17 मार्च 2021

मन को खुद से अलग करना

 जिस पुरूष को विदेह मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उसका फ़िर कभी न उदय (वृद्धि) होता है और न ह्वास (समाप्त) होता है। वह न तो शान्त ही होता है और न अशान्त ही होता है। वह व्यक्त भी नहीं है अव्यक्त भी नही है। दूरस्थ भी नही है और निकटस्थ भी नही है अर्थात सर्वव्यापी है। 

वह आत्मरूप नही है। यह भी नही कह सकते। अर्थात वह आत्मरूप ही है। और आत्मा से भिन्न देह, इन्द्रिय आदि रूप नही है। यह भी नही कह सकते। क्योंकि सर्व-स्वरूप होने से सब कुछ वही है।  

जहां नहीं मन मनसा दोई, आसा-तृष्णा लखै न कोई।

पाप-पुन्य तहां एक न होई, निर्भय नाम जपो नर सोई।।

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परमात्मा दूर भी नहीं है, नजदीक भी नही है। सुलभ भी नही है, दुर्लभ भी नही है। और किसी दुर्गम स्थान में स्थित भी नही है। किन्तु विस्मृत सोने के हार कि भांति ज्ञान कौशल से अपने शरीर में ही प्राप्त होता है। 

परमात्मा की प्राप्ति में तपस्या, दान, व्रत, तीर्थ आदि कुछ भी सहयोग नहीं करते। केवल स्वरूप में विश्रान्ति को छोङकर, उसकी प्राप्ति में और कुछ भी साधन नही है।

यह गुन साधन से नहि होई।

तुम्हरी कृपा पावे कोई कोई॥

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मन को खुद से अलग करना

ज्ञानी का आतिवाहिक (सूक्ष्म, प्रातिभासिक) शरीर भी नहीं है फ़िर उसका आधिभौतिक (स्थूल, दिखने वाला) शरीर कैसे हो सकता है? ब्रह्मा के आकार को धारण करने वाले, मन नामक मनुष्य का मनोराज्य, यह जगत सत्य रूप सा स्थित है। मन ही ब्रह्मा है। वह संकल्पात्मक अपने शरीर को विपुल बनाकर मन से इस जगत की रचना करता है। ब्रह्मा, मन स्वरूप है और मन, ब्रह्म स्वरूप है। मन में प्रथ्वी आदि नहीं है। मन से प्रथ्वी आदि आत्मा में अध्यस्त है। बीज में वृक्ष के समान ह्रदय के अन्दर सम्पूर्ण द्रश्य पदार्थ विद्यमान हैं।

मन और द्रश्य तथा इन दोनों का द्रष्टा ( साक्षीभूत आत्मा), इन दोनों का विवेक (अलग करना) कभी किसी ने नहीं किया। अतः जब तक उनका विवेक नहीं होगा। तब तक अज्ञान रहने से मन में द्रश्य बना ही रहेगा। 

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यथार्थ ज्ञान 

पहले आर्यों (श्रेष्ठ व्यक्ति) के संसर्ग से प्राप्त उपदेश, आचरण, शिक्षण और युक्ति द्वारा बुद्धि को बढ़ाना चाहिये। इसके बाद महापुरूष के लक्षणों से अपने में महापुरूषता का सम्पादन करना चाहिये। यदि सम्पूर्ण गुण एक पुरूष में न मिलें तो इस संसार में जो पुरूष, जिस गुण के द्वारा उन्नत प्रतीत होता है, वह उसी गुण के द्वारा दूसरे पुरूषों से विषिष्ट गिना जाता है। अतः उस पुरूष से शीघ्र उस गुण को प्राप्त कर अपनी बुद्धि को बढ़ाना चाहिये। 

शम आदि गुणों से परिपूर्ण यह महापुरूषता “यथार्थ ज्ञान के बिना” किसी प्रकार की सिद्धि से प्राप्त नहीं होती।  

मानुष-मानुष सबै कहावै। मानुष-बुद्धि कोई बिरला पावै। 

मानुष-बुद्धि बिरला संसारा। कोई जाने जाननहारा।।

राह बिचारि क्या करे, जो पंथी न चले सम्हाल।

अपनि मारग छोड़ कर, फिरे उजार-उजार॥

मल त्याग महत्वपूर्ण है

 मल त्याग महत्वपूर्ण है।

जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, पेट (आंतों) आदि का मल प्रतिदिन साफ़ करना (डिटाक्सिफ़िकेशन) अति आवश्यक है। (अन्यथा उनसे रोग उत्पन्न होंगे) वैसे ही “मन का मैल” भी

प्रतिदिन किसी योग-क्रिया या समाधि क्रिया से करना अति आवश्यक है। अन्यथा इससे भी पहले “सूक्ष्म के रोग” उत्पन्न होंगे। और बाद में स्थूल रोगों में बदल जायेंगे। जैसे टीबी, अस्थमा, हार्ट अटैक आदि बीमारियाँ।

दूसरे, मल रहित शुद्ध शरीर के बिना, कोई भी योग पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता। सुन्दर, सुविधाजनक घर भी सफ़ाई के अभाव में, कूङे का ढेर बनकर सिर्फ़ परेशानी ही देता है। 

काल हमारे संग हैं, नहीं जीवन का आस।

पल-पल नाम सम्हारिया, जब लग घट में स्वास।।

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प्रगट चार पद धर्म के, कलि में एक प्रधान। 

येन-केन विधि दीन्हे, दान करे कल्याण।।

निश्चय ही अपने द्वारा किये गए शुभ-अशुभ कर्मों का फल, बिना विचार किये, विवश होकर भोगना पड़ता है। परन्तु किसी भी प्रकार से किया गया दान हमेशा सुखदायक व मंगलकारी ही होता है। विभिन्न आवश्यकता की वस्तुओं का जरूरतमन्दों को दान, फूलों के बगीचे लगवाना, देव मन्दिर का निर्माण, सन्यासियों के लिए आश्रम और देवालयों का निर्माण, गौ दान तथा सोना रत्नों के दान करने वाले, मनुष्य सुखपूर्वक यमलोक जाते हैं, और स्वर्ग में नाना प्रकार के भोग प्राप्त करते है।

सुवर्ण, तिल, हाथी, कन्या, दासी, गृह, रथ, मणि तथा कपिला गाय, यह दस महादान माने गए है। तुलादान (अपने वजन बराबर अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं का दान) भी सर्वश्रेष्ठ दानों में आता है। जो मनुष्य न्याय पूर्वक अर्जित किये गए धन से, अपनी शक्ति भर, शास्त्रोक्त विधि-विधान से यह दान करता है। वह यम मार्ग की भयावहता से त्रस्त नहीं होता है और उसे भीषण नरकों को नहीं देखना पड़ता है।

पुरूष प्रकृति सनातन जान। संतत स्वतः स्वभाव समान॥

स्वतः स्वभाव नहीं मिटै मिटाय। संतत जोई सोई प्रगटाय॥

पाँचों तत्वों (प्रकृति) ओर पुरूष (चेतन) का स्वभाव मूल रूप से कभी नहीं मिटता। चेतन ज्ञान युक्त है। आकाश खाली जगह है। शेष चारो तत्वों में गति युक्त है इनमें सिर्फ परिवर्तन होता है। मूल गुण-धर्म कभी नहीं बदलते।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326