सत्व-गुण की पूर्णता, या वृद्धि, क्षीण दोषों से उत्पन्न सभी घातक विषाणुओं का स्वतः सिद्ध काल है। यह उर्जा की मुख्यधारा से विकेन्द्रित होने के कारण होता है। कुण्डलिनी योग द्वारा “मुख्यधारा” से जुङाव अथवा सहज समाधि का आत्मबोध भाव किसी भी प्रकार के विनाशी रक्तबीजों (विषाणु आदि) का तुरन्त और स्वतः नाश कर देता है।
अर्थात योगी इनसे ऐसे ही अप्रभावित रहता है, जैसे कीचङ में कमल।
हे अविनाशी! सहज योग से पक्के तत्वों को जानो।
इंगला-पिंगला त्रिकुटी, सुखमन सबको धाम।
कहै कबीर निस्वांस रहे, ताको भिन्न मुकाम॥
कर्म-दोष भी जब अधर्म से संक्रमित हो जाये तब असाध्य कष्टों, परेशानियों, रोगों एवं त्रय आपदाओं को बढाने वाला होता है। इहलोक में हताशा, निराशा, दुःखपूर्ण जीवन के बाद परलोक में नर्क आदि विषम भीषण दुःखों का कारक होता है। योग द्वारा सत्वगुण की वृद्धि या समर्थ ब्रह्मयोगी ही कर्म-दोष को मेटने, उपचार करने में सक्षम है। अच्छा या बुरा कर्म क्षीण होने पर ही वास्तविक ज्ञान, भक्ति का उदय होता है, उससे पूर्व नहीं।
कर्म-दोष दूर होते ही इहलोक-परलोक संवरने लगता है।
काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।।
प्रत्येक जीव, जन्म-जन्मान्तरों से, अज्ञानवश लाखों “कर्म-दोष” से पीङित हुआ, इस भव-चक्र में अत्यन्त कष्टपूर्ण दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश है। और बिना सही मार्गदर्शन के निरन्तर पतन की ओर जा रहा है। सत्यगुरू, सत्यज्ञान, सहज समाधि योग, निर्वासना और अकर्ता, अकर्म योग इस दुःखरूप भवचक्र से निकलने का एकमात्र उपाय है। जो किसी समर्थ योगी के सहयोग द्वारा ही संभव है।
इसलिये जीते जी इस कर्म-दोष व्यूह को तोङना सीखो।
साधु सगा गुरू सगा, अन्त सगा सत-नाम।
कहैं कबीर इस जीव को, तीन ठाम विश्राम॥
2 टिप्पणियां:
बहुत सही।
गुरु ही सत है परंतु सचा गुरू कैसे मिलेगा
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