अकाल पुरूष
2+2=4 ये मानक, कालक्रम के अंतर्गत स्रष्टि का हेतु है एवं 2+2=7 (य़ा कुछ भी अन्य) जैसा अमानक अकाल-प्रवाही सत्व है। काल, अकाल दोनों से ही परे अनिर्वचनीय आत्मा है। कालक्रम सिर्फ़ सही कर्म से नियन्त्रित होता है। अकाल प्रवाह, ज्ञानयुक्त कर्म एवं ज्ञानयुक्त स्थितियों, साधनों से साध्य और गम्य है।
फ़िर ज्ञान, अज्ञान से भी शून्य आत्मा है, जिससे यह सब कुछ है, हुआ है। लेकिन समष्टि लय या अनन्त लय हेतु इन तीनों को जानना/होना आवश्यक है।
यही परम-पद है।
गुनि अनगुनी अर्थ नहिं आया, बहुतक जने चीन्हि नहिं पाया।
जो चीन्हे ताको निर्मल अंगा, अनचीन्हे नर भये पतंगा।
चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्म
कीमत, त्याग, परिश्रम एवं परमार्थ, सत्यरूपेण इन चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्मों के बिना, कोई भी लौकिक या मोक्ष पदार्थ, इहलोक अथवा परलोक में भी प्राप्त नहीं होता। लेकिन ये चारो पुरूषार्थ भी किसी ब्रह्म-योगी या शब्द-गुरू द्वारा धर्म-निवेश करने पर ही सार्थक रूप से फ़लीभूत होते हैं। अन्यथा ये भूत-भैरव (अनिश्चित परिणामदायी) में निवेश होता है।
स्थायी सुख, शान्ति अक्षय धन एवं मोक्ष पदार्थ उपरोक्त घटकों द्वारा ही पूर्ण होता है अतः सार्थक कर्म/ज्ञान ही अभीष्ट वस्तु है।
गुरू बिन माला फ़ेरता, गुरू बिन करता दान।
कहि कबीर निष्फ़ल गये, कहि गये वेद-पुरान॥
शब्दातीत
प्रकाण्ड विद्वान भी ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ज्ञानी भी ब्रह्म-ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी भी आत्मस्थ के सामने शून्य है। पूर्ण आत्मस्थ भी “है” की तुलना में अति क्षीण अंशी है। अतः समष्टि लयीन आत्मा ही सर्वोच्च है। एकोह्म द्वितीयोनास्ति, अनुभव के बाद बहुस्यामि या अनन्त-बोध समष्टि ही “है” में प्रवेश कराता है। यद्यपि यह दुर्लभ है फ़िर भी अन्तिम एवं शाश्वत सत्य है। अतः शब्द के पार के
शब्दातीत को जानना ही अभीष्ट है।
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति।
जानाम्यधर्मम न च मे निवृत्ति।।