बेहद ध्यान से पढ़िये
(श्रीमद भागवत स्कन्ध 12, अध्याय 11)
शौनक ने कहा - सूत जी! हम क्रिया-योग
का यथावत ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं क्योंकि उसका कुशलता पूर्वक ठीक-ठीक आचरण
करने से मरणधर्मा पुरूष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः हमें बतलाइये कि पांचरात्र
आदि तन्त्रों की विधि जानने वाले भगवान की आराधना करते समय किन-किन तत्वों
से उनके चरण आदि अंग, गरूड़ आदि उपांग,
सुदर्शन आदि आयुध और कौस्तुभ आदि आभूषणों की कल्पना
करते हैं?
सूत जी ने कहा - शौनक!
ब्रह्मा आदि आचार्यों ने, वेदों ने, और पांचरात्र आदि तन्त्र-ग्रन्थों
ने विष्णु की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं आपको वही
सुनाता हूँ।
भगवान के जिस चेतन अधिष्ठित विराट रूप में यह त्रिलोकी
दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा,
महत्तत्व, अहंकार और पंच-तन्मात्रा, इन नौ तत्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत, इन सोलह विकारों से बना हुआ है। यह भगवान का ही पुरूष रूप है।
पृथ्वी इसके चरण हैं, वायु नासिका
है, और दिशाएँ कान हैं। प्रजापति लिंग है,
मृत्यु गुदा है, लोकपाल गण भुजाएँ
हैं, चन्द्रमा मन है, और यमराज भौंहें
हैं। लज्जा ऊपर का होठ है, लोभ नीचे का होठ है,
चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुस्कान
है, वृक्ष रोम हैं, और बादल
ही विराट पुरूष के सिर पर उगे हुए बाल हैं।
जिस प्रकार यह व्यष्टि-पुरूष अपने परिमाण से सात
बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि-पुरूष भी इस लोक संस्थिति के
साथ अपने सात बित्ते का है।
स्वयं भगवान अजन्मा हैं। वे कौस्तुभ मणि के बहाने
जीव-चैतन्य रूप आत्म ज्योति को ही धारण करते हैं, और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्षःस्थल पर श्रीवत्स रूप
से। वे अपनी सत्व, रज आदि गुणों वाली माया को वनमाला
के रूप से, छन्द को पीताम्बर
के रूप से तथा अ+उ+म इन तीन मात्रा वाले प्रणव को यज्ञोपवीत
के रूप में धारण करते हैं।
भगवान सांख्य और योग रूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को
अभय करने वाले ब्रह्म-लोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं। मूल-प्रकृति
ही उनकी शेषशय्या है, जिस पर वे विराजमान रहते
हैं, और धर्म-ज्ञान आदि युक्त सत्वगुण ही उनके नाभि-कमल
के रूप में वर्णित हुआ है।
वे मन, इन्द्रिय और शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राण-तत्व
रूप कौमोद की गदा, जल तत्व रूप
पांचजन्य शंख, और तेजस तत्व रूप सुदर्शन चक्र को
धारण करते हैं। आकाश के समान निर्मल आकाश रूप खड्ग, तमोमय
अज्ञान रूप ढाल, काल-रूप
शारंग धनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं।
इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा है। क्रिया-शक्ति
युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं, और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान
आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है।
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल
ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही
मन्त्र दीक्षा है, और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना
ही भगवान की पूजा है।
समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छह पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान अपने कर-कमल में धारण करते हैं। धर्म और यश को
क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखें) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्र
रूप से धारण किये हुए हैं।
तीनों वेदों का ही नाम गरूड़ है। वे ही अन्तर्यामी परमात्मा
का वहन करते हैं। आत्म-स्वरूप भगवान की उनसे कभी न बिछुड़ने वाली आत्मशक्ति
का ही नाम लक्ष्मी है। भगवान के पार्षदों के नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन
पांचरात्र आदि आगम रूप हैं। भगवान के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों को ही नन्द-सुनन्द आदि आठ द्वारपाल कहते
हैं।
स्वयं भगवान ही वासुदेव, संकर्षण,
प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, इन चार मूर्तियों के
रूप में अवस्थित हैं इसलिये उन्हीं को चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता है।
वे ही जाग्रत-अवस्था के
अभिमानी ‘विश्व’ बनकर
शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते, और वे ही स्वप्नावस्था
के अभिमानी ‘तैजस’ बनकर
बाह्य विषयों के बिना ही मन ही मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्था
के अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय
और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं, और वही
सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त
ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं।
इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण,
प्रद्युम्न एवं अनिरूद्ध, इन चार मूर्तियों के
रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस,
प्राज्ञ एवं तुरीय रूप से प्रकशित होते हैं।
वही सर्व-स्वरूप भगवान वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयं-प्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं। वे अपनी माया से ब्रह्मा
आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार
सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि
शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्म-स्वरूप से ही प्राप्त होते हैं।
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