बाहर से ।
प्रश्न 44 - यह पाप कर्म का भोग संस्कार है । इसकी दवा नहीं हो सकती । रोग संस्कार की ही दवा हो पाती है । भोग की कभी नहीं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यह तो बङी साधारण सी बात है । रोग का उपचार औषधि होता है । पर भोग का उपचार नहीं होता । डाक्टर भी लाइलाज रोग के इलाज से मना कर देते हैं । जिस प्रकार अदालत में कोई केस विचाराधीन है । क्षम्य है । वह तर्क दलीलों याचना से छूट सकता है । पर गम्भीर और अक्षम्य केस के अपराधी के कोई तर्क दलील या याचना नहीं सुनी जाती । ठीक इसी तरह भोग को भोगना ही होता है - काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।
प्रश्न 45 - क्या हर महायुग में रामायण, महाभारत repeat ( दुहराव ) होती है ?
- यदि सच कहा जाये । तो रामायण हंस स्तर के ( मर्यादित ) अलौकिक ज्ञान का रूपक है । और महाभारत परमहंस ज्ञान के मध्य बनने वाली स्थितियां । इसीलिये रामायण के नायक हंस ज्ञानी मर्यादा पुरुष राम और महाभारत के नायक परमहंस ज्ञानी श्रीकृष्ण हैं । लेकिन इसके बाद भी ये सच है कि ये घटनाये स्थूल या साक्षात रूप भी धर्म स्थापना आदि कार्यों हेतु जगत में भी उस समय पर प्रत्यक्ष होती हैं । लेकिन मेरे कहने का मतलब है । प्रत्येक साधक के साधना जीवन में भी अलग अलग स्तरों पर संस्कार स्थिति अनुसार रामायण महाभारत जैसी घटनायें घटित होती हैं । हर बार कहानी एक जैसी ही हो । ये कोई आवश्यक नहीं । हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । नाना भांति राम अवतारा । रामायण सत कोटि अपारा ।
प्रश्न 46 - मणिपुर चक्र में आठ दल है । या दस दल ? कबीर वाणी में अष्ट दल वाला बताया गया है । जबकि अन्य सभी जगह और आपके ब्लॉग में दस दल वाला बताया गया है । नाभि ( 8 ) अष्टकंवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । नाभि चक्र का देवता बिष्णु है । वहाँ 8 अष्ट दल ( पत्ते ) कमल हैं । यहाँ 6000 अजपा जाप है ।
- अगर सही कहूँ । तो सुरति शब्द योग में चक्रों और कुंडलिनी का कोई महत्व नहीं है । और हमारे साधकों का यहाँ अधिक ठहराव भी नहीं है । और क्योंकि न तो इन चक्रों के इष्ट से उनका कोई लेना देना । और न ही चक्र की सिद्धियों सम्पदाओं से । अतः वे यहाँ से झलक सी देखते हुये तेजी से गुजर जाते हैं । ये सिर्फ़ उनके लिये प्रमाणित होता है । जो उसी चक्र विशेष पर साधना कर रहे हैं । फ़िर भी मेरे ख्याल से आठ दल कमल ही है । और ये जाप वगैरह गिनना नहीं होता । बल्कि सच्ची साधना में स्वतः पूरा होने पर बन्द हो जाता है । कहने का मतलब ये संकेत भर हैं । अन्दर जाने पर अलग ही स्थिति अलग ही अनुभव होते हैं । जो बहुत कुछ साधक के गुरू के तरीके पर आधारित होते हैं । ये संकेत सिर्फ़ समझने हेतु हैं । वास्तविक चक्र जागरण में बहुत कुछ होता है ।
प्रश्न 47 - मनुष्य 84 लाख योनियों के अन्तर्गत आता है ? आपके blog पढ़ने से कभी प्रतीत होता है - मनुष्य 84 के अंतर्गत नहीं आता । तो कभी प्रतीत होता है कि मनुष्य 84 के अंतर्गत आता है ।
- आकर चार लक्ष चौरासी । जोनि भ्रमति जिव अविनाशी ।
जङ चेतन ग्रन्थि परि गई । जधपि मृषा छूटत कठिनई ।
तब ते मायावश भयहु गुसाईं । बंध्यों कीर मरकट की नाई ।
इसलिये निसंदेह मनुष्य चौरासी लाख योनियों में ही आता है । और इतना ही नहीं । इन चौरासी लाख में चार लाख प्रकार के सिर्फ़ मनुष्य ही होते हैं । जो मुख्यतः दो तौर पर जङता से चेतनता तक अज्ञानता से ज्ञान तक और पाप से पुण्य तक इस आधार पर विभाजित है । और इसी आधार पर पाप, कर्म और बंधन से छूटने हेतु कृमशः यात्रा भी करते हैं । हाँ चौरासी लाख योनियों में ही आने वाले मनुष्य में अन्य से एक अन्तर अवश्य है । मनुष्य कर्मयोनि के अंतर्गत आता है । जबकि शेष भोग योनि के अंतर्गत । लेकिन यह भी ध्यान रहे । मैंने कई बार कहा है । एक सामान्य नियम जो 85% होता है । और एक अपवाद जो 15% होता है । इसके अंतर्गत जङ योनियां पशु तथा वृक्षादि तथा शापित दिव्यात्मायें भी सन्तों की कृपा से उस योनि से छूटकर अगला मनुष्य जन्म प्राप्त कर भक्ति मार्ग पर चलती हैं । इसको सृष्टि के लिये प्रयोग किया जाने वाला शब्द " विलक्षण " के तौर पर देखना चाहिये ।
प्रश्न 48 - मनोवैज्ञानिको के मुताबिक इंसान का दिमाग दो हिस्सों में बंटा होता है । बायां हिस्सा एनालिसिस ( विश्लेषण ) कैलकुलेशन ( गणना ) और लॉजिक ( तर्क ) के काम करता है । दाहिना हिस्सा इमेजिनेशन ( कल्पना शक्ति ) क्रिएटिविटी ( सृजनात्मकता ) ड्रीम्स ( सपने देखना ) और फैंटेसी ( हवाई कल्पना ) के काम करता है । आम आदमी के दिमाग का दाहिना हिस्सा लॉक होता है । यह सिद्ध क्षेत्र है । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ ।
- वास्तविकता ये है कि वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक न कभी मस्तिष्क को पूरी तरह जान पाये । और न कभी इसे आध्यात्म विज्ञान के वगैर मनुष्य स्तर पर जाना जा सकता है । अतः ऊपर का विवरण भी सत्य कम कल्पना अधिक है । मस्तिष्क का बायां भाग काल क्षेत्र है । दायां भाग सिद्ध क्षेत्र है । और पीछे का दयाल क्षेत्र है । जिनसे निमित्त मनुष्यों द्वारा अनेकानेक कार्य और क्रियायें सिद्ध होती रही हैं । अगर सरल अन्दाज में कहा जाये । तो इतने बङे मस्तिष्क का कोई भी मनुष्य राईदाने से अधिक उपयोग नहीं कर पाता । सिद्ध क्षेत्र पर विस्त्रत जानकारी का अर्थ है । ज्ञानयोग पर बात करना । न कि मस्तिष्क आदि की क्षमता पर बात करना आदि आदि ।
प्रश्न 49 - कई एक जटिल संस्कार { जो अभी मुझे अपने जलाने हैं } मुझसे इस तरह की संस्कार अटैचमेंट की वजह से उसके ऊपर ट्रान्सफ़र हो जायँ । योग में ऐसा हो जाता है । मजा आप ले रहे हो । तो सजा भी आप भुगतोगे । यही नियम है । मेरे संस्कार से { आप लोगों के मुझसे भावनात्मक जुङाव के वजह से } आप लोग प्रभावित न हों । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ ।
- ये स्थिति विशेष के ऊपर बात है । कोई समर्पण और श्रद्धावान शिष्य के भाव अनुसार कभी गुरु मार्गदर्शक को उस शिष्य के पाप या कर्म समूह अपने ऊपर लेने होते हैं । और ज्ञान की शिष्यता में चल रहे अच्छे शिष्य को दूसरे अन्य शिष्य के पाप या कर्म समूह भोगने होते हैं । ये सत संकल्प और सुरति के आपस में जोङने से संभव होता है । प्रारम्भ में किसी शिष्य पर गुरु द्वारा यह क्रिया की जाती है । फ़िर स्वयं होने लगती है । आप जितनी ऊँची प्राप्ति चाहते हैं । जितना उच्च सन्तत्व चाहते हैं । तो उसी तरह के परीक्षणों से गुजरना ही होता है । भक्ति के इस पाठयक्रम का उत्तर बहुत विस्तार से ही संभव है । जो समय समय पर बिन्दुवत स्पष्ट होता रहेगा ।
प्रश्न 50 - क्या मकड़ी का जाला हटाने से पाप नहीं लगता ?
- वास्तव में कर्म सिद्धांत का रहस्य और गति इतनी सूक्ष्म है कि मनुष्य के लिये कल्पनातीत ही है । अतः सामान्य बुद्धि से पाप पुण्य का निर्धारण करना बेहद कठिन है । कुछेक प्रचलित और मोटी मोटी बातों को छोङकर । क्योंकि एक हिसाब में यदि तुम कोई भी परमार्थिक कार्य नहीं कर रहे । तो हवा पानी प्रकाश शाक सब्जी आदि का उपभोग भी पाप कमाने के अंतर्गत ही है । तुम्हारे हर कार्य से प्रतिदिन लाखों जीवाणुओं का नाश हो जाता है । जाने अनजाने छोटे कीट पतंगों की हत्या हो जाती है । तब यही कहा जा सकता है कि सामान्य स्थिति में बुद्धि विवेक से कार्य लेते हुये यथासंभव इनसे बचना चाहिये । और यदि आप किसी भी सच्ची भक्ति से जुङे हैं । तो कुछ न कुछ ऐसा होगा कि आपके द्वारा पाप कर्म नहीं हो पायेगा । दूसरे सामान्य स्थिति में जीवों की सहायता करना उन्हें दाना आटा पानी आदि डालना ऐसे अनजाने में हुये पाप कर्मों का नाश करता रहता है । और यदि नहीं हुये । तो पुण्य बनता रहता है । अतः मकङी का जाला आदि हटाने जैसी आवश्यक क्रियाओं में कोई पाप नहीं होता । घर या खेत में कीटनाशक आदि छिङकने से कोई पाप नहीं होता । पागल कुत्ते द्वारा या पागल कुत्ते के समान ही अकारण दूसरे की हत्या पर उतारू जीव ( मनुष्य आदि ) को मार डालने पर भी कोई पाप नहीं होता । समझें । हालांकि हर हत्या पर पाप है । पर प्रश्न ये भी है कि हत्या का उद्देश्य क्या था । तब वह हुआ पाप भी क्षीण हो जाता है । और पुण्य प्रभावी हो जाता है । हालांकि एक ही कार्य से उस समय दोनों हुये थे । और दोनों का ही फ़ल है । इसीलिये राम और कृष्ण आदि ने महा युद्धों के बाद विभिन्न यज्ञादि क्रियाओं द्वारा प्रायश्चति और शुद्धि के उपाय किये ।
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