उत्तर - जिनको बाह्य रूप से दो कान या दो आंख कहते जानते हैं । वे वास्तव में उसी मूल आंख कान से जुङे हैं । जो आध्यात्म की भाषा में दृष्टा कहा जाता है और सन्तमत में इनको सुरति (सुनना) निरति (देखना) कहा गया है । इसमें विस्तार जैसा कुछ नहीं । पूरी दुनियां में दृश्य, श्रव्य (या ध्वनि और प्रकाश के रंग) दो ही चीजें हैं जो माया के पर्दे पर घटित हो रहीं हैं ।
प्रश्न 32 - 7 दीप 9 खण्ड कौन कौन से होते हैं ?
उत्तर -
सात दीप नवखण्ड में, सतगुरु फ़ेंकी डोर ।
ता पर हंसा न चढ़े, तो सतगुरु की का खोर ।
स्पष्टत यह दोहा इस मनुष्य शरीर और बृह्मांड दोनों को लक्ष्य कर कह रहा है । यथा पिंडे तत बह्मांडे के आधार पर भी यह सटीक है । सात दीप इस मनुष्य शरीर में सात चक्रों को कहा गया है । प्रतीकात्मक नहीं कहा गया । वे दीप ही हैं और यहाँ मुख्य लोगों के साथ बहुत लोग रहते भी हैं । नवखण्ड वही नौ द्वार में या नौ खंडों में ही रहता या भटका जीवात्मा के लिये कहा है । एक दूसरी स्थिति में हाथ के तीन भाग (पंजा, कलाई, कोहनी से ऊपर) और पैर के तीन भाग (पंजा, पिंडली, जांघ) सातवां पेट आठवां गला और नौवां सिर इस तरह है । क्योंकि बृह्मांड के इन स्थानों पर मुख्य खण्ड बन जाते हैं । दूसरे वाले हाथ या पैर के भागों को दांया बांया माना गया है और उसे अलग से खण्ड नहीं कहा गया । ये उचित भी है ।
अतः प्रमाणित दोहे के अनुसार भी हंस जीव इन्हीं सात चक्रों (जो कुंडलिनी या महामाया शक्ति का दायरा है, क्षेत्र है) और नव खंडो (नौ द्वारों के मिथ्या और नाशवान भोक्ता शरीर से मोहित हुआ जन्म मरण में फ़ंसा रहता है) में भटका हुआ है । जिससे सिर्फ़ समय का सदगुरु ही निकाल सकता है । अगर आप दूसरी शक्तियों का सोचें तो इस विवरण की स्थितियों पर गौर करने पर पता चलेगा । वे भगवद सत्तायें आदि खुद इसी दायरे में हैं ।
सतगुरु द्वारा डोर फ़ेंकने का आशय उसी नाम ध्वनि के चुम्बकत्व और कंपन तरंग से शिष्य की सुरति को ऊपर चढाकर इस महाकाल जाल से निकालना है ।
प्रश्न 33 - कबीर जी ने निरंजन के 12 नकली पंथ चलाने की माँग को क्यों माना ?
उत्तर - ये बात दरअसल विपरीत तरह से लिख गयी है । कबीर ने काल निरंजन की बारह पंथ चलाने की मांग को माना नहीं बल्कि ये कहा कि कालांतर में काल माया के प्रभाव से और मनुष्य (कबीरपंथियों) के लोभ लालच आदि से सत्य पर असत्य आवरित हो जायेगा । कहना चाहिये । बात का अर्थ ही बदल जायेगा लेकिन यदि कबीर साहित्य गौर से पढ़ें तो एक काबिल ए जिक्र बात ये है कि कबीर ने कहा - जब भी जीव काल की क्रूरता, छल आदि से पीङित होकर सतपुरुष को याद करेगा । कोई न कोई आकर उसको सतनाम द्वारा कालफ़ांस से छुङायेगा । यही बात कालपुरुष और सतपुरुष के बीच तय हुयी थी या कहिये । सतपुरुष ने इसको उचित माना था ।
प्रश्न 34 - क्रिया योग क्या है ?
उत्तर - वास्तव में तो ये अलग अलग परम्पराओं वाले धर्म संप्रदायों ने अलग अलग शीर्षकों का प्रचलन कर दिया है । फ़िर भी क्रिया शब्द क्रियात्मकता का द्योतक है । मेरे ख्याल से कुण्डलिनी का कोई भी योग या जङ चेतन समाधि योग के किसी भी भाग की क्रियात्मकता को क्रिया योग ही कहा जायेगा । बाकी किसी ने और भाव में इसको कहा हो । वह मुझे ज्ञात नहीं ।
सभी योग और ज्ञान का राजा सहज योग भी क्रिया योग ही है । हाँ साधारण जप तप पूजा पाठ आदि क्रिया योग के अंतर्गत नहीं कहे जा सकते । क्योंकि इनमें आंतरिक रूप से या कहिये यांत्रिक रूप से क्रिया नहीं होती ।
प्रश्न 35 - श्रीकृष्ण परमहंस योगी थे और ये पूर्ण योगेश्वर थे । गीता आदि में जो इन्होंने खुद को परमात्मा कहा । वह आत्मदेव का आवेश था यानी शक्ति (और ज्ञान) प्रकट हुयी थी । ये आत्मदेव कौन हैं ?
उत्तर - अगर शाश्वत सत्य एकमात्र सत्य के तौर पर बात की जाये तो इस जगत में इस अखिल सृष्टि में सिर्फ़ एक ही आत्मा है । बाकी सभी जीवात्मा, दिव्यात्मा, भगवतात्मा उसी मूल आत्मा के स्थितियों के आधार पर बने अंतःकरण मात्र हैं । जिनको सूक्ष्म शरीर कहा जाता है ।
इसके दो उदाहरण जैसे लाखों करोङों दर्पण में लाखों करोङों सूर्य प्रतिबिम्ब बनना । जैसे लाखों घङों में लाखों आकाश प्रतिबिम्ब बनना हैं तो एक भाव में तो यही सत्य है । वही परमात्मा अनेक गुण भावों रूपों में खेल रहा है पर क्योंकि यह खेल या स्थिति काल अकाल दो भागों में विभाजित है । अतः कुछ ज्ञान या कर्म कालिक प्रकार के होते हैं जैसे श्रीकृष्ण के जीवन की तमाम क्रियायें कालिक हैं । लेकिन जव ये गीता उपदेश उतरा । उस वक्त आत्मा का आवेश ध्यान अवस्था जैसा होने लगा । अतः वह आत्मिक है । सिर्फ़ कृष्ण ही नहीं कबीर आदि प्रमुख आत्मज्ञानी सन्तों ने जो परम की वाणियां कहीं वो उसी ध्यान या जुङाव से संभव होती हैं । इसके बाद भी उसको पूर्णरूपेण कहना संभव नहीं होता । तब उसको निर्वाणी या अवर्णनीय भी कहते हैं ।
प्रश्न 36 - बुद्ध को वैसे आत्मज्ञान तो प्राप्त नहीं हुआ था । शून्य ज्ञान आदि ही प्राप्त हुआ था । शून्य ज्ञान कौन सा होता है ?
उत्तर - सरल भाषा में शून्य ज्ञान या शून्य समाधि अंतःकरण की कई स्तरों में से एक निर्विचार स्थिति है । क्योंकि इस योग यात्रा में इक्कीस से अधिक शून्य (या सुन्न) आते हैं । ध्यान रहे आत्मा या परमात्मा को अनन्त कहा गया है । अतः कोई आवश्यक नहीं किसी योगी द्वारा घोषित ज्ञान ही अंतिम सत्य हो जाये ।
हाँ कबीर खास इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कबीर ने समझने के स्तर पर भी अन्त तक की बात और प्रायोगिक और व्यवहारिक स्तर पर भी वैज्ञानिक और कृमबद्ध ढंग से कहा है । दूसरे इस ज्ञान का कोई एक तरीका न बताकर कई तरीके बताये हैं । इसलिये मेरी नजर में कबीर, अष्टावक्र (से भी) और अब तक के किसी से भी अधिक प्रमाणित हैं ।
उदाहरण के लिये ओशो कालपुरुष और उसके परिवार पर कुछ न बोल पाये । जबकि ये आत्म साधना का अनिवार्य हिस्सा हैं । अतः कोई भी जब अंतकरण से लम्बे अभ्यास द्वारा साफ़ और पवित्र होने लगता है या हो जाता है । तो उसे समाधि के अनेक प्रकारों में से किसी तरह की समाधि होने लगती है और वह उसे ही अंतिम सच मान लेता है । क्योंकि उसे आगे कुछ हो नहीं रहा ।
अगर इसके बारे में पता करें तो बीस मिनट के अनुलोम विलोम के बाद तीस मिनट भी सुबह ध्यान में बैठने वाले को ठीक ऐसे ही अनुभव होते हैं पर वास्तव में यह बहुत क्षुद्र सत्य है ।
प्रत्येक शून्य के बाद अगले शून्य तक एक नये प्रकार का मन नये प्रकार की वासनायें और नयी सृष्टि नया आसमान आदि आते हैं और यदि गुरु पहुंचा हुआ है तो साधक की चढ़ाई और प्राप्ति के आधार पर उसे शून्य पार कराता रहता है । अतः सिर्फ़ पहले ही शून्य तक पहुंचा वैरागी विरक्त साधक भी ठीक बुद्ध जैसा ही उपदेश करेगा ।
यदि आत्मज्ञान साहित्य का गौर से मनन करें तो सिर के पिछले भाग में दयाल देश बताया है । जबकि बात इससे भी कहीं बहुत आगे हैं । जो मैं अपने चयनित साधकों को न सिर्फ़ बताऊंगा । बल्कि पात्र होने पर अभ्यास चढ़ाई आदि में पूर्ण सहयोग करूंगा । बाकी यह उन्हीं पर अधिक निर्भर करता है ।
प्रश्न 37 - क्या प्रेतग्रस्त इंसानों की आकृति शीशे में नहीं बनती और क्या उनकी छाया भी नहीं बनती ?
उत्तर - आमतौर पर (सामान्य नियम) नही बनती । मतलब जैसे कोई प्रेत आसपास है तो शीशे या छाया रूप में वह अप्रभावित व्यक्ति को नहीं दिखेगा । हाँ एकदम कुछ फ़ुरहरी सी आना, रौंगटे खङे हो जाना, यकायक चेतना एकाग्र हो जाना, अनजाना सा भय यकायक लगना किसी अदृश्य की उपस्थिति महसूस होना, ऐसे अदृश्य अनुभव होंगे । लेकिन प्रेत प्रभावित व्यक्ति को शीशे या छाया की आवश्यकता ही नहीं । वह तो उसे अक्सर कहीं भी कैसे भी दिखाई ही (भासित) देता रहता है ।
प्रश्न 38 - आपने एक post में लिखा था कि अमेरिका प्रथ्वी पर पाताल लोक का प्रतीक है । इसका क्या मतलब है ?
उत्तर - क्योंकि प्रथ्वी कर्मयोग, कर्मयोनि या उस विद्यालय के तरह है । जहाँ से असंख्य जीवात्मायें अपने उत्थान पतन का मार्ग या लक्ष्य तय करती हैं । तो जाहिर है कि यहाँ से विभिन्न प्रकार और विभिन्न श्रेणियों और विभिन्न स्तर के नागरिक विभिन्न पाठयकृमों से ही अपनी अपनी अभिरुचि और पूर्व वर्तमान संस्कारों द्वारा निर्मित होते हैं । यदि आप पौराणिक विवरण में जम्बू दीप आदि का वर्गीकरण और विभिन्न स्थानों के निवासियों का रहन-सहन, स्वभाव, जीवनशैली आदि का ब्यौरा देखें तो वह अलग अलग वासनाओं रुचियों और शरीरों वाला होगा ।
ये मजे की बात है । आज के अमेरिकन आदि की जीवनशैली भी बिलकुल नागवंशियों या नागलोक वासियों जैसी ही भोगवादी होगी । जबकि स्वर्ग का दूतावास या क्षेत्र, हिमालय दिव्य और सात्विक लोगों से युक्त आज भी होगा । तो ऐसे सभी प्रतिनिधित्व क्षेत्रों में जीवात्मायें अपने अपने संस्कार वश जाती हैं और आगे के लिये उनके अंतःकरण के परिवर्तन और क्षमताओं का विकास होता है । जो कि सृष्टि की विविधता और समग्रता हेतु आवश्यक भी है ।
प्रश्न 39 - भूत किन व्यक्तियों के पास फटक नहीं सकते ?
उत्तर - सरलता से कहा जाये तो सात्विक वृति या सत ऊर्जा से युक्त व्यक्ति के पास प्रेतात्मायें नहीं आतीं । क्योंकि आ ही नहीं सकतीं । तामसिक वृति या पाप वृति वाले मनुष्यों के ये घेर लेती हैं । क्योंकि वहाँ उनका वास भी है और सृष्टि विधान में ऐसे स्थान ऐसे जीव उनके लिये नियत किये गये हैं ।
प्रश्न 40 - ये बात समझ नहीं आई कि - भूत ‘सतनाम’ सुनते ही भाग जायेंगे ।
उत्तर - ऐसा मैंने अपने योग अनुभवों और पूर्व स्थिति के आधार पर कहा था । जब कोई प्रभावित पीङित व्यक्ति की चेतना पूर्ण भाव से (भले ही दूरस्थ) सतनाम से जुङेगी और वो सहायता की गुहार करेगा तो सतनाम उसकी रक्षा करता है ।
भूत पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावे ।
हनुमान जी जो (सत) नाम जपते हैं । उससे भूत, प्रेत, पिशाच निकट भी नही आते ।
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