21 जून 2018

भावना और विश्वास की मौत


विश्वास साहब अपने आपको बहुत भाग्यशाली मानते थे।
कारण यह था कि उनके दोनों पुत्र आईआईटी करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवानिवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आये, और उनके साथ ही रहे।
परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ।
उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये; परन्तु उनका मन वहाँ बिलकुल नहीं लगा, और वे भारत लौट आये।
दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया, और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने-पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी।
विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।


एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया, और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए।
रात्रि के लगभग दो बजे हार्टअटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई।
पत्नी प्रात: छह बजे जब जागी, तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्यकर्म से निवृत्त होने में उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते-करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई।
चूंकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया, और फिर घसीटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची। उसने पति को हिलाया-डुलाया, पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे।


पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम में लगा हुआ था।
पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया।
लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँचीं।
और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया।
पड़ोसी के नंबर जैसे-तैसे लगाये।
पङोसी भला इंसान था।
फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस-पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया।
दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे।
उन्होंने देखा, विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई।
जनाजा दोनों का साथ-साथ निकला।
पूरा मौहल्ला कंधा दे रहा था।
परन्तु वो दो कंधे मौजूद नहीं थे, जिसकी माँ-बाप को उम्मीद थी।
शायद वे कंधे करोड़ों रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।
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(साभार - Virendra Singh‎) कापी पेस्ट 

नोट - जहाँ से यह विवरण लिया है, विवरण पोस्ट करने वाले का कहना है कि ये सत्य घटना है।

18 जून 2018

आखिर, बात क्या थी?



यह फ़ोटो फ़ेसबुक से मिला है।
लेकिन वहाँ इस फ़ोटो से सम्बन्धित विवरण कुछ नहीं था।
सिर्फ़ दुःख प्रतीकात्मक संवेदना चिह्न अंकित थे, और RIP जैसे शब्द टंकित थे।
ये बङी दुखद, शोचनीय, विचारणिय, चिन्तनीय, निन्दनीय सामाजिक स्थिति है,
कि इस दम्पत्ति ने एक मासूम बालिका के साथ अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर दी।





मैंने इस फ़ोटो से सम्बन्धित जानकारी नेट माध्यम से पता करने की कोशिश की।
कुछ हासिल नहीं हुआ।
आप में से किसी को इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी हो, तो कृपया कमेंट द्वारा बतायें।
पहला चित्र आरीजनल है। दूसरा बङा दिखाने के लिये ‘कट’ किया है।
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ये पोस्ट करने के चार घन्टे बाद

दीपक अरोरा ने इस दुखद चित्र से सम्बन्धित पूरी जानकारी खोज दी।
ये चित्र महाराष्ट्र का है, और ये परिवार आर्थिक तंगी से पीङित था।

जानकारी के लिये निम्न लिंक पर जायें।


https://www.facebook.com/photo.php?fbid=710664959265540&set=a.125308037801238.1073741829.100009661272559&type=3&hc_location=ufi


15 जून 2018

नीलाम ए दो दीनार


“नीलाम ए दो दीनार”
हिन्दू महिलाओं का दुखद कङवा इतिहास!
जबरदस्ती की धर्मनिरपेक्षता, भाईचारे को ढोते अक्लमंद हिंदुओं के लिये (इतिहास) 
समय! 
ग्यारहवीं सदी (ईसा बाद)
भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर अभी-अभी राजा जयपाल की पराजय हुई।
पराजय के पश्चात अफगानिस्तान के एक शहर ‘गजनी’ का एक बाज़ार,
ऊँचे से एक चबूतरे पर खड़ी कम उम्र की सैंकड़ों हिन्दू स्त्रियों की भीङ,
जिनके सामने वहशी से दीखते, हज़ारों बदसूरत किस्म के लोगों की भीड़,
जिसमें अधिकतर अधेड़ या उम्र के उससे अगले दौर में थे।
कम उम्र की उन स्त्रियों की स्थिति देखने से ही अत्यंत दयनीय प्रतीत हो रही थी।
उनमें अधिकाँश के गालों पर आंसुओं की सूखी लकीरें खिंची हुई थी।
मानों आंसुओं को स्याही बनाकर हाल ही में उनके द्वारा झेले गए भीषण यातनाओं के दौर की दास्तान को प्रारब्ध ने उनके कोमल गालों पर लिखने का प्रयास किया हो।
एक बात जो उन सबमें समान थी।
किसी के भी शरीर पर, वस्त्र का एक छोटा सा टुकड़ा, नाममात्र को भी नहीं था। 
सभी सम्पूर्ण निर्वसना थी।

सभी के पैरों में छाले थे, मानो सैंकड़ों मील की दूरी पैदल तय की हो।
सामने खङी वहशियों की भीड़, वासनामयी आँखों से उनके अंगों की नाप-जोख कर रही थी।
कुछ मनबढ़ आंखों के स्थान पर हाथों का प्रयोग भी कर रहे थे।
सूनी आँखों से अजनबी शहर, और अनजान लोगों की भीड़, को निहारती उन स्त्रियों के समक्ष हाथ में चाबुक लिए, क्रूर चेहरे वाला, घिनौने व्यक्तित्व का, एक गंजा व्यक्ति खड़ा था।
सफाचट मूंछ, बेतरतीब दाढ़ी, उसकी प्रकृतिजन्य कुटिलता को चार चाँद लगा रही थी।

दो दीनार, दो दीनार, दो दीनार...
हिन्दुओं की खूबसूरत औरतें, शाही लडकियां, कीमत सिर्फ दो दीनार,
ले जाओ, ले जाओ, बांदी बनाओ,
एक लौंडी, सिर्फ दो दीनार,
दुख्तरे हिन्दोस्तां, दो दीनार,
भारत की बेटी का मोल, सिर्फ दो दीनार.. 
उस स्थान पर आज एक मीनार है।
जिस पर लिखे शब्द आज भी मौजूद हैं - दुख्तरे हिन्दोस्तान, नीलामे दो दीनार  
अर्थात वो स्थान - जहाँ हिन्दू औरतें दो-दो दीनार में नीलाम हुईं।


महमूद गजनवी हिन्दुओं के मुँह पर अफगानी जूता मारने, उनको अपमानित करने के लिये अपने सत्रह हमलों में लगभग चार लाख हिन्दू स्त्रियों को पकड़ कर घोड़ों के पीछे, रस्सी से बांध कर गजनी उठा ले गया।
महमूद गजनवी जब इन औरतों को गजनी ले जा रहा था।
वे अपने पिता, भाई, पतियों को निरीह, कातर, दारुण स्वर में पुकार कर बिलख-बिलख कर रो रही थीं। अपनी रक्षा के लिए पुकार रही थीं। लेकिन करोङों हिन्दुओं के बीच से उनकी आँखों के सामने वो निरीह असहाय स्त्रियाँ मुठ्ठी भर निर्दयी कामांध मुसलमान सैनिकों द्वारा घसीट कर भेड़ बकरियों की तरह ले जाई गईं।
रोती बिलखती इन लाखों हिन्दू नारियों को बचाने न उनके पिता बढ़े, न पति उठे, न भाई।
और न ही इस विशाल भारत के करोड़ों जन-सामान्य लोगों का विशाल हिन्दू समाज।
महमूद गजनी ने इन हिन्दू लड़कियों, औरतों को ले जाकर गजनवी के बाजार में भेङ बकरियों के समान बेच ड़ाला।
विश्व के किसी भी धर्म के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार नही हुआ।
जैसा हिन्दुओं के साथ हुआ।
और ऐसा इसलिये हुआ, क्योंकि इन्होंने तलवार को हाथ से छोड़ दिया।
इनको बताया गया कि जब-जब धरती पर अत्याचार बढ़ेगा। 
तब भगवान स्वयं उन्हें बचाने आयेंगे, अवतरित होंगे।
हिन्दुओं! भारत के गद्दार सेकुलर आपको मिटाने की साजिश रच रहे हैं।
आजादी के बाद यह षङयंत्र धर्म-परिवर्तन कराने के नाम पर हुआ।
आज भारत में, आठ राज्यों में, हिन्दुओं की संख्या 2-5% बची है।
हिन्दुओं को समझना चाहिये कि,
भगवान भी अव्यवहारिक अहिंसा व अतिसहिष्णुता को नपुसंकता करार देते हैं।
भगवान भी उन्हीं की मदद करते हैं।
जो अपनी मदद खुद करते हैं।
(कापी) मूल स्रोत चित्र व लेख - अज्ञात
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लेख का स्रोत सूत्र -


https://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/Someone/%E0%A4%B9-%E0%A4%A8-%E0%A4%A6-%E0%A4%93-%E0%A4%B8-%E0%A4%AC-%E0%A4%B6%E0%A4%B0-%E0%A4%AE-%E0%A4%95-%E0%A4%88-%E0%A4%9C-%E0%A4%A4/

09 जून 2018

माँ, और बस..माँ


दोनों कवितायें कापी पेस्ट हैं, मूल लेखक अज्ञात हैं।
कविताओं में कवित्त नियम तो नहीं, पर दर्द और संवेदना अवश्य है,
जो मानवीय तल पर सोचने पर विवश करती है।
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दूध पिलाया जिसने, छाती से निचोड़कर।
एक गिलास पानी, कभी उसे पिला न सका॥
बुढ़ापे का सहारा हूँ, अहसास दिला न सका।
पेट पर सुलाने वाली को, मखमल पर सुला न सका॥
वो भूखी सो गई बहू के डर से, एक बार मांगकर।
मैं रोटी के दो कौर, उसे खिला न सका॥
नजरें उन बूढ़ी आंखों से, कभी मिला न सका ।
वो दर्द दिल में सहती रही, और मैं तिलमिला न सका॥
जो जीवन भर, ममता के रंग, पहनाती रही मुझे।
दो जोड़ी कपङे कभी, उसे सिला न सका॥
बीमार बिस्तर से उसे, शिफा दिला न सका।
खर्च के डर से, बड़े अस्पताल ले जा न सका । 
बेटा कह के दम तोङने के बाद से, अब तक सोच रहा हूँ।
दवाई, इतनी भी महंगी न थी, कि मैं ला ना सका॥


एक बच्चे ने कब्रिस्तान जाकर
बस्ता माँ की कब्र पर फेंका,
आँखों में आंसू, भर्राये गले,
और शिकायती लहजे में कहा,
तेरी नींद पूरी हो गयी हो, तो चल उठ
और चल मेरे साथ, और चलकर जबाब दे
मेरी टीचर को, वो रोजाना मुझसे कहती है,
कि तेरी माँ बहुत लापरवाह है।
जो न तुझे अच्छी तरह तैयार करके भेजती है।
और न तुझे अच्छी तरह होमवर्क कराती है।
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जिन्दगी में माँ का न होना उसी तरह है।
जिस तरह कङकती धूप में पेङ का न होना।
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- पापा मैंने आपके लिए हलवा बनाया है । ग्यारह साल की बेटी पिता से बोली।
पिता - वाह क्या बात है, खिलाओ फिर पापा को।
बेटी खुशी से दौड़ती रसोई में गई और कटोरा भरकर हलवा ले आई।
पिता ने खाना शुरू किया और बेटी को देखा।
पिता की आँखों मे आँसू थे।
- क्या हुआ पापा, अच्छा नही लगा।
पिता - नही बेटी, बहुत अच्छा बना है।
पिता ने पूरा कटोरा खाली कर दिया।
तभी माँ बाथरूम से नहाकर बाहर आई, और बोली- ला मुझे भी खिला तेरा हलवा।
पिता ने बेटी को पचास रु. इनाम में दिए, बेटी खुशी से मम्मी के लिए हलवा लेकर आई।
उसने हलुवे की पहली चम्मच मुँह में डाली, फ़िर तुरन्त थूक दिया, और बोली - ये क्या बनाया है, ये हलवा है, इसमें चीनी नहीं, नमक भरा है..और आप कैसे खा गये, मेरे बनाये खाने में तो कभी नमक मिर्च कम, तेज है, कहते रहते हो, और बेटी को बजाय कुछ कहने के इनाम देते हो।

पिता (हंसते हुए) - पगली, तेरा मेरा तो जीवन भर का साथ है, रिश्ता है पति पत्नी का, जिसमें नोंकझोंक रूठना मनाना सब चलता है; मगर ये बेटी है, कल चली जाएगी, लेकिन आज इसे वो एहसास, वो अपनापन, महसूस हुआ, जो मुझे इसके जन्म के समय हुआ था। आज इसने बङे प्यार से पहली बार मेरे लिए कुछ बनाया है, फिर वो जैसा भी हो, मेरे लिए सबसे बेहतर, और सबसे स्वादिष्ट है; बेटियां अपने पापा की परियां, राजकुमारी होती हैं, जैसे तुम अपने पापा की हो।
वो रोते हुए पति के सीने से लग गई, और सोचने लगी,
“इसीलिए हर लङकी अपने पति में अपने पापा की छवि ढूंढ़ती है”
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हर बेटी अपने पिता के बेहद करीब या यूँ कहे कलेजे का टुकड़ा होती है। इसीलिये उसकी विदाई के समय सबसे ज्यादा पिता ही रोता है। इसीलिये पिता हर समय अपनी बेटी की फिक्र करता है, क्योंकि हर बेटी अपने पापा की परी होती है।
(कापी पेस्ट)

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326