24 फ़रवरी 2013

दिल को सही और गलत से कोई वास्ता नहीं - प्रेम कुल्हरी


नमस्ते राजीव अंकल । आदरणीय राजीव जी ! मैं आपके ब्लाग को सितम्बर 2011 से पढ रहाँ हुँ । आज पहली बार आपको रिप्लाई कर रहा हुँ ।एक दिन इन्टरनेट पर सर्च करते करते अनायास ही आपके ब्लाग पर पहुँच गया । आपके बहुत से लेख मुझे बहुत अच्छे लगे । आपकी लिखी कहानियों से मैं बहुत प्रभावित हुआ । और फिर कुछ दिनों बाद आपके ब्लाग पर ओशो के बारे में पढा । गूगल पर ओशो को सर्च किया । और एक बार ओशो से टच हुआ । तो बस ओशो में ही डुब गया । लगा जैसे सब कुछ जो चाहिए था । मिल गया ।
राजीव जी ! मै आपको धन्यवाद देना चाहता हुँ कि आपके जरिये मैं ओशो तक पहुँचा । । इसलिये मैंने आपको ये मेल किया । मुझे ओशो तक पहुँचाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद । कभी कभी आप कहते हैं कि ओशो अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुये । पर यहाँ तो

बात ही अलग है । मैंने आज तक किसी ओशो संगठन या सन्यासी से सम्पर्क नहीं किया । सिर्फ ओशो को पढा । और सुना । केवल ओशो को सुनने से इतना परिवर्तन मुझमें हुआ । जिसकी मैने कल्पना भी नहीं की थी ।
जो लङका हमेशा गुमसुम, उदास और डरा हुआ रहता था । वो अब फुलों कि तरह खिलखिलाने लगा ।
कभी मैं अच्छे समय में भी कमियाँ ढुढ लेता था । आज कठिन समय में भी अच्छाई और खुशी ही नजर आती है ।
पहले मैं भगवान से डरता था । या किसी डर । या इच्छा पूर्ति हेतु भगवान को याद करता था । आज बिना किसी कारण परम पिता और प्रकृति से प्रेम करने लगा हुँ ।
और ये मेरे बाबा ( हनुमान जी ) कितने अच्छे हैं । उन दिनों मैं बाबा से कहता था कि या तो मेरे लिऐ भी गुरू भेज । या तू खुद ही आजा । खुद तो नहीं आये । पर आपके जरिये ओशो से मिला दिया । thankyou so much
अगर ओशो को सुनकर कोई बदल सकता है । तो वो खुद क्या होंगे । कितना विराट अस्तित्व होगा उनका । कितने सौभाग्यशाली होंगे उनके साथी ।
यह बात जरूर है कि ओशो ने अपने जैसा ओशो एक भी नहीं बनाया ।अपना एक अँश भी नहीं ।पर ये ओशो की असफलता तो नहीं ।क्योंकि ओशो केवल लोगों को जागृत होना सिखाते थे । ओशो होना नहीं ।उनके कई शिष्यों ने परम लक्ष्य को प्राप्त किया । पर ओशो जैसा गुरू कोई नहीं बन पाया । ओशो हमेशा कहते थे कि - संबुद्ध होना सर्वज्ञ होना नहीं है ।
राजीव जी ! आपके कई लेख मुझे बहुत अच्छे लगे ।कई लेख अच्छे नहीं भी लगे। आपके अनुसार मैंने कबीर साहेब की " अनुराग सागर " भी पढी । पर उसे मैं समझ नहीं पाया । इतना ही समझ आया कि या तो अनुराग 

सागर कबीर जी ने नहीं लिखी । अगर कबीर जी ने लिखी है । तो इसके बहुत गहरे अर्थ हैं । जो मैं समझ नहीं पाया । । हाँ इतना तो तय है कि सत्य पुरूष । कालपुरूष । महामाया । सृष्टि रचना आदि आदि । ये सब सच नहीं । या तो ये बहुत गहरे प्रतीक हैं । या फिर उस समय के जनमानस को जागृत करने के लिए कबीर जी की एक युक्ति है । खैर.. जो भी मैं इसे नहीं समझ पाया ।
आप जन जागृति का महान कार्य कर रहे हैं । मैं आपका बहुत बहुत आभारी हुँ । इस सँदेश में मैंने जो कुछ भी गलत लिखा । उसके लिये क्षमा चाहता हुँ । क्योंकि ये सब मैने दिमाग से नहीं । दिल से लिखा है । और दिल को सही और गलत से कोई वास्ता नहीं हैं । उसे तो बस अपने आपको खोलकर रख देना होता है ।
आपका - प्रेम कुल्हरी । B.Sc. का एक student

22 फ़रवरी 2013

परिवार से मोह कैसे छूटे

जय जय श्री गुरुदेव । बहुत सारी शंकाओं का समाधान के लिये धन्यवाद । गुरुदेव ! कृपया कर बतायें ।
1 - गुरुदेव मेरी ऐज 23 है । मैं राजनीति के द्वारा देश में सार्थक परिवर्तन करना चाहता हूँ । मेरी महत्वाकांक्षायें अधिक हैं । मैं कौन सी साधना करूँ कि मेरे व्यक्तित्व का विकास हो । और निडरता आ जाये ।
- राजनीति का ताना बाना कूटनीति के धागे से बुना होता है । इसके फ़न्दे सिर्फ़ भृष्टाचार से ही बुने जा सकते हैं । आप पुराने राजतन्त्रों की व्यवस्था आदि का भी अध्ययन करें । तो राजनीति में भृष्टाचार पुरातन काल से ही चला आ रहा है । अतः संक्षेप में राजनीति में कोई व्यक्ति पद आदि भृष्ट नहीं होता । बल्कि तन्त्र ही भृष्ट होता है । किसी भी क्षेत्र में जाने से पहले गुणी लोग उसके इतिहास का अध्ययन करते हैं । तब आप प्राचीन इतिहास के राजतन्त्र को देखें । कोई भी राजा बहुत अधिक सार्थक परिवर्तन ( अकेले ) नहीं कर सका । दरअसल प्रकृति  ( देवी ) की शक्तियाँ जब ऐसा सुधार चाहती हैं । तब वह उचित माध्यम  को स्वयं ही नियुक्त कर देती हैं । हाँ आगे लिखे के अनुसार । आप किसी भी क्षेत्र में उचित परिवर्तन कर सकते हैं ।
तू अजर अनामी वीर भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता । मतलब आत्म ज्ञान या अपने निज स्वरूप को जान लेना । आपको वह सब देता है । जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आपकी समस्त महत्वाकांक्षायें तो मुठ्ठी भर दाने ( आत्मा ज्ञान में होने वाली प्राप्ति की तुलना ) से अधिक नहीं होंगी ।
2 - परिवार से मोह कैसे छूटे । 
- ज्ञान के द्वारा । कैसा भी मोह वास्तविक ज्ञान होते ही छूट जाता है । परिवार से मोह या ( समस्त से ) मोह का

क्षय हो जाना ही मोक्ष है । प्रचलित भृमित सन्यास  के आधार पर मोह छूटने का अर्थ अक्सर लोग अज्ञानता वश परिवार कर्तव्य आदि को त्याग देना लगा लेते हैं । जो कि पूर्णतयाः मूर्खतापूर्ण है । दरअसल आपका वर्तमान परिवार आपके पिछले संस्कारी लेन देनों पर आधारित है । जो भी अच्छा बुरा ऊँच नीच धनी निर्धनता युक्त व्यवहार आप कर रहे हैं । या आपके  साथ हो रहा है । उसके कारण में पूर्व जन्मों के संचित संस्कार ( द्वारा बना कर्म फ़ल ) है । जैसे ही ये लेन देन समाप्त हो जायेगा । आपका जीव समाप्त ( मृत्यु ) होकर आगे की यात्रा पर नये सम्बन्धों को चल देगा । अब यहीं पर खास ध्यान रखना है । जो अच्छा बुरा इस जन्म में लेकर आये । वो पूर्व जन्म का संचित था । और यहाँ से जो लेकर जा  रहे हैं । वो आगे के जन्मों के लिये है । तब प्रमुख सवाल ये है कि आप अपने ( साथ होने वाले ) अच्छे बुरे के जिम्मेदार स्वयं हैं । फ़िर आपने अपने लिये क्या किया ? या आगे के लिये क्या कमाई की ? दुनियाँ में 2 दिन का मेला जुङा । हँस जब भी उङा तब अकेला उङा । जैसे आप किसी दुकान में नौकरी या कोई अन्य नौकरी करते हैं । तो आपको अपने कर्तव्य और अपनी तनखाह से ही मतलब होता है । मालिक के नफ़ा नुकसान आदि का आप पर भावनात्मक प्रभाव नहीं होता । इस मामले में आप भावना शून्य रहते हैं । इसी प्रकार ये सांसारिक परिवार आपका जीवन व्यापार ही है । इसमें आपका ( किसी का ) महत्व तभी तक है । जब तक आप किसी भी प्रकार से उपयोगी हैं । बेकार होते ही आपका महत्व कबाङ सामान से अधिक नहीं होगा । इस सत्य का बोध होते ही परिवार से अन्धा मोह छूटने लगता है । दूसरे आपने 

अनेकानेक योनियों में अनगिनत परिवारों को पूर्व जन्मों में अपनाया है । और फ़िर वे ( मृत्यु आने पर ) छूट गये हैं । तब सवाल है कि - आपका स्वयं का अस्तित्व क्या है ? पहचान क्या है ? स्थायित्व कैसे प्राप्त हो ? ये जन्म मरण की परवशता कैसे समाप्त हो ? आदि ऐसे सवाल आपको बैचेन करने लगते हैं । तब आपको प्रभु की याद आती है । फ़िर उनकी ही कृपा से आपका किसी गुरु सतगुरु से मिलन होता है । और अंतर ज्ञान जागृत होते ही ये झूठा मोह अन्दर से ही छूट जाता है । अन्त में प्रमुख बात ये है कि  इस ज्ञान के बाद कोई भी भक्त या साधक और
भी कुशलता से परिवार के कर्तव्य निभाता हुआ उन्हें अकल्पनीय ऊँचाई दिला सकता है ।
3 - परमात्मा से प्राप्ति का तरीका बतायें । और ये बतायें कि परमात्मा से प्राप्ति के बाद व्यक्ति के लक्षण कैसे होते है । 
- 1 सच्चा सदगुरु ( ध्यान रहे । गुरु नहीं ) 2 निर्वाणी अजपा मंत्र ( ध्यान रहे । कोई अ क जैसा 1 अक्षर भी जीभ या वाणी से जपा जाता है । तो वह काल और काल सीमा का ही मंत्र है । परमात्मा प्राप्ति का मंत्र नहीं । ) और केवल 3 सुरति शब्द योग ही वो तरीका है । जो परमात्मा से मिला सकता है । 4 विहंगम मार्ग का गुरु ही इस कार्य में समर्थ होता है । और 5 भृंग गुरु ( शब्द  ध्वनि से जीवात्मा का परमात्मा में प्रवेश कराने वाले ) सर्वश्रेष्ठ होता है । मेरा चैलेंज है । इसके अलावा जो परमात्म साक्षात्कार का तरीका या मार्ग या मंत्र बताते हैं । वो न. 1 झूठे हैं । यही नहीं । बाइबल । कुरआन । गुरु गृंथ  साहिब । गीता ।  रामायण । वेदान्त आदि सभी प्रमुख गृन्थ यही बात कह रहे हैं । जो मैं कह रहा हूँ ।
पहचान - गुरु स्वांसों में निरंतर होता निर्वाणी मंत्र ( सोहं ) दीक्षा के समय जागृत करते हैं । इसी समय  3rd eye

खुल जाती है । दिव्य ( चमकीला सफ़ेद ) प्रकाश चक्र या सूर्य आदि जैसे गोले के रूप में बन्द आँखों के पीछे  दिखाई देता है । इसके बाद कृमशः अभ्यास द्वारा अन्य अलौकिक दृ्श्य अनुभव यात्रायें आदि से गुजरना होता है ।
लक्षण - जैसे कोई निरक्षर अनपढ व्यक्ति पूर्ण शिक्षित हो जाये । जैसे कोई नितांत गरीब धन कुबेर हो  जाये । तब उनमें जो  बदलाव ( विभिन्न क्षेत्रों में ) होता है । वही बदलाव  इस तरह जीवात्मा  से परमात्म ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति में हो जाता है । पर जिस तरह एक निम्न बुद्धि का व्यक्ति अति उच्च मेधावी व्यक्ति की मानसिकता का स्तर आदि नहीं समझ सकता । उसी तरह परमात्म ज्ञान से सम्पन्न साधु को समझना कठिन ही नहीं । लगभग असम्भव है । जबकि उस बारे में हम काफ़ी कुछ खुद न जानते हों । सन्तन की महिमा रघुराई । बहु विधि वेद पुराणन गाई ।
4 - क्या श्रीकृष्ण और श्रीरामजी को परमात्मा से प्राप्ति हो गई थी ? 
- नहीं हुयी थी । दशरथ पुत्र राम हँस योगी थे । खास बात ये है कि इनका अवतार हुआ था । अतः सत्ता की अन्य शक्तियों का इनको सहयोग प्राप्त था । हँस योगी भगवान के समकक्ष या ( पद मिलने पर ) भगवान ही होता है । 

श्रीकृष्ण परमहँस योगी थे । और ये पूर्ण योगेश्वर थे । गीता आदि में जो इन्होंने खुद को परमात्मा कहा ।  वह आत्मदेव का आवेश था । यानी शक्ति ( और ज्ञान ) प्रकट हुआ था ।
5 - यदि मैं अवतार हूँ । तो इसका पता मुझे कैसे चलेगा । मुझ कैसा महसूस होगा ? 
- वैसे यह अजीव सा प्रश्न है ।  फ़िर भी विभिन्न अवतार प्रभु सत्ता द्वारा ( किसी नौकरी की भांति ) नियुक्त होकर आते हैं । उन्हें बहुत सी अलौकिक शक्तियाँ अधिकार और कार्य भी पूर्व में ही बताकर भेजा जाता है ।
6 - जैसा आपने बताया । तब ऐसे साधु के मिजाज में अनोखी फ़क्कङता आ जाती है । फ़क्कङ । जिस पर कोई भी ( सृष्टि का ) नियम लागू नहीं होता । ...मुझे भी ऐसा महसूस होता है । क्या मतलब है इसका ? 
- अज्ञानता के भृम  से आपको ऐसा महसूस होता है । एक स्थिति वास्तव में ऐसा होना । और एक स्थिति ऐसा भृम लगने लगना भी होती है । दैहिक दैविक भौतिक ताप भी आपके आगे हाथ जोङकर खङे हो जायें । अलौकिक महाशक्तियाँ भी आपको प्रणाम करें । अक्खङता निडरता मौज आदि फ़क्खङी गुण आपके स्वभाव में स्वतः स्फ़ूर्त हों । जीवन मृत्यु जिसके लिये खेल हों । तब उसको असली फ़क्खङता कहते हैं ।
7 - विवेकानन्द जी किस दर्जे के साधक थे ? 
- रामकृष्ण परमहँस के योग्य शिष्य विवेकानन्द बिरला साधकों की श्रेणी में आते हैं । रामकृष्ण से मिलने ( ज्ञान लेने के बाद ) के बाद कुछ ही दिनों में इनकी ( चेतन ) समाधि शुरू हो गयी । लेकिन ये प्रचार के निमित्त थे । सो रामकृष्ण ने इनकी समाधि रोक दी । गुरु आज्ञा से ये देश विदेश में प्रचार करने लगे । जीवन के अन्तिम कुछ ही दिनों में गुरु ने फ़िर इन्हें समाधि दी । परमात्मा से साक्षात्कार कराया । इन्होंने जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष पूर्ण रूपेण प्राप्त किया था । विवेकानन्द ने 40 वर्ष की आयु में ( ज्ञान की ) पूर्णता को प्राप्त कर शरीर छोङ दिया था । रैदास की शिष्या मीराबाई ने भी परम लक्ष्य को प्राप्त किया था ।
8 - सृष्टि का निर्माण किसने किया ? क्या सृष्टि में परमात्मा का इंटरफेयर है । 
- सृष्टि का निर्माण अलग अलग स्तरों पर कई छोटी बङी शक्तियों द्वारा किया गया है । पर सर्वप्रथम मूल रूप में सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा ही हुआ । जैसे 1 से अनेक होने की इच्छा उत्पन्न होते ही उसने वनचर जलचर नभचर आदि कई तरह के जीवों की सृष्टि की । पर सन्तुष्ट नहीं हुआ । तब सबसे अन्त में  उसने मनुष्य शरीर बनाया । और सन्तुष्ट होकर सभी रहस्य इसी रचना के अन्दर समाविष्ट कर दिये । इस तरह ये सृष्टि बीज रूप में तैयार हो गयी । फ़िर कारण आदि कुछ अन्य नियमों तरीकों से परमात्म संविधान के अनुसार संबन्धित पदाधिकारी उन्हीं बीजों का आश्रय लेकर सृष्टि करने लगे । दरअसल ये बङी दुविधा की स्थिति हो जाती है । जब हम अद्वैत ( परमात्मा ) की बात करते हैं । वास्तव में सब कुछ परमात्मा ( से ) ही है । ये समस्त दृश्य अदृश्य जगत उसी से है । परमात्मा और उसकी मूल प्रकृति से ये सभी खेल हो रहा है । इसमें परमात्मा निर्लेप है । और ( जङ ) प्रकृति उसकी चेतना से निरन्तर सृजन आदि क्रियायें कर रही है । मुख्य रूप से परमात्मा और ( उसी की ) प्रकृति ये 2 ही है । इससे भी ऊपर सिर्फ़ परमात्मा ही है । परमात्मा से प्रकृति का प्रकट होना ही सृष्टि  है । और प्रकृति का उसमें लय हो जाना ही प्रलय है । लेकिन विशेष ध्यान रहे । सृष्टि ( चलती ) रहने के समय भी परमात्मा ज्यों का त्यों एकदम निर्लेप्ति रहता है । यही सबसे महान विशेषता और महान रहस्य है ।

9 - जैसा कि आपने बताया कि प्रथ्वी शेषनाग के ऊपर रखी हुई है । परन्तु अन्तरिक्ष यात्रा से तो ऐसा नहीं लगता । शेषनाग दिखाई नहीं देते । प्रथ्वी स्वतंत्र भृमण करती है । 
- अंतर में गये सन्तों योगियों के मुताबिक प्रथ्वी शेषनाग ( के फ़णों ) और कच्छप यानी कछुआ ( की पीठ ) पर टिकी हुयी है । ये सामान्य जीव जन्तु नहीं । बल्कि दैवीय शक्तियाँ है । ध्यान रहे । ये सम्पूर्ण सृष्टि जल में है । लेकिन यह सब सूक्ष्म जगत और उससे भी पहले प्रकृति में हो रहा है । मैं एक जीता जागता उदाहरण देता हूँ । आपको सिनेमा के परदे प्पर अभिनेता ( स्थूल जगत ) आदि स्पष्ट दिखाई देते हैं । लेकिन प्रोजेक्टर रूम से आते फ़ोकस ( सूक्ष्म जगत या प्रकृति ) में तो सिर्फ़ रंगीन कोहरा सा ही दिखाई देता है । जबकि वे आकृतियाँ उसी से तो बन रही हैं । मतलब आप कह सकते हैं । हम कैसे मानें कि इसी फ़ोकस से चित्र बन रहे हैं । क्योंकि फ़ोकस में तो कोई चित्र दिख नहीं रहा । एक और उदाहरण देखें । आपके TV में केबल ( अंतर चेतना और उसके मार्ग ) के जरिये अनेक चित्र ध्वनियाँ आ रही है । और वे TV बन्द होने के समय भी आती रहती हैं । फ़िर TV के ON ( 3rd eye का खुलना ) करने के बाद चैनल सैट करते ही क्यों दिखाई देने लगती है । इसका कारण है । दिखने के लिये आवश्यक तकनीक या उपकरण का होना । आप अलौकिक शब्द पर ध्यान दें । तो स्पष्ट हो जायेगा । ( सामान्य ) मनुष्य और 84 लाख योनियों के जीव लौकिक श्रेणी में और स्थूल जगत के जीव होते हैं । इनको देखने के लिये शरीर की आँखें होती हैं । लेकिन शरीर के अंतर में देखने के लिये दोनों भौंहों के मध्य जो तीसरा नेत्र 3rd eye है । उसी से देखा जा सकता है । जैसे आप शरीर के अन्दर की सरंचना आदि इन आँखों से नहीं देख पाते । पर एक्स रे या Magnetic Resonance Imaging ( MRI ) से आराम से देख लेते हैं । इसी वजह से अलौकिक संसार के ये दिव्य शरीरी या स्थितियाँ हमें नजर नहीं आते ।
10 - ये शिवलोक विष्णुलोक और बृह्मलोक कहाँ हैं । इसी प्रथ्वी पर हैं । या कहीं और ? 
- यथा पिण्डे तत बृह्माण्डे । यानी जो बृह्माण्ड में है । वह सब कुछ आपके शरीर में है । मतलब सृष्टि जो विराट माडल के रूप में है । उसका आकार ठीक मनुष्य जैसा ही है । शायद शिवलोक से आपका तात्पर्य शंकर लोक से है । तो ये शंकर लोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में ह्रदय है । विष्णुलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में नाभि है । बृह्मलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ मनुष्य शरीर में लिंग या स्त्री योनि होती है । प्रथ्वी पर प्रतीक रूप में इनके स्थान होते हैं । जैसे विभिन्न देशों के दूसरे देशों में दूतावास होते हैं । प्रथ्वी पिण्ड रूप में ( स्थूल आकृति के रूप में ) जैसी आप देखते हैं । तत्व रूप में किसी ( योगी आदि को ही ) चमकीले छोटे तारे जैसी दिखाई देती हैं । देवी रूप में यह ( योगी आदि को ही दिखाई देती है )  सुन्दर स्त्री रूप भी है । अन्य रूप में यह गाय का रूप भी रखती है । जैसे कि धर्म वैल ( वृषभ ) रूप और मनुष्याकृति दोनों दिखाई देता है ।

09 फ़रवरी 2013

राम कृष्ण और परमात्मा में अंतर क्या है ?


जय जय श्री गुरुदेव । बहुत सारी शंकाओं का समाधान के लिये धन्यवाद । गुरुदेव ! कृपया कर बतायें । 
देव । गन्धर्व । काल पुरुष । विष्णुजी । शंकरजी । रामजी । कृष्णजी । और परमात्मा में अंतर क्या है ? एवं कृष्णजी और रामजी की कलाओं से तात्पर्य क्या है ? समझाईये । Mukesh Sharma " क्या राम और कृष्ण ने भी गुरु दीक्षा ली थी " पर एक टिप्पणी ।
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स्वांत सुखाय - और लोगों ( सन्तों ) की मैं नहीं जानता । पर खुद मेरा अनुभव है कि सरकारी ( सत्ता से जुङना ) हो जाने पर इंसान ( जीवात्मा ) के निज स्वभाव में एक बेफ़िक्री । काम से उदासीनता और सन्तत्व के कुछ आवश्यक गुणों का लोप होकर एक लापरवाही सी आ जाती है । क्यों ? अब उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं रहा । अपनी अमरता और निरन्तरता को लेकर एक विशेष प्रकार की निश्चिन्तता उसके अन्दर आ गयी । मानस में लिखा है - प्रभुता पाय किन्हें मद नाहीं । स्पष्टवादिता का समर्थक होने के कारण मैं इस बात को खुले तौर पर ही स्वीकार करता हूँ । अतः कहीं न कहीं मैं भी इस स्वाभाविक स्वतः स्फ़ूर्त मद से अछूता नहीं हूँ । पर यह दुर्गुण अकेला

मुझमें ही हुआ हो । ऐसा नहीं है । कबीर को देखिये - हम न मरिहें मरिहे संसारा । हमको मिला जियावन हारा । राम मरे तो हम हू मरिहें । लेकिन क्योंकि अन्दर सन्तत्व ( योग क्रियाओं द्वारा ) जागृत हो चुका होता है । अतः यह मद ( कृतिम । बनाबटी और ) अस्थायी ही होता है । तब ऐसे साधु के मिजाज में अनोखी फ़क्कङता आ जाती है । फ़क्कङ । जिस पर कोई भी ( सृष्टि का ) नियम लागू नहीं होता ।
अतः मैं भी कभी कभी बीच बीच में ऐसे अनुभव से गुजरता हूँ । या कहना चाहिये । स्थिति के अनुसार उसका प्रभाव कहीं न कहीं महसूस होता ही है । जैसे गर्म मौसम से गर्मी महसूस होना आदि स्वतः है । आप अपनी इच्छा से उसको ऐसा नहीं कर रहे है ।
खैर.चलिये । इस विषय पर फ़िर कभी बात करते हैं । अभी मुकेश जी की जिज्ञासाओं पर चर्चा करें ।
जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ । आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । आदि सृष्टि से भी पूर्व जो सार तत्व था । और जो शाश्वत था । अविनाशी है । और जिससे ही यह सम्पूर्ण सृष्टि हुयी । उसी को खोजियों ने आत्मा कहा । यानी वो स्थिति ( वास्तव में तो इसको स्थिति कहना भी गलत है । क्योंकि यहाँ कोई स्थिति या उपाधि है ही नहीं । ये जो है । सो है । और बस है । इसलिये बस समझाने के लिये स्थिति शब्द का प्रयोग किया है ) जहाँ कल्पित सृष्टि और प्रकृति का भी इसी सारतत्व में लय हो जाता है । कुछ भी नहीं बचा । सिवाय शाश्वत के । लेकिन जब सृष्टि हो गयी । तब सृष्टि से भी पार या पूर्ण परे ( ध्यान रहे । विराट से भी परे । क्योंकि विराट ( मनुष्याकार ) भी सृष्टि के अन्तर्गत ही है । ) इसी आत्मा को " परमात्मा " भी कहा गया है । जीव से आत्मा तक का सफ़र परमात्मा कहलाता है । अब समझिये । आत्मा शाश्वत है । और चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही है । इसके अलावा सबसे बङी और महत्वपूर्ण शक्ति प्रकृति ( चेतन के बिना ) एकदम जङ है । तो आत्मा तो जो है । सो है ही । प्रमुख बात है । इसकी चेतना । ऊर्जा । गतिशीलता । अब जो भी नाम या उपाधियाँ आपने लिखी । वह अलग अलग स्तर के चेतन पुरुष की उपाधियाँ जातियाँ या प्रकार हैं । विष्णु सत्व गुण का प्रतिनिधि पुरुष है । सीधी सी बात है । इसकी एक निश्चित आयु है । अधिकार है । तय ऐश्वर्य हैं । इस ( विष्णु ) स्थिति को प्राप्त होने वाले तपस्वी जीवात्मा को यह सब प्राप्त होता है । शास्त्रों में 4 प्रकार की जिस मुक्ति ( ध्यान रहे । मोक्ष या मुक्त नहीं ) का विधान है । उसमें इस स्थिति को स्पष्ट लिखा है । अब सत्व गुण 3 गुणों में से मात्र 1 है । अतः विष्णु की स्थिति स्वतः समझ में आती है । रामचरित मानस में लिखा है - कहिय तात सो परम वैरागी । तृण सम सिद्ध तीन गुन त्यागी । यानी तीनों गुणों को त्यागने वाला साधु सिर्फ़ वैरागी स्तर का होता है । लेकिन सृष्टि में सत्व गुण को प्रधानता दी गयी है । यह एक तरह से चेतन की  गुणयुक्त रूपांतरित ऊर्जा है । और सृष्टि में प्रमुख भूमिका निभाती है । अतः विष्णु ( पद ) या सत गुण का महत्व आपको तमाम धार्मिक पुस्तकों में भरपूर मिलेगा । और यह सत्य भी है । तुच्छ जीवात्मा में यदि किसी प्रकार से भरपूर सतोगुणी वृद्धि हो जाये । तो वह अतिरिक्त ऊर्जावान और दिव्यता से युक्त होने लगता है । यह था विष्णु स्थिति को समझाने का प्रयास ।
 यही वात शंकर पर लागू होती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है । यह देवता तमोगुणी है । इसकी पूजा राक्षसी वृतियों को बङावा देती है । इसके पूजक अन्त में भयंकर कुरूप भूत प्रेत वैताल आदि गण ही बनते हैं । तमोगुण के विकारों से सभी परिचित ही हैं । हिन्दू आदि जनमानस में थोङा भृम इसलिये है कि शिव ( महान और कल्याणकारी शक्ति ) और शंकर को अज्ञानता से 1 ही कह दिया गया है । जिस तरह से कई स्थानों पर विष्णु शंकर कृष्ण आदि उपाधियों को अज्ञानता से परमात्मा कहा गया है । जबकि परमात्मा से इनका दूर दूर तक वास्ता नहीं है ।
राम या ररंकार का तात्विक अर्थ समग्र में व्याप्त चेतना से है । जिसको रमना रमण या रमता आदि भी कहते हैं । यहाँ आपका आशय दशरथ पुत्र राम से है । यह 12 कलाओं का मर्यादा युक्त आदर्श पुरुष का साकार होना है । 1 दोहा है - जग में 4 राम है 3 सकल व्यवहार । चौथा राम निज सार है उसका करो विचार । तो कौन कौन से हैं ये 4 राम ? 1 राम दशरथ का बेटा । 1 राम घट घट में पैठा । 1 राम का सकल पसारा । 1 राम तिन हू से न्यारा । यह अन्तिम राम ही सभी जीव मात्र का लक्ष्य है । सिर्फ़ आत्मा में ही चेतन गुण है । और ये चेतना विभिन्न जीवों के स्तर पर नियन्त्रित है । जैसे  चींटी और हाथी की चेतना में काफ़ी फ़र्क है । 1 पौधा रूपी वृक्ष और 1 विशालकाय वृक्ष की चेतना % में बहुत फ़र्क है । इसलिये ये राम चेतना जीव की जरूरत के अनुसार अन्य अंगों से नियन्त्रित है । र या ररंकार ( ध्वनि रूपी मंत्र जो मष्तिष्क में सदगुरु द्वारा प्रकट होता है । ) आत्मा की चेतना को सृष्टि की ऊर्जा पूर्ति हेतु जीव चेतना में रूपांतरित करता है । र अक्षर में जुङा म अक्षर माया का आवरण है । इसी से चेतन का सहयोग लेकर माया अज्ञान ( स्वपनवत ) सृष्टि का सृजन करती है । यही सूक्ष्मता का आंतरिकता में होने वाला खेल है । शास्त्रों में इसी को कहा है कि प्रकृति ( माया ) पुरुष ( चेतन ) के साथ निरन्तर क्रीङारत है । लेकिन आपकी जिज्ञासानुसार दशरथ पुत्र राम मर्यादा पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह हँस स्तर के योगी है । ये पदवी भगवान के समकक्ष है । क्योंकि ये अवतार थे । अतः बहुत सी छोटी बङी शक्तियाँ अवतारों का सहयोग  सत्ता के आदेशानुसार करती हैं ।
श्रीकृष्ण को तात्विक रूप में कम शब्दों में समझाना असंभव है । श्रीकृष्ण का तात्विक अर्थ आकर्षण खिंचाव या चुम्बकत्व से है । चुम्बकत्व को समझना बहुत कठिन नहीं । कोई भी आकर्षण । जो बिना डोरी बंधन के हमें  दूसरे की तरफ़ खींचता है । बाँध देता है । यह सृष्टि में फ़ैला आकर्षण ही है । ये मर्यादा रहित है । और सर्वत्र है । हालांकि चेतना भी सर्वव्यापी है । पर चेतना और कृष्णत्व में समानता सी होते हुये भी कुछ बारीक से अन्तर है । इसको 1 छोटे से उदाहरण से समझें । 1 वृक्ष में समाहित चेतना मर्यादा में । 1 निश्चित मात्रा में । और नियन्त्रित भी है । जबकि वृक्ष से जुङे तमाम आकर्षण ( बाह्य मगर अदृश्य तरंगे ) । वायुमण्डल से जुङी क्रियायें । अन्य व्यवहार अमर्यादित है । वे बहुत कम या बहुत ज्यादा भी हो सकते हैं । कोई कोई वृक्ष 1 गाँव को बङे स्तर पर अदृश्य रूप से लाभ या हानि कर रहा हो  सकता है । इसलिये space में फ़ैले आकर्षण को सूक्ष्मता से बैज्ञानिक चिन्तन द्वारा ही समझा जा सकता है । इसका सजीव उदाहरण ( श्रीकृष्ण की बाँसुरी ) स्वामी विवेकानन्द ने अपने विदेश प्रचार के समय दिया था । गुरुत्व सबसे सर्वोच्च स्थिति है । गुरुत्व का स्वामी ही परमात्मा है । या यूँ कहिये । गुरुत्व परमात्मा से ही है । और ये बहुत ही अलग और विशेष बात है ।
काल पुरुष - सतपुरुष ( द्वारा चौथे या प्रथम लोक ( सचखण्ड ) की सृष्टि के समय ) के पाँचवें शब्द से उत्पन्न कालपुरुष ही इस त्रिलोकी सत्ता ( सृष्टि ) का मालिक होता है । देवी महामाया या अष्टांगी या बृह्मा विष्णु शंकर की माँ इसकी पत्नी है । यही सृष्टि की पहली औरत है ।  त्रिलोकी सृष्टि कर्म प्रधान है । इसमें वास्तविक मोक्ष है ही नहीं । काल ( पुरुष ) और माया द्वारा फ़ैलाये गये जाल में जीव लालच वासना मोह आदि के पाश से बँधा हुआ है । काल पुरुष  की तात्विक ( आंतरिक ) योग स्थिति अक्षर या ज्योति या निरंजन है ।
परमात्मा - इन सभी । और भी सभी स्थितियों से परे । स्थिति और उपाधि से रहित निरुपाधि है । सरलता से कहें । तो ऊपर आये नामों ( पद ) में कोई परमात्मा नहीं है । परमात्मा को जानना ही सच्चे अर्थों में मोक्ष को प्राप्त होना है ।
देव गँधर्व अत्यन्त तुच्छ स्तर की देव योनियाँ है । और जहाँ तक राम कृष्ण की कलाओं की बात है । उसमें खास बात यही है । राम का स्तर मर्यादा में था । जैसे एक नहर मर्यादा में बहती है । और कृष्ण का स्तर विराट था । जैसे समुद्र । राम हँस तक का ज्ञान रखते थे । और श्रीकृष्ण परमहँस तक का ज्ञान । लेकिन बात इससे भी बहुत आगे तक होती है । सच कहा जाय । तो परमात्म ज्ञान की बात श्रीकृष्ण की हद समाप्त होने के बाद ही शुरू होती है ।
आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । साहेब ।

मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326