31 मार्च 2020

चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्म



अकाल पुरूष
2+2=4 ये मानक, कालक्रम के अंतर्गत स्रष्टि का हेतु है एवं 2+2=7 (य़ा कुछ भी अन्य) जैसा अमानक अकाल-प्रवाही सत्व है। काल, अकाल दोनों से ही परे अनिर्वचनीय आत्मा है। कालक्रम सिर्फ़ सही कर्म से नियन्त्रित होता है। अकाल प्रवाह, ज्ञानयुक्त कर्म एवं ज्ञानयुक्त स्थितियों, साधनों से साध्य और गम्य है।
फ़िर ज्ञान, अज्ञान से भी शून्य आत्मा है, जिससे यह सब कुछ है, हुआ है। लेकिन समष्टि लय या अनन्त लय हेतु इन तीनों को जानना/होना आवश्यक है।
यही परम-पद है।

गुनि अनगुनी अर्थ नहिं आया, बहुतक जने चीन्हि नहिं पाया।
जो चीन्हे ताको निर्मल अंगा, अनचीन्हे नर भये पतंगा।



चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्म 
कीमत, त्याग, परिश्रम एवं परमार्थ, सत्यरूपेण इन चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्मों के बिना, कोई भी लौकिक या मोक्ष पदार्थ, इहलोक अथवा परलोक में भी प्राप्त नहीं होता। लेकिन ये चारो पुरूषार्थ भी किसी ब्रह्म-योगी या शब्द-गुरू द्वारा धर्म-निवेश करने पर ही सार्थक रूप से फ़लीभूत होते हैं। अन्यथा ये भूत-भैरव (अनिश्चित परिणामदायी) में निवेश होता है।
स्थायी सुख, शान्ति अक्षय धन एवं मोक्ष पदार्थ उपरोक्त घटकों द्वारा ही पूर्ण होता है अतः सार्थक कर्म/ज्ञान ही अभीष्ट वस्तु है।

गुरू बिन माला फ़ेरता, गुरू बिन करता दान।
कहि कबीर निष्फ़ल गये, कहि गये वेद-पुरान॥ 


शब्दातीत
प्रकाण्ड विद्वान भी ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ज्ञानी भी ब्रह्म-ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी भी आत्मस्थ के सामने शून्य है। पूर्ण आत्मस्थ भी “है” की तुलना में अति क्षीण अंशी है। अतः समष्टि लयीन आत्मा ही सर्वोच्च है। एकोह्म द्वितीयोनास्ति, अनुभव के बाद बहुस्यामि या अनन्त-बोध समष्टि ही “है” में प्रवेश कराता है। यद्यपि यह दुर्लभ है फ़िर भी अन्तिम एवं शाश्वत सत्य है। अतः शब्द के पार के
शब्दातीत को जानना ही अभीष्ट है। 

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति।
जानाम्यधर्मम न च मे निवृत्ति।।

28 मार्च 2020

आधी शताब्दी तक बुरा हाल रहेगा



ब्रह्म-शूल
ब्रह्म संकल्पित (त्रय-) शूल, ब्रह्म-ज्ञान द्वारा ही निवारण किये जा सकते हैं। ब्रह्म-ज्ञान सिर्फ़ दो हैं - क्रिया योग एवं आयुर्वेद। आत्मबोध (सहज योग) इससे अलग और सर्वोच्च है, पर वह सभी को सुलभ नहीं होता। अतः क्रिया योग या आयुर्वेद अथवा दोनों के योग से कोई भी आपदा नाश की जा सकती है।
क्रिया योग के बिना, अकेला आयुर्वेद समर्थ नहीं होता लेकिन क्रिया योग को आयुर्वेद की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती। जबकि आत्मबोध को क्रिया योग एवं आयुर्वेद की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। एक समर्थ ज्ञानी यथास्थिति, जनमानस पर इनका उपयोग करता है।



“आधी शताब्दी तक बुरा हाल रहेगा।”

ये वो शब्द हैं जो कल अचानक फ़ैली वैश्विक महामारी, आपदा के ऊपर बार-बार विचार केन्द्रित होते रहने से संकेत रूप में आये। आधी शताब्दी यानी 2050 तक। यानी अभी 30 वर्ष और। लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। सूरदास आदि कई सन्तों के भविष्य कथन कि लगभग इसी काल-अवधि में अंश-प्रलय, काल का हाहाकार एवं प्रकृति द्वारा असन्तुलन को दूर कर नवनिर्माण द्वारा, अस्थायी एक हजार वर्ष के ‘सतयुग’ की
स्थापना होगी। आगामी 30 वर्षों के लिये कुछ विवरणात्मक तथ्य और भी आये, पर उनका खुलासा उचित नहीं। इस अवधि में “हरि-ध्यान” ही एकमात्र और सर्वोच्च उपाय है। शेष सामयिक और झूठी तसल्लीबख्श ही है। मैंने 2011-12 में ही लिखा था कि वर्तमान में साधारण पूजा-पाठ, तीर्थ-वृत, देवी-देव काम नहीं आयेंगे। क्योंकि एक तरह से ये अभी सत्ता च्युत ही हैं, और सर्वोच्च सत्ता अधिपति ही सत्ता विराजमान है।



मन का द्वय विभाजन बुद्धि रूप है। फ़िर बुद्धि प्रारब्ध के अनुसार गुण, कर्म के संयोग से तीन प्रकार सुबुद्धि, कुबुद्धि, दुर्बुद्धि के रूप में परिणित होकर कार्य करती है। यह ब्रह्म से सृष्टि उन्मुख चेतना प्रवाह है। मन से फ़ुरित बुद्धि को वापिस ब्रह्म में लगाये रखने या जोङे रखने से यह प्रज्ञा बुद्धि हो जाती है, और तब कर्म-समूह अप्रभावी होकर योगनिष्ठ हो जाता है, और उस जीव का सत्यभक्ति और मोक्ष का मार्ग सुलभ हो जाता है।
इसके लिये सत्व-गुण, आत्म-बोध एवं सक्षम गुरू (या ब्रह्मनिष्ठ योगी) परम आवश्यक है।

टूटी डोरी रस कस बहै, उनमनि लागा अस्थिर रहै।
उनमनि लागा हो‍ई अनंद, टूटी डोरीं बिनसै कंद॥ 

20 मार्च 2020

कोरोना विषाणु



सत्व-गुण की पूर्णता, या वृद्धि, क्षीण दोषों से उत्पन्न सभी घातक विषाणुओं का स्वतः सिद्ध काल है। यह उर्जा की मुख्यधारा से विकेन्द्रित होने के कारण होता है। कुण्डलिनी योग द्वारा “मुख्यधारा” से जुङाव अथवा सहज समाधि का आत्मबोध भाव किसी भी प्रकार के विनाशी रक्तबीजों (विषाणु आदि) का तुरन्त और स्वतः नाश कर देता है।

अर्थात योगी इनसे ऐसे ही अप्रभावित रहता है, जैसे कीचङ में कमल।
हे अविनाशी! सहज योग से पक्के तत्वों को जानो।

इंगला-पिंगला त्रिकुटी, सुखमन सबको धाम।
कहै कबीर निस्वांस रहे, ताको भिन्न मुकाम॥



कर्म-दोष भी जब अधर्म से संक्रमित हो जाये तब असाध्य कष्टों, परेशानियों, रोगों एवं त्रय आपदाओं को बढाने वाला होता है। इहलोक में हताशा, निराशा, दुःखपूर्ण जीवन के बाद परलोक में नर्क आदि विषम भीषण दुःखों का कारक होता है। योग द्वारा सत्वगुण की वृद्धि या समर्थ ब्रह्मयोगी ही कर्म-दोष को मेटने, उपचार करने में सक्षम है। अच्छा या बुरा कर्म क्षीण होने पर ही वास्तविक ज्ञान, भक्ति का उदय होता है, उससे पूर्व नहीं।
कर्म-दोष दूर होते ही इहलोक-परलोक संवरने लगता है।

काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।।



प्रत्येक जीव, जन्म-जन्मान्तरों से, अज्ञानवश लाखों “कर्म-दोष” से पीङित हुआ, इस भव-चक्र में अत्यन्त कष्टपूर्ण दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश है। और बिना सही मार्गदर्शन के निरन्तर पतन की ओर जा रहा है। सत्यगुरू, सत्यज्ञान, सहज समाधि योग, निर्वासना और अकर्ता, अकर्म योग इस दुःखरूप भवचक्र से निकलने का एकमात्र उपाय  है। जो किसी समर्थ योगी के सहयोग द्वारा ही संभव है।

इसलिये जीते जी इस कर्म-दोष व्यूह को तोङना सीखो।

साधु सगा गुरू सगा, अन्त सगा सत-नाम।
कहैं कबीर इस जीव को, तीन ठाम विश्राम॥

मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326