18 दिसंबर 2018

ककहरा 1




कायाकुंज करम की बाङी, करता बाग लगाया।
किनका तामें अजरसमाना, जिन बेली फ़ैलाया॥
पाँचपचीस फ़ूल तहँ फ़ूले, मनअलि ताहि लुभाया।
वोहि फ़ूलन के विषै लपटि रस, रमताराम भुलाया॥

मनभंवरा यह कालहै, विषैलहरि लपटाय।
ताहिसंग रमताबहै, फ़िरिफ़िरि भटकाखाय॥

खालिक की तो खबर नहीं कछु, खाबख्याल में भूला।
खानादाना जोङाघोङा, देखिजवानी फ़ूला॥
खासापलंग सेजबंदतकिया, तोसक फ़ूल बिछाया।
नवलनारि लै तापर पौढ़ा, कामलहरि उमङाया॥

लागी नारि पियारि अति, छुटा धनी सों नेह।
काल आय जबग्रासिहै, खाकमिलेगी देह॥


 गुरू कीजिये निरखिपरखि कै, ज्ञान रहनि का सूरा।
गर्वगुमान मायामद त्यागै, दयाछिमा सत पूरा॥
गैल बतावै अमरलोक की, गावै सतगुरू बानी।
गजमस्तक अंकुस गहिबैठे, गुरूवा गुन गलतानी॥

पापपुन्य की आसनहिं, करमभरम से न्यार।
कृतिमपाखंड परिहरे, असगुरू करो विचार॥

घट गुरूज्ञान बिना अंधियारा, मोहभरम तमछाया।
सारअसार विचारतनाहीं, अमीधोख विषखाया॥
घर का घिर्त रेत में डारै, छाछ ढूँढ़ता डोलै।
कंचन देके काँचबिसाहै, हरूगरू नहीं तौलै॥

ज्ञानबिना नरबाबरा, अंध कूर मतिहीन।
साँच गहैनहीं परखि कै, झूठै के आधीन॥

डंभ मनै मत मानियो, सत्तकहौं परमारथ जानी।
उपजैसुख तब ह्रदयतुम्हारे, जबपरखो ममबानी॥
ऊँचानीचा कोइ नहीं रे, करम कहावै छोटा।
जासु के अंदर करकै नखरा, सोई माल है छोटा॥

ऊपर जटाजनेऊ पहिने, मालातिलक सुहाय।
संसयसोक मोहभ्रम अंदर, सकले में रहु छाय॥

चित से चेतहु चतुरचिकनिया, चैन कहा तुम सोया।
चतुराई सब भाङ परैगी, जन्म अचेते खोया॥
चौथापन तेरा अबलागा, अजहुँ चेत गुरूज्ञान।
नहिं तो परैगो घोरअंधेरो, फ़िरि पाछे पछतान॥

ऐसे पोटन आइकै, सौदा करो बनाय।
जो चूको तुम जन्मयह, तो दुख भुगतोजाय॥

छन में छलबल सब निकसत है, जब जम छेंकै आई।
छटपट करिहौ विषज्वाला तें, तब कहुकौन सहाई॥
जम का मुगदर ऊपरबरसै, तब को करै उबारी।
तातमातु भ्राता सुतसज्जन, काम न आवै नारी॥

छूटयो सर्वसगाई, भया चोर का हाल।
संगी सब न्यारे भये, आपगये मुखकाल॥

जम के पाले पङै जीव, तब कछू बात नहिंआवै।
जोर कछू काबू नहीं, सिर धुनिधुनि पछतावै॥
जब ले पहुँचावैं चित्रगुप्त पहँ, लिखनीलिखै बिचार।
दयाहीन गुरूविमुखी ठहरै, अगिनकुंड लै डारि॥

जन्मसहस अजगर को पावै, विषज्वाला अकुलाय।
ता पाछे कृमिबिष्टा कीन्हा, भूतखानि को जाय॥

झंखन झुरवन सबही छोङो, झमकिकरो गुरूसेव।
झाँई मन की दूर करो, परखिसब्द गुरूदेव॥
झगराझूठ झालझल त्यागो, झटकभजो सतनाम।
झीनकरो मन मेलोमंदिर
, तब पावो बिस्राम॥

होइअधीन गुरूचरन गहु, कपटभाव करिदूर।
पतिव्रता ज्यों पिव को चाहै, ताके न दूजा कूर॥

(ञ)
इस्कबिना नहिं मिलिहै साहिब, केतो भेष बनाय।
इस्कमासूक न छिपैछिपाये, केतो छिपै जो आय।
इतउत इहाँउहाँ सबछोङो, निःचल गहु तुम धाय।
यासे सुक्खहोय दुखनासै, मेटे सकल बलाय॥

आदिनाम है जाहिपहँ, सोई गुरू समरत्थ।
जे कृतमकहँ ध्यावहीं, ते भव होय बिरथ॥

टीमटाम बाहर बहुतेरे, दिल परतीत न होइ।
करैआरती संख बाजधुनि, छुटै न कसमल कोइ॥
टिकुली सेंदुर टकुवा चरखा, दासी भेस बनावै।
कचे बचे ने मांगि मिठाई, सो कैसे मनभावै॥

जिन सेवक पूजा दियो, ताहिदियो आसीस।
जहाँ नहींकछु तहँभे ठाढ़े, भस्म करैं जगदीस॥

ठग बहुतेरे भेषबनावैं, गले लगावैं फ़ाँसी।
स्वांग बनाये कौन नफ़ा है, जो न भजे अविनासी॥
ठोकरसहै गुरू के द्वारे, ठीकठौर तबपावै।
ठकठक जन्ममरन का मेटै, जम के हाथ न आवै॥

मृतक होय गुरूपद गहै, ठीस करै सबदूर।
कायर तें नहीं भक्ति ह्वै, ठानिरहै कोइसूर॥

डगमग तें काज सरै नहिं, अडिगनाम गुनगहिये।
डरमेटे तब विषमकाल का, अछै अमरपद लहिये॥
डरतेरहिये गुरूसाधु से, डम्भि काम नहिंआवै।
डिम्भी होय के भवसागर में, डहनमरन दुखपावै॥

डेढ़रोज का जीवना, डारो कुबुधि नसाय।
डेरा पावो सत्तलोक में, सतगुरू सब्दसमाय॥

ढूँढ़त जिसे फ़िरो सो ढिंग है, तेरा तैं उलटि निरेखो।
ढोल मारि के सबै चेतावों, सतगुरू सब्द बिवेखो॥
तुम हो कौन कहाँ तें आये, कहँ है निजघर तेरा?
केहिकारन तुम भरमत डोलो, तनतजि कहाँ बसेरा?

को रच्छक है जीव का, गहो ताहि पहिचान।
रच्छक के चीन्हेबिना, अंत होयगी हानि॥

निर्गुन गुनातीत अविनासी, दयासिंधु सुखसागर।
निःचल निःठौर निरबासी, नाम अनादिउजागर॥
निरमल अमीकांति अदभुतछबि, अकह अजावन सोई।
नखसिख नाभि नयनमुख नासा, स्रवन चिकुर सुभ होई॥

चिकुरन के उजियार तें, बिधु कोटिक सरमाय।
कहा कांति छबि बरनों, बरनति बरन न जाय॥

ताहिपुरूष का अंस जीवयह, धर्मराय ठगिराखा।
तारनतरन आप कहलाई, बेदसास्त्र अभिलाखा॥
तत्तप्रकृति तिरगुन से बंधा, नीरपवन की बारी।
धर्मराय यह रचना कीन्ही, तहाँ जीव बैठारी॥

जीवहिं लागि ठगौरी, भूला अपनादेस।
सुमिरन करही काल को, भुगतै कष्टकलेस॥

थकितहोय जीव भरमत डोलै, चौरासी के माहीं।
नाना दुक्ख परै जमफ़ाँसी, जरैमरै पछिताहीं॥
थाह न पावै बिपति कष्ट की, बूङै संसयधारा।
भवसागर की बिषमलहर है, सूझै वार न पारा॥

तनबिलखै अघयोनि में, पङै जीव बिकरार।
सतगुरू सब्दबिचार नहिं, कैसे उतरै पार॥

दुंद बाद है और देह में, परिचै तहाँ न पावै।
नरतन लहि जो मोहिगहै, तो जम के निकट न आवै॥
दरस कराओ सत्तपुरूष का, देह हिरम्बर पाइहो।
सुखसागर सुखबिलसौ हंसा, बहुरि जोनि नहिं आइहौ॥

अपनाघर सुख छाङि के, अँगवै दुख को भार।
कहाँ भरमबसि परै जिव, लखै न सब्द हमार॥

ककहरा 2




धर्मराय को सबैपुकारै, धर्मै चीन्ह न पावै।
धर्मराय तिहुलोकहिं ग्रासै, जीवहिं बांधि झुलावै॥
धोखा दै सबको भरमावै, सुरनर मुनि नहिं बाचै।
नर बपुरे की कौन बतावै, तन धरिधरि सबनाचै॥

असुरहोय सतावही, फ़िर रच्छक को भाव।
रच्छक जानि के जपै जिव, पुनि वे भच्छ कराव॥

निरभै निडर नाम लौलावै, नकल चीन्हि परित्यागै।
नादबिन्द तें न्यार बताओ, सुरतोसोहंगम जागै॥
निराधार निःतत्व निअच्छर, निःसंसय निःकामी।
निःस्वादी निर्लिप्त वियापित, निःचिंत अगुन सुखधामी॥

नामसनेही चेतहू, भाखों घर की डोरि।
निरखो गुरूगम सुरति सों, तबचलि तृन जमतोरि॥

पापपुन्य में जिव अरुझाना, पार कौनविधि पावै।
पापपुन्य फ़लभुक्तै तनधरि, फ़िरफ़िर जमसंतावै॥
प्रेमभक्ति परमातमपूजा, परमारथ चितधारै।
पावनजन्म परसि पद पैहै, पारससब्द बिचारै॥

पीवपीव करि रटन लगावै, परिहरि कपटकुचाल।
प्रीतम बिरहबिजोग जेहिं, पाँवपरै तेहि काल॥

फ़रामोस कर फ़िकर फ़ेल बद, फ़हम करै दिलमाहीं।
परफ़ुल्लित सतगुरू गुनगावै, जम तेहिदेख डराहीं॥
फ़ाजिल सोजो आपामेटै, फ़नाहोय गुरू सेवै।
फ़ाँसी काटै कर्मभर्म की, सत्तसब्द चित्तदेवै॥

फ़िरैफ़िरै नर भरमबस, तीरथमांहि नहाय।
कहाभये नर घोर के पीये, ओस तें प्यास न जाय॥

ब्रह्म बिदित है सर्वभूत में, दूसरभाव न होय।
वर्तमान चित्त चेतैनाहीं, भूतभविष्य बिलोय॥
बङे पढ़े ते बिषमबुद्धि लिये, बोलनहार न जोहै।
ब्रह्म दुखति करि पाथर पूजै, बरबस आप बिगोहै॥

बन्दि परे नर काल के, बुद्धि ठगाइनि जानि।
बन्दी छोरौं लैचलौं, जोमोहि गहिपहिचान॥

भाङपरै यहदेस बिराना, भवसागर अवगाहा। अथाह
भक्तअभक्त सभन को बोरै, कोई न पावै थाहा॥
भच्छक आप लीलाविस्तारा, कलाअनंत दिखावै।
भच्छक को रच्छक करिजानै, रच्छक चीन्हि न पावै॥

भजैजाहि सो भच्छक, रच्छक रहानिनार।
भर्मचक्र में परे जीवसब, लखै न सब्दहमार॥

मनमयगर मदमस्त दिवाना, जीवहिं उलटि चलावै।
अकरमकरम करै मनआपहिं, पीछे जिव दुखपावै॥
मोहबस जीव मनहिं न चीन्है, जानै यहसुखदाई।
मारपरै तब मन ह्वै न्यारो, नरकपरै जिवजाई॥

मनगज अगुवा काल को, परखो संतसुजान।
अंकुस सतगुरूज्ञान है, मनमतंग भयमान॥

जो जिव सतगुरूसब्द विवेकै तौ मनहोवै चेरा।
जुक्तिजतन से मन को जीतै, जियतै करैनिबेरा॥
जहँलगि जालकाल विस्तारा, सो सब मन की बाजी।
मनै निरंजनधर्मराय है, मनपंडित मनकाजी॥

गुरूप्रताप भौ जोरजिव, निर्बल भौ मनचोर।
तस्कर संधि न पावही, गढ़पति जगै अंजोर॥

रहनि रहै रजनी नहिंव्यापै, रतेमते गुरूबानी।
राहबतावौं दयाजानि जिव, जातें होय न हानी॥
रमताराम कामकरि अपना, सुपना है संसारा।
रार रोर तजि रच्छक सेवो, जातें होयउबारा॥

रैनदिवस उहवाँ नहीं, पुरूषप्रकास अंजोर।
राखो तेईठांव जिव, जहाँ न चाँपैचोर॥

लगनलगी जेहि गुरूचरनन की, लच्छन प्रगट तेहिं ऐसा।
लगनलगी तब मगनभये मन, लोकलाज कुल कैसा॥
लगा रहै गुरूसुरत परेखै, निजतन स्वार्थ न सूझै।
लागैठोकर पीठ न देवै, सूरा सनमुखजूझै॥

लहरलाज मनबुद्धि की, निकट न आवैताहि।
लोटै गुरूचरनन तरे, गुरूसनेह चित जाहि॥

वाके निकट कालनहिं आवै, जो सतसब्द समाना।
वारपार की संसयनाहीं, वाही में मनमाना॥
वासिलवाकी का डरनाहीं, वारिस हाथबिकाना।
वारिस को सौंपै अपने तईं, वाही ह्रदयसमाना॥

वाकिफ़ हो सो गमिलहै, वाजिब सखुन अजूब।
वाही की करिबन्दगी, पाक जात महबूब॥

शहर चोर घनघोर करे रे, सोवैं सब घरबारी।
शोर कर निर्भरमै सोवै, लागी बिषमखुमारी॥
साहिब से तो फ़ेरि दिलअपना, दुनियां बीच बंधाया।
सालासाली ससुरा सरहज, समधी सजन सुहाया॥

सतगुरू सब्द चेतावहीं, समुझि गहै कोईसूर।
समबल लीजे हाथकरि, जाना है बङदूर॥

खलकसयाना मनबौराना, खोयजान निजकामा।
खबरनहीं घरखरच घटाना, चेतै रमतारामा॥
खोलिपलक चितचेतै अजहूँ, खाबिंद सों लौलावै।
खामख्याल करिदूर दिवाना, हिरदे नामसमावै॥

खाल भरी है बायु तें खाली, खाली होत न बार।
खैर परै जेहि काम तें, सो करु बेगिबिचार॥

सहजसील संतोषधरन धर, ज्ञानविवेक बिचार।
दयाछिमा सतसंगति साधो, सतगुरू सब्दअधार॥
सुमिरन सत्तनाम का निसुदिन, सूरभाव गहि रहना।
समर करै औ जोर परै जो, मन के संग न बहना॥

सैन कहा समुझाय कै, रहनीरहै सो सार।
कहेतरै तो जगतरै, कहनिरहनि बिनु छार॥

हरिआवै हरिनाम समावै, हरि मों हरि को जानै।
हरिहरि कहे तरै नहिंकोई, हरिभज लोक पयाने॥
हरिबिनसै हरि अजरअमर है, हरीहरी नहिं सूझै।
हाजिर छोङ बुत्त को पूजै, हसद करै नहिं बूझै। द्रोह

हमहमार सबछाङि कै, हक्क राह पहिचान।
हासिल हो मकसूद तब, हाफ़िज अमनअमान॥

छैलचिकनियां अभै घनेरे, छका फ़िरैदिवाना।
छायामाया इस्थिर नाहीं, फ़िरि आखिर पछताना॥
छरअच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै।
छर परिहरि अच्छर लौलावै, तब निःअच्छर पावै॥

अच्छरगहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न।
कहैकबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह॥

॥इति॥

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326