अपने
श्रोत्रेन्द्रिय का दिशाओं में, त्वगिन्द्रिय का विद्युत
में लय कर दे। चक्षुरिन्द्रिय का सूर्य
में तथा रसनेन्द्रिय का जल के देवता वरूण
में लय कर दे। प्राण का वायु में,
वाणी का अग्नि में,
और हस्तेन्द्रिय का इन्द्र में
लय कर दे। अपने पादेन्द्रिय का विष्णु में
तथा गुदा-इन्द्रिय का मित्र में लय कर दे। उपस्थेन्द्रिय का कश्यप में लय करके, उसके बाद मन का चन्द्रमा में लय
कर दे। इसी तरह बुद्धि का चतुर्मुख ब्रह्मा
में लय कर दे।
इन्द्रियों
के बहाने ही सब देवता स्थित हैं, इन्द्रियों के नाम से कोई
दूसरी वस्तुएँ स्थित नहीं हैं, इनका मैं तुम्हें तत्व उपदेश द्वारा
लय करने का आदेश “अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशत”
(वाणी बनकर अग्नि मुख में प्रविष्ट हो गयी) इस
श्रुति वाक्य को प्रमाण मानकर ही दे रहा हूँ। स्वत: अपने मन से
किसी तरह की कोई कल्पना करके मैंने इन अर्थों को तुझसे प्रकट नहीं किया है।
सुख
का सागर शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द
बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।।
इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा है। क्रिया-शक्ति युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ
रथ के बाहरी भाग हैं, और वर-अभय आदि की मुद्राओं से
उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में
क्रियाशीलता प्रकट होती है।
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान
की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा है,
और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है।
ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किये
हैं किंतु वे सभी कष्ट-साध्य हैं, और परिणाम में प्रायः स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाले हैं। अभी तक भगवान
की प्राप्ति कराने वाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करने वाला पुरूष प्रायः
भाग्य से ही मिलता है।
(श्रीमद
भागवत,
माहात्म्य अध्याय 02)
नारी
पुरूष की स्त्री, पुरूष नारी का पूत।
यहि ज्ञान विचारि के, छारि चला अवधूत।।
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