जिस पुरूष को विदेह मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उसका फ़िर कभी न उदय (वृद्धि) होता है और न ह्वास (समाप्त) होता है। वह न तो शान्त ही होता है और न अशान्त ही होता है। वह व्यक्त भी नहीं है अव्यक्त भी नही है। दूरस्थ भी नही है और निकटस्थ भी नही है अर्थात सर्वव्यापी है।
वह आत्मरूप नही है। यह भी नही कह सकते। अर्थात वह आत्मरूप ही है। और आत्मा से भिन्न देह, इन्द्रिय आदि रूप नही है। यह भी नही कह सकते। क्योंकि सर्व-स्वरूप होने से सब कुछ वही है।
जहां नहीं मन मनसा दोई, आसा-तृष्णा लखै न कोई।
पाप-पुन्य तहां एक न होई, निर्भय नाम जपो नर सोई।।
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परमात्मा दूर भी नहीं है, नजदीक भी नही है। सुलभ भी नही है, दुर्लभ भी नही है। और किसी दुर्गम स्थान में स्थित भी नही है। किन्तु विस्मृत सोने के हार कि भांति ज्ञान कौशल से अपने शरीर में ही प्राप्त होता है।
परमात्मा की प्राप्ति में तपस्या, दान, व्रत, तीर्थ आदि कुछ भी सहयोग नहीं करते। केवल स्वरूप में विश्रान्ति को छोङकर, उसकी प्राप्ति में और कुछ भी साधन नही है।
यह गुन साधन से नहि होई।
तुम्हरी कृपा पावे कोई कोई॥
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मन को खुद से अलग करना
ज्ञानी का आतिवाहिक (सूक्ष्म, प्रातिभासिक) शरीर भी नहीं है फ़िर उसका आधिभौतिक (स्थूल, दिखने वाला) शरीर कैसे हो सकता है? ब्रह्मा के आकार को धारण करने वाले, मन नामक मनुष्य का मनोराज्य, यह जगत सत्य रूप सा स्थित है। मन ही ब्रह्मा है। वह संकल्पात्मक अपने शरीर को विपुल बनाकर मन से इस जगत की रचना करता है। ब्रह्मा, मन स्वरूप है और मन, ब्रह्म स्वरूप है। मन में प्रथ्वी आदि नहीं है। मन से प्रथ्वी आदि आत्मा में अध्यस्त है। बीज में वृक्ष के समान ह्रदय के अन्दर सम्पूर्ण द्रश्य पदार्थ विद्यमान हैं।
मन और द्रश्य तथा इन दोनों का द्रष्टा ( साक्षीभूत आत्मा), इन दोनों का विवेक (अलग करना) कभी किसी ने नहीं किया। अतः जब तक उनका विवेक नहीं होगा। तब तक अज्ञान रहने से मन में द्रश्य बना ही रहेगा।
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यथार्थ ज्ञान
पहले आर्यों (श्रेष्ठ व्यक्ति) के संसर्ग से प्राप्त उपदेश, आचरण, शिक्षण और युक्ति द्वारा बुद्धि को बढ़ाना चाहिये। इसके बाद महापुरूष के लक्षणों से अपने में महापुरूषता का सम्पादन करना चाहिये। यदि सम्पूर्ण गुण एक पुरूष में न मिलें तो इस संसार में जो पुरूष, जिस गुण के द्वारा उन्नत प्रतीत होता है, वह उसी गुण के द्वारा दूसरे पुरूषों से विषिष्ट गिना जाता है। अतः उस पुरूष से शीघ्र उस गुण को प्राप्त कर अपनी बुद्धि को बढ़ाना चाहिये।
शम आदि गुणों से परिपूर्ण यह महापुरूषता “यथार्थ ज्ञान के बिना” किसी प्रकार की सिद्धि से प्राप्त नहीं होती।
मानुष-मानुष सबै कहावै। मानुष-बुद्धि कोई बिरला पावै।
मानुष-बुद्धि बिरला संसारा। कोई जाने जाननहारा।।
राह बिचारि क्या करे, जो पंथी न चले सम्हाल।
अपनि मारग छोड़ कर, फिरे उजार-उजार॥