जय जय श्री गुरुदेव । बहुत सारी शंकाओं का समाधान के लिये धन्यवाद । गुरुदेव ! कृपया कर बतायें ।
1 - गुरुदेव मेरी ऐज 23 है । मैं राजनीति के द्वारा देश में सार्थक परिवर्तन करना चाहता हूँ । मेरी महत्वाकांक्षायें अधिक हैं । मैं कौन सी साधना करूँ कि मेरे व्यक्तित्व का विकास हो । और निडरता आ जाये ।
- राजनीति का ताना बाना कूटनीति के धागे से बुना होता है । इसके फ़न्दे सिर्फ़ भृष्टाचार से ही बुने जा सकते हैं । आप पुराने राजतन्त्रों की व्यवस्था आदि का भी अध्ययन करें । तो राजनीति में भृष्टाचार पुरातन काल से ही चला आ रहा है । अतः संक्षेप में राजनीति में कोई व्यक्ति पद आदि भृष्ट नहीं होता । बल्कि तन्त्र ही भृष्ट होता है । किसी भी क्षेत्र में जाने से पहले गुणी लोग उसके इतिहास का अध्ययन करते हैं । तब आप प्राचीन इतिहास के राजतन्त्र को देखें । कोई भी राजा बहुत अधिक सार्थक परिवर्तन ( अकेले ) नहीं कर सका । दरअसल प्रकृति ( देवी ) की शक्तियाँ जब ऐसा सुधार चाहती हैं । तब वह उचित माध्यम को स्वयं ही नियुक्त कर देती हैं । हाँ आगे लिखे के अनुसार । आप किसी भी क्षेत्र में उचित परिवर्तन कर सकते हैं ।
तू अजर अनामी वीर भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता । मतलब आत्म ज्ञान या अपने निज स्वरूप को जान लेना । आपको वह सब देता है । जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आपकी समस्त महत्वाकांक्षायें तो मुठ्ठी भर दाने ( आत्मा ज्ञान में होने वाली प्राप्ति की तुलना ) से अधिक नहीं होंगी ।
2 - परिवार से मोह कैसे छूटे ।
- ज्ञान के द्वारा । कैसा भी मोह वास्तविक ज्ञान होते ही छूट जाता है । परिवार से मोह या ( समस्त से ) मोह का
क्षय हो जाना ही मोक्ष है । प्रचलित भृमित सन्यास के आधार पर मोह छूटने का अर्थ अक्सर लोग अज्ञानता वश परिवार कर्तव्य आदि को त्याग देना लगा लेते हैं । जो कि पूर्णतयाः मूर्खतापूर्ण है । दरअसल आपका वर्तमान परिवार आपके पिछले संस्कारी लेन देनों पर आधारित है । जो भी अच्छा बुरा ऊँच नीच धनी निर्धनता युक्त व्यवहार आप कर रहे हैं । या आपके साथ हो रहा है । उसके कारण में पूर्व जन्मों के संचित संस्कार ( द्वारा बना कर्म फ़ल ) है । जैसे ही ये लेन देन समाप्त हो जायेगा । आपका जीव समाप्त ( मृत्यु ) होकर आगे की यात्रा पर नये सम्बन्धों को चल देगा । अब यहीं पर खास ध्यान रखना है । जो अच्छा बुरा इस जन्म में लेकर आये । वो पूर्व जन्म का संचित था । और यहाँ से जो लेकर जा रहे हैं । वो आगे के जन्मों के लिये है । तब प्रमुख सवाल ये है कि आप अपने ( साथ होने वाले ) अच्छे बुरे के जिम्मेदार स्वयं हैं । फ़िर आपने अपने लिये क्या किया ? या आगे के लिये क्या कमाई की ? दुनियाँ में 2 दिन का मेला जुङा । हँस जब भी उङा तब अकेला उङा । जैसे आप किसी दुकान में नौकरी या कोई अन्य नौकरी करते हैं । तो आपको अपने कर्तव्य और अपनी तनखाह से ही मतलब होता है । मालिक के नफ़ा नुकसान आदि का आप पर भावनात्मक प्रभाव नहीं होता । इस मामले में आप भावना शून्य रहते हैं । इसी प्रकार ये सांसारिक परिवार आपका जीवन व्यापार ही है । इसमें आपका ( किसी का ) महत्व तभी तक है । जब तक आप किसी भी प्रकार से उपयोगी हैं । बेकार होते ही आपका महत्व कबाङ सामान से अधिक नहीं होगा । इस सत्य का बोध होते ही परिवार से अन्धा मोह छूटने लगता है । दूसरे आपने
अनेकानेक योनियों में अनगिनत परिवारों को पूर्व जन्मों में अपनाया है । और फ़िर वे ( मृत्यु आने पर ) छूट गये हैं । तब सवाल है कि - आपका स्वयं का अस्तित्व क्या है ? पहचान क्या है ? स्थायित्व कैसे प्राप्त हो ? ये जन्म मरण की परवशता कैसे समाप्त हो ? आदि ऐसे सवाल आपको बैचेन करने लगते हैं । तब आपको प्रभु की याद आती है । फ़िर उनकी ही कृपा से आपका किसी गुरु सतगुरु से मिलन होता है । और अंतर ज्ञान जागृत होते ही ये झूठा मोह अन्दर से ही छूट जाता है । अन्त में प्रमुख बात ये है कि इस ज्ञान के बाद कोई भी भक्त या साधक और
भी कुशलता से परिवार के कर्तव्य निभाता हुआ उन्हें अकल्पनीय ऊँचाई दिला सकता है ।
3 - परमात्मा से प्राप्ति का तरीका बतायें । और ये बतायें कि परमात्मा से प्राप्ति के बाद व्यक्ति के लक्षण कैसे होते है ।
- 1 सच्चा सदगुरु ( ध्यान रहे । गुरु नहीं ) 2 निर्वाणी अजपा मंत्र ( ध्यान रहे । कोई अ क जैसा 1 अक्षर भी जीभ या वाणी से जपा जाता है । तो वह काल और काल सीमा का ही मंत्र है । परमात्मा प्राप्ति का मंत्र नहीं । ) और केवल 3 सुरति शब्द योग ही वो तरीका है । जो परमात्मा से मिला सकता है । 4 विहंगम मार्ग का गुरु ही इस कार्य में समर्थ होता है । और 5 भृंग गुरु ( शब्द ध्वनि से जीवात्मा का परमात्मा में प्रवेश कराने वाले ) सर्वश्रेष्ठ होता है । मेरा चैलेंज है । इसके अलावा जो परमात्म साक्षात्कार का तरीका या मार्ग या मंत्र बताते हैं । वो न. 1 झूठे हैं । यही नहीं । बाइबल । कुरआन । गुरु गृंथ साहिब । गीता । रामायण । वेदान्त आदि सभी प्रमुख गृन्थ यही बात कह रहे हैं । जो मैं कह रहा हूँ ।
पहचान - गुरु स्वांसों में निरंतर होता निर्वाणी मंत्र ( सोहं ) दीक्षा के समय जागृत करते हैं । इसी समय 3rd eye
खुल जाती है । दिव्य ( चमकीला सफ़ेद ) प्रकाश चक्र या सूर्य आदि जैसे गोले के रूप में बन्द आँखों के पीछे दिखाई देता है । इसके बाद कृमशः अभ्यास द्वारा अन्य अलौकिक दृ्श्य अनुभव यात्रायें आदि से गुजरना होता है ।
लक्षण - जैसे कोई निरक्षर अनपढ व्यक्ति पूर्ण शिक्षित हो जाये । जैसे कोई नितांत गरीब धन कुबेर हो जाये । तब उनमें जो बदलाव ( विभिन्न क्षेत्रों में ) होता है । वही बदलाव इस तरह जीवात्मा से परमात्म ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति में हो जाता है । पर जिस तरह एक निम्न बुद्धि का व्यक्ति अति उच्च मेधावी व्यक्ति की मानसिकता का स्तर आदि नहीं समझ सकता । उसी तरह परमात्म ज्ञान से सम्पन्न साधु को समझना कठिन ही नहीं । लगभग असम्भव है । जबकि उस बारे में हम काफ़ी कुछ खुद न जानते हों । सन्तन की महिमा रघुराई । बहु विधि वेद पुराणन गाई ।
4 - क्या श्रीकृष्ण और श्रीरामजी को परमात्मा से प्राप्ति हो गई थी ?
- नहीं हुयी थी । दशरथ पुत्र राम हँस योगी थे । खास बात ये है कि इनका अवतार हुआ था । अतः सत्ता की अन्य शक्तियों का इनको सहयोग प्राप्त था । हँस योगी भगवान के समकक्ष या ( पद मिलने पर ) भगवान ही होता है ।
श्रीकृष्ण परमहँस योगी थे । और ये पूर्ण योगेश्वर थे । गीता आदि में जो इन्होंने खुद को परमात्मा कहा । वह आत्मदेव का आवेश था । यानी शक्ति ( और ज्ञान ) प्रकट हुआ था ।
5 - यदि मैं अवतार हूँ । तो इसका पता मुझे कैसे चलेगा । मुझ कैसा महसूस होगा ?
- वैसे यह अजीव सा प्रश्न है । फ़िर भी विभिन्न अवतार प्रभु सत्ता द्वारा ( किसी नौकरी की भांति ) नियुक्त होकर आते हैं । उन्हें बहुत सी अलौकिक शक्तियाँ अधिकार और कार्य भी पूर्व में ही बताकर भेजा जाता है ।
6 - जैसा आपने बताया । तब ऐसे साधु के मिजाज में अनोखी फ़क्कङता आ जाती है । फ़क्कङ । जिस पर कोई भी ( सृष्टि का ) नियम लागू नहीं होता । ...मुझे भी ऐसा महसूस होता है । क्या मतलब है इसका ?
- अज्ञानता के भृम से आपको ऐसा महसूस होता है । एक स्थिति वास्तव में ऐसा होना । और एक स्थिति ऐसा भृम लगने लगना भी होती है । दैहिक दैविक भौतिक ताप भी आपके आगे हाथ जोङकर खङे हो जायें । अलौकिक महाशक्तियाँ भी आपको प्रणाम करें । अक्खङता निडरता मौज आदि फ़क्खङी गुण आपके स्वभाव में स्वतः स्फ़ूर्त हों । जीवन मृत्यु जिसके लिये खेल हों । तब उसको असली फ़क्खङता कहते हैं ।
7 - विवेकानन्द जी किस दर्जे के साधक थे ?
- रामकृष्ण परमहँस के योग्य शिष्य विवेकानन्द बिरला साधकों की श्रेणी में आते हैं । रामकृष्ण से मिलने ( ज्ञान लेने के बाद ) के बाद कुछ ही दिनों में इनकी ( चेतन ) समाधि शुरू हो गयी । लेकिन ये प्रचार के निमित्त थे । सो रामकृष्ण ने इनकी समाधि रोक दी । गुरु आज्ञा से ये देश विदेश में प्रचार करने लगे । जीवन के अन्तिम कुछ ही दिनों में गुरु ने फ़िर इन्हें समाधि दी । परमात्मा से साक्षात्कार कराया । इन्होंने जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष पूर्ण रूपेण प्राप्त किया था । विवेकानन्द ने 40 वर्ष की आयु में ( ज्ञान की ) पूर्णता को प्राप्त कर शरीर छोङ दिया था । रैदास की शिष्या मीराबाई ने भी परम लक्ष्य को प्राप्त किया था ।
8 - सृष्टि का निर्माण किसने किया ? क्या सृष्टि में परमात्मा का इंटरफेयर है ।
- सृष्टि का निर्माण अलग अलग स्तरों पर कई छोटी बङी शक्तियों द्वारा किया गया है । पर सर्वप्रथम मूल रूप में सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा ही हुआ । जैसे 1 से अनेक होने की इच्छा उत्पन्न होते ही उसने वनचर जलचर नभचर आदि कई तरह के जीवों की सृष्टि की । पर सन्तुष्ट नहीं हुआ । तब सबसे अन्त में उसने मनुष्य शरीर बनाया । और सन्तुष्ट होकर सभी रहस्य इसी रचना के अन्दर समाविष्ट कर दिये । इस तरह ये सृष्टि बीज रूप में तैयार हो गयी । फ़िर कारण आदि कुछ अन्य नियमों तरीकों से परमात्म संविधान के अनुसार संबन्धित पदाधिकारी उन्हीं बीजों का आश्रय लेकर सृष्टि करने लगे । दरअसल ये बङी दुविधा की स्थिति हो जाती है । जब हम अद्वैत ( परमात्मा ) की बात करते हैं । वास्तव में सब कुछ परमात्मा ( से ) ही है । ये समस्त दृश्य अदृश्य जगत उसी से है । परमात्मा और उसकी मूल प्रकृति से ये सभी खेल हो रहा है । इसमें परमात्मा निर्लेप है । और ( जङ ) प्रकृति उसकी चेतना से निरन्तर सृजन आदि क्रियायें कर रही है । मुख्य रूप से परमात्मा और ( उसी की ) प्रकृति ये 2 ही है । इससे भी ऊपर सिर्फ़ परमात्मा ही है । परमात्मा से प्रकृति का प्रकट होना ही सृष्टि है । और प्रकृति का उसमें लय हो जाना ही प्रलय है । लेकिन विशेष ध्यान रहे । सृष्टि ( चलती ) रहने के समय भी परमात्मा ज्यों का त्यों एकदम निर्लेप्ति रहता है । यही सबसे महान विशेषता और महान रहस्य है ।
9 - जैसा कि आपने बताया कि प्रथ्वी शेषनाग के ऊपर रखी हुई है । परन्तु अन्तरिक्ष यात्रा से तो ऐसा नहीं लगता । शेषनाग दिखाई नहीं देते । प्रथ्वी स्वतंत्र भृमण करती है ।
- अंतर में गये सन्तों योगियों के मुताबिक प्रथ्वी शेषनाग ( के फ़णों ) और कच्छप यानी कछुआ ( की पीठ ) पर टिकी हुयी है । ये सामान्य जीव जन्तु नहीं । बल्कि दैवीय शक्तियाँ है । ध्यान रहे । ये सम्पूर्ण सृष्टि जल में है । लेकिन यह सब सूक्ष्म जगत और उससे भी पहले प्रकृति में हो रहा है । मैं एक जीता जागता उदाहरण देता हूँ । आपको सिनेमा के परदे प्पर अभिनेता ( स्थूल जगत ) आदि स्पष्ट दिखाई देते हैं । लेकिन प्रोजेक्टर रूम से आते फ़ोकस ( सूक्ष्म जगत या प्रकृति ) में तो सिर्फ़ रंगीन कोहरा सा ही दिखाई देता है । जबकि वे आकृतियाँ उसी से तो बन रही हैं । मतलब आप कह सकते हैं । हम कैसे मानें कि इसी फ़ोकस से चित्र बन रहे हैं । क्योंकि फ़ोकस में तो कोई चित्र दिख नहीं रहा । एक और उदाहरण देखें । आपके TV में केबल ( अंतर चेतना और उसके मार्ग ) के जरिये अनेक चित्र ध्वनियाँ आ रही है । और वे TV बन्द होने के समय भी आती रहती हैं । फ़िर TV के ON ( 3rd eye का खुलना ) करने के बाद चैनल सैट करते ही क्यों दिखाई देने लगती है । इसका कारण है । दिखने के लिये आवश्यक तकनीक या उपकरण का होना । आप अलौकिक शब्द पर ध्यान दें । तो स्पष्ट हो जायेगा । ( सामान्य ) मनुष्य और 84 लाख योनियों के जीव लौकिक श्रेणी में और स्थूल जगत के जीव होते हैं । इनको देखने के लिये शरीर की आँखें होती हैं । लेकिन शरीर के अंतर में देखने के लिये दोनों भौंहों के मध्य जो तीसरा नेत्र 3rd eye है । उसी से देखा जा सकता है । जैसे आप शरीर के अन्दर की सरंचना आदि इन आँखों से नहीं देख पाते । पर एक्स रे या Magnetic Resonance Imaging ( MRI ) से आराम से देख लेते हैं । इसी वजह से अलौकिक संसार के ये दिव्य शरीरी या स्थितियाँ हमें नजर नहीं आते ।
10 - ये शिवलोक विष्णुलोक और बृह्मलोक कहाँ हैं । इसी प्रथ्वी पर हैं । या कहीं और ?
- यथा पिण्डे तत बृह्माण्डे । यानी जो बृह्माण्ड में है । वह सब कुछ आपके शरीर में है । मतलब सृष्टि जो विराट माडल के रूप में है । उसका आकार ठीक मनुष्य जैसा ही है । शायद शिवलोक से आपका तात्पर्य शंकर लोक से है । तो ये शंकर लोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में ह्रदय है । विष्णुलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में नाभि है । बृह्मलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ मनुष्य शरीर में लिंग या स्त्री योनि होती है । प्रथ्वी पर प्रतीक रूप में इनके स्थान होते हैं । जैसे विभिन्न देशों के दूसरे देशों में दूतावास होते हैं । प्रथ्वी पिण्ड रूप में ( स्थूल आकृति के रूप में ) जैसी आप देखते हैं । तत्व रूप में किसी ( योगी आदि को ही ) चमकीले छोटे तारे जैसी दिखाई देती हैं । देवी रूप में यह ( योगी आदि को ही दिखाई देती है ) सुन्दर स्त्री रूप भी है । अन्य रूप में यह गाय का रूप भी रखती है । जैसे कि धर्म वैल ( वृषभ ) रूप और मनुष्याकृति दोनों दिखाई देता है ।
1 - गुरुदेव मेरी ऐज 23 है । मैं राजनीति के द्वारा देश में सार्थक परिवर्तन करना चाहता हूँ । मेरी महत्वाकांक्षायें अधिक हैं । मैं कौन सी साधना करूँ कि मेरे व्यक्तित्व का विकास हो । और निडरता आ जाये ।
- राजनीति का ताना बाना कूटनीति के धागे से बुना होता है । इसके फ़न्दे सिर्फ़ भृष्टाचार से ही बुने जा सकते हैं । आप पुराने राजतन्त्रों की व्यवस्था आदि का भी अध्ययन करें । तो राजनीति में भृष्टाचार पुरातन काल से ही चला आ रहा है । अतः संक्षेप में राजनीति में कोई व्यक्ति पद आदि भृष्ट नहीं होता । बल्कि तन्त्र ही भृष्ट होता है । किसी भी क्षेत्र में जाने से पहले गुणी लोग उसके इतिहास का अध्ययन करते हैं । तब आप प्राचीन इतिहास के राजतन्त्र को देखें । कोई भी राजा बहुत अधिक सार्थक परिवर्तन ( अकेले ) नहीं कर सका । दरअसल प्रकृति ( देवी ) की शक्तियाँ जब ऐसा सुधार चाहती हैं । तब वह उचित माध्यम को स्वयं ही नियुक्त कर देती हैं । हाँ आगे लिखे के अनुसार । आप किसी भी क्षेत्र में उचित परिवर्तन कर सकते हैं ।
तू अजर अनामी वीर भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता । मतलब आत्म ज्ञान या अपने निज स्वरूप को जान लेना । आपको वह सब देता है । जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आपकी समस्त महत्वाकांक्षायें तो मुठ्ठी भर दाने ( आत्मा ज्ञान में होने वाली प्राप्ति की तुलना ) से अधिक नहीं होंगी ।
2 - परिवार से मोह कैसे छूटे ।
- ज्ञान के द्वारा । कैसा भी मोह वास्तविक ज्ञान होते ही छूट जाता है । परिवार से मोह या ( समस्त से ) मोह का
क्षय हो जाना ही मोक्ष है । प्रचलित भृमित सन्यास के आधार पर मोह छूटने का अर्थ अक्सर लोग अज्ञानता वश परिवार कर्तव्य आदि को त्याग देना लगा लेते हैं । जो कि पूर्णतयाः मूर्खतापूर्ण है । दरअसल आपका वर्तमान परिवार आपके पिछले संस्कारी लेन देनों पर आधारित है । जो भी अच्छा बुरा ऊँच नीच धनी निर्धनता युक्त व्यवहार आप कर रहे हैं । या आपके साथ हो रहा है । उसके कारण में पूर्व जन्मों के संचित संस्कार ( द्वारा बना कर्म फ़ल ) है । जैसे ही ये लेन देन समाप्त हो जायेगा । आपका जीव समाप्त ( मृत्यु ) होकर आगे की यात्रा पर नये सम्बन्धों को चल देगा । अब यहीं पर खास ध्यान रखना है । जो अच्छा बुरा इस जन्म में लेकर आये । वो पूर्व जन्म का संचित था । और यहाँ से जो लेकर जा रहे हैं । वो आगे के जन्मों के लिये है । तब प्रमुख सवाल ये है कि आप अपने ( साथ होने वाले ) अच्छे बुरे के जिम्मेदार स्वयं हैं । फ़िर आपने अपने लिये क्या किया ? या आगे के लिये क्या कमाई की ? दुनियाँ में 2 दिन का मेला जुङा । हँस जब भी उङा तब अकेला उङा । जैसे आप किसी दुकान में नौकरी या कोई अन्य नौकरी करते हैं । तो आपको अपने कर्तव्य और अपनी तनखाह से ही मतलब होता है । मालिक के नफ़ा नुकसान आदि का आप पर भावनात्मक प्रभाव नहीं होता । इस मामले में आप भावना शून्य रहते हैं । इसी प्रकार ये सांसारिक परिवार आपका जीवन व्यापार ही है । इसमें आपका ( किसी का ) महत्व तभी तक है । जब तक आप किसी भी प्रकार से उपयोगी हैं । बेकार होते ही आपका महत्व कबाङ सामान से अधिक नहीं होगा । इस सत्य का बोध होते ही परिवार से अन्धा मोह छूटने लगता है । दूसरे आपने
अनेकानेक योनियों में अनगिनत परिवारों को पूर्व जन्मों में अपनाया है । और फ़िर वे ( मृत्यु आने पर ) छूट गये हैं । तब सवाल है कि - आपका स्वयं का अस्तित्व क्या है ? पहचान क्या है ? स्थायित्व कैसे प्राप्त हो ? ये जन्म मरण की परवशता कैसे समाप्त हो ? आदि ऐसे सवाल आपको बैचेन करने लगते हैं । तब आपको प्रभु की याद आती है । फ़िर उनकी ही कृपा से आपका किसी गुरु सतगुरु से मिलन होता है । और अंतर ज्ञान जागृत होते ही ये झूठा मोह अन्दर से ही छूट जाता है । अन्त में प्रमुख बात ये है कि इस ज्ञान के बाद कोई भी भक्त या साधक और
भी कुशलता से परिवार के कर्तव्य निभाता हुआ उन्हें अकल्पनीय ऊँचाई दिला सकता है ।
3 - परमात्मा से प्राप्ति का तरीका बतायें । और ये बतायें कि परमात्मा से प्राप्ति के बाद व्यक्ति के लक्षण कैसे होते है ।
- 1 सच्चा सदगुरु ( ध्यान रहे । गुरु नहीं ) 2 निर्वाणी अजपा मंत्र ( ध्यान रहे । कोई अ क जैसा 1 अक्षर भी जीभ या वाणी से जपा जाता है । तो वह काल और काल सीमा का ही मंत्र है । परमात्मा प्राप्ति का मंत्र नहीं । ) और केवल 3 सुरति शब्द योग ही वो तरीका है । जो परमात्मा से मिला सकता है । 4 विहंगम मार्ग का गुरु ही इस कार्य में समर्थ होता है । और 5 भृंग गुरु ( शब्द ध्वनि से जीवात्मा का परमात्मा में प्रवेश कराने वाले ) सर्वश्रेष्ठ होता है । मेरा चैलेंज है । इसके अलावा जो परमात्म साक्षात्कार का तरीका या मार्ग या मंत्र बताते हैं । वो न. 1 झूठे हैं । यही नहीं । बाइबल । कुरआन । गुरु गृंथ साहिब । गीता । रामायण । वेदान्त आदि सभी प्रमुख गृन्थ यही बात कह रहे हैं । जो मैं कह रहा हूँ ।
पहचान - गुरु स्वांसों में निरंतर होता निर्वाणी मंत्र ( सोहं ) दीक्षा के समय जागृत करते हैं । इसी समय 3rd eye
खुल जाती है । दिव्य ( चमकीला सफ़ेद ) प्रकाश चक्र या सूर्य आदि जैसे गोले के रूप में बन्द आँखों के पीछे दिखाई देता है । इसके बाद कृमशः अभ्यास द्वारा अन्य अलौकिक दृ्श्य अनुभव यात्रायें आदि से गुजरना होता है ।
लक्षण - जैसे कोई निरक्षर अनपढ व्यक्ति पूर्ण शिक्षित हो जाये । जैसे कोई नितांत गरीब धन कुबेर हो जाये । तब उनमें जो बदलाव ( विभिन्न क्षेत्रों में ) होता है । वही बदलाव इस तरह जीवात्मा से परमात्म ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति में हो जाता है । पर जिस तरह एक निम्न बुद्धि का व्यक्ति अति उच्च मेधावी व्यक्ति की मानसिकता का स्तर आदि नहीं समझ सकता । उसी तरह परमात्म ज्ञान से सम्पन्न साधु को समझना कठिन ही नहीं । लगभग असम्भव है । जबकि उस बारे में हम काफ़ी कुछ खुद न जानते हों । सन्तन की महिमा रघुराई । बहु विधि वेद पुराणन गाई ।
4 - क्या श्रीकृष्ण और श्रीरामजी को परमात्मा से प्राप्ति हो गई थी ?
- नहीं हुयी थी । दशरथ पुत्र राम हँस योगी थे । खास बात ये है कि इनका अवतार हुआ था । अतः सत्ता की अन्य शक्तियों का इनको सहयोग प्राप्त था । हँस योगी भगवान के समकक्ष या ( पद मिलने पर ) भगवान ही होता है ।
श्रीकृष्ण परमहँस योगी थे । और ये पूर्ण योगेश्वर थे । गीता आदि में जो इन्होंने खुद को परमात्मा कहा । वह आत्मदेव का आवेश था । यानी शक्ति ( और ज्ञान ) प्रकट हुआ था ।
5 - यदि मैं अवतार हूँ । तो इसका पता मुझे कैसे चलेगा । मुझ कैसा महसूस होगा ?
- वैसे यह अजीव सा प्रश्न है । फ़िर भी विभिन्न अवतार प्रभु सत्ता द्वारा ( किसी नौकरी की भांति ) नियुक्त होकर आते हैं । उन्हें बहुत सी अलौकिक शक्तियाँ अधिकार और कार्य भी पूर्व में ही बताकर भेजा जाता है ।
6 - जैसा आपने बताया । तब ऐसे साधु के मिजाज में अनोखी फ़क्कङता आ जाती है । फ़क्कङ । जिस पर कोई भी ( सृष्टि का ) नियम लागू नहीं होता । ...मुझे भी ऐसा महसूस होता है । क्या मतलब है इसका ?
- अज्ञानता के भृम से आपको ऐसा महसूस होता है । एक स्थिति वास्तव में ऐसा होना । और एक स्थिति ऐसा भृम लगने लगना भी होती है । दैहिक दैविक भौतिक ताप भी आपके आगे हाथ जोङकर खङे हो जायें । अलौकिक महाशक्तियाँ भी आपको प्रणाम करें । अक्खङता निडरता मौज आदि फ़क्खङी गुण आपके स्वभाव में स्वतः स्फ़ूर्त हों । जीवन मृत्यु जिसके लिये खेल हों । तब उसको असली फ़क्खङता कहते हैं ।
7 - विवेकानन्द जी किस दर्जे के साधक थे ?
- रामकृष्ण परमहँस के योग्य शिष्य विवेकानन्द बिरला साधकों की श्रेणी में आते हैं । रामकृष्ण से मिलने ( ज्ञान लेने के बाद ) के बाद कुछ ही दिनों में इनकी ( चेतन ) समाधि शुरू हो गयी । लेकिन ये प्रचार के निमित्त थे । सो रामकृष्ण ने इनकी समाधि रोक दी । गुरु आज्ञा से ये देश विदेश में प्रचार करने लगे । जीवन के अन्तिम कुछ ही दिनों में गुरु ने फ़िर इन्हें समाधि दी । परमात्मा से साक्षात्कार कराया । इन्होंने जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष पूर्ण रूपेण प्राप्त किया था । विवेकानन्द ने 40 वर्ष की आयु में ( ज्ञान की ) पूर्णता को प्राप्त कर शरीर छोङ दिया था । रैदास की शिष्या मीराबाई ने भी परम लक्ष्य को प्राप्त किया था ।
8 - सृष्टि का निर्माण किसने किया ? क्या सृष्टि में परमात्मा का इंटरफेयर है ।
- सृष्टि का निर्माण अलग अलग स्तरों पर कई छोटी बङी शक्तियों द्वारा किया गया है । पर सर्वप्रथम मूल रूप में सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा ही हुआ । जैसे 1 से अनेक होने की इच्छा उत्पन्न होते ही उसने वनचर जलचर नभचर आदि कई तरह के जीवों की सृष्टि की । पर सन्तुष्ट नहीं हुआ । तब सबसे अन्त में उसने मनुष्य शरीर बनाया । और सन्तुष्ट होकर सभी रहस्य इसी रचना के अन्दर समाविष्ट कर दिये । इस तरह ये सृष्टि बीज रूप में तैयार हो गयी । फ़िर कारण आदि कुछ अन्य नियमों तरीकों से परमात्म संविधान के अनुसार संबन्धित पदाधिकारी उन्हीं बीजों का आश्रय लेकर सृष्टि करने लगे । दरअसल ये बङी दुविधा की स्थिति हो जाती है । जब हम अद्वैत ( परमात्मा ) की बात करते हैं । वास्तव में सब कुछ परमात्मा ( से ) ही है । ये समस्त दृश्य अदृश्य जगत उसी से है । परमात्मा और उसकी मूल प्रकृति से ये सभी खेल हो रहा है । इसमें परमात्मा निर्लेप है । और ( जङ ) प्रकृति उसकी चेतना से निरन्तर सृजन आदि क्रियायें कर रही है । मुख्य रूप से परमात्मा और ( उसी की ) प्रकृति ये 2 ही है । इससे भी ऊपर सिर्फ़ परमात्मा ही है । परमात्मा से प्रकृति का प्रकट होना ही सृष्टि है । और प्रकृति का उसमें लय हो जाना ही प्रलय है । लेकिन विशेष ध्यान रहे । सृष्टि ( चलती ) रहने के समय भी परमात्मा ज्यों का त्यों एकदम निर्लेप्ति रहता है । यही सबसे महान विशेषता और महान रहस्य है ।
9 - जैसा कि आपने बताया कि प्रथ्वी शेषनाग के ऊपर रखी हुई है । परन्तु अन्तरिक्ष यात्रा से तो ऐसा नहीं लगता । शेषनाग दिखाई नहीं देते । प्रथ्वी स्वतंत्र भृमण करती है ।
- अंतर में गये सन्तों योगियों के मुताबिक प्रथ्वी शेषनाग ( के फ़णों ) और कच्छप यानी कछुआ ( की पीठ ) पर टिकी हुयी है । ये सामान्य जीव जन्तु नहीं । बल्कि दैवीय शक्तियाँ है । ध्यान रहे । ये सम्पूर्ण सृष्टि जल में है । लेकिन यह सब सूक्ष्म जगत और उससे भी पहले प्रकृति में हो रहा है । मैं एक जीता जागता उदाहरण देता हूँ । आपको सिनेमा के परदे प्पर अभिनेता ( स्थूल जगत ) आदि स्पष्ट दिखाई देते हैं । लेकिन प्रोजेक्टर रूम से आते फ़ोकस ( सूक्ष्म जगत या प्रकृति ) में तो सिर्फ़ रंगीन कोहरा सा ही दिखाई देता है । जबकि वे आकृतियाँ उसी से तो बन रही हैं । मतलब आप कह सकते हैं । हम कैसे मानें कि इसी फ़ोकस से चित्र बन रहे हैं । क्योंकि फ़ोकस में तो कोई चित्र दिख नहीं रहा । एक और उदाहरण देखें । आपके TV में केबल ( अंतर चेतना और उसके मार्ग ) के जरिये अनेक चित्र ध्वनियाँ आ रही है । और वे TV बन्द होने के समय भी आती रहती हैं । फ़िर TV के ON ( 3rd eye का खुलना ) करने के बाद चैनल सैट करते ही क्यों दिखाई देने लगती है । इसका कारण है । दिखने के लिये आवश्यक तकनीक या उपकरण का होना । आप अलौकिक शब्द पर ध्यान दें । तो स्पष्ट हो जायेगा । ( सामान्य ) मनुष्य और 84 लाख योनियों के जीव लौकिक श्रेणी में और स्थूल जगत के जीव होते हैं । इनको देखने के लिये शरीर की आँखें होती हैं । लेकिन शरीर के अंतर में देखने के लिये दोनों भौंहों के मध्य जो तीसरा नेत्र 3rd eye है । उसी से देखा जा सकता है । जैसे आप शरीर के अन्दर की सरंचना आदि इन आँखों से नहीं देख पाते । पर एक्स रे या Magnetic Resonance Imaging ( MRI ) से आराम से देख लेते हैं । इसी वजह से अलौकिक संसार के ये दिव्य शरीरी या स्थितियाँ हमें नजर नहीं आते ।
10 - ये शिवलोक विष्णुलोक और बृह्मलोक कहाँ हैं । इसी प्रथ्वी पर हैं । या कहीं और ?
- यथा पिण्डे तत बृह्माण्डे । यानी जो बृह्माण्ड में है । वह सब कुछ आपके शरीर में है । मतलब सृष्टि जो विराट माडल के रूप में है । उसका आकार ठीक मनुष्य जैसा ही है । शायद शिवलोक से आपका तात्पर्य शंकर लोक से है । तो ये शंकर लोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में ह्रदय है । विष्णुलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ आपके शरीर में नाभि है । बृह्मलोक विराट सृष्टि में ठीक उसी स्थान पर है । जहाँ मनुष्य शरीर में लिंग या स्त्री योनि होती है । प्रथ्वी पर प्रतीक रूप में इनके स्थान होते हैं । जैसे विभिन्न देशों के दूसरे देशों में दूतावास होते हैं । प्रथ्वी पिण्ड रूप में ( स्थूल आकृति के रूप में ) जैसी आप देखते हैं । तत्व रूप में किसी ( योगी आदि को ही ) चमकीले छोटे तारे जैसी दिखाई देती हैं । देवी रूप में यह ( योगी आदि को ही दिखाई देती है ) सुन्दर स्त्री रूप भी है । अन्य रूप में यह गाय का रूप भी रखती है । जैसे कि धर्म वैल ( वृषभ ) रूप और मनुष्याकृति दोनों दिखाई देता है ।
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