जय श्री गुरुदेव, गुरूजी मेरा एक प्रश्न है कि चलते फिरते भजन कैसे करें ? क्योंकि चलते फिरते भजन करने पर ध्यान तो भटकेगा । और जब तक मन एक स्थान पर नहीं है । तो वो ध्यान कैसे हुआ ?
ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
भजन तथा काम दोनों एक साथ कैसे. वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ?
गुरूजी की एक शिष्य
*********
लगभग दस महीने के अज्ञातवास के बाद एक बार फ़िर डेढ महीने से ‘चिन्ताहरण आश्रम’ में हूँ । ये ठीक ऐसा ही है । महीनों पूङी पराठें खाने के बाद रोटी का खाना 56 व्यंजन के समान लगे । अथवा मरीजी टायप मूंग की दाल की खिचङी भी ‘मोहन भोग’ लगे । बात विपरीत लग सकती है । पर बात परिवर्तन को लेकर है । आप आजमा कर देखें । कश्मीर या स्विटरजरलेंड जैसी वादियों से ऊब होने पर उजङी हवेलियां, भुतहा खंडहर, टूटे पुल भी उतन ही आकर्षक और सम्मोहक लगते हैं । जबकि जिन्हें प्राप्य नहीं । खूबसूरत वादियों की सिर्फ़ कल्पना भी उनके लिये स्वर्गिक ही है । अदृश्य परमात्मा, सुना हुआ सत्यलोक या सचखण्ड भी उनके लिये अति महत्वाकांक्षी महल है ।
शब्द बङे विचित्र होते हैं । इतने विचित्र ! कि हम उनके भी मायाजाल में फ़ंस जाते हैं । यदि हम उनके अस्तित्व को जानने की कोशिश न कर सिर्फ़ उनके सन्देश में बहते है ।
झूठलोक या झूठखण्ड से सत्यलोक सचखण्ड का सफ़र और फ़िर गुरु कृपा से वहाँ का स्थायी निवासी हो जाना । आवागमन का झंझट मिट जाना । रोग बुढापा दुख का सदा समाप्त हो जाना बराबर सत्यलोक और परमात्मा है ।
स्वयं अखण्ड परमात्मा ने मुख्यतया दो खण्ड, प्रथम सचखण्ड और दूसरा झूठखण्ड बनाया । जिनमें एक पारबृह्म का क्षेत्र कहलाता है । दूसरा काल निरंजन का । कुछ अधिक विद्वान आपत्ति उठा सकते हैं कि झूठखण्ड परमात्मा ने नहीं, काल निरंजन ने बनाया है । उठाईये, मुझे कोई आपत्ति नहीं । पर इनके लिये भूमि आवंटन ( अलाटमेंट ) किसी तीसरे जमींदार ( लेंडलार्ड ) ने किया होगा ?
सत्य में स्थित होना ही सचखण्ड है । जो सिर्फ़ आत्मिक है । मन में स्थित होना ही झूठखण्ड है । ऊपर मैंने लिखा - शब्द विचित्र होते हैं । इसलिये मैं कह रहा हूँ ।
तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?
शब्दों की गति, शब्दों का निर्माण, शब्दों की खाईयां, शब्दों की इमारतें, शब्दों की लय, शब्दों का बहाव..क्या कभी खोजा है ?
जिस दिन उपरोक्त कमेंट हुआ । उसी दिन मैंने फ़ेसबुक के किसी पेज पर लिखा देखा - Art of living without doing anything
बात अजीब सी है न । प्रश्न उठने से पहले उत्तर आ चुका था - Art of living without doing anything
बहुत कम शब्द, बहुत सटीक उत्तर - Art of living without doing anything
मैं बङे गौर से देखता हूँ शब्दों को । यह कहूँ तो गलत हो जायेगा । लेकिन आपके लिये वह देखना ऐसा है । यह सही है । मैं तो सामान्यतयाः गौर से ही देखता हूँ । मैं गौर से ही सामान्यतयाः देखता हूँ ।
उपरोक्त कमेंट में यदि ‘गुरूजी की एक शिष्य’ में यदि ‘की’ न लिखा होता । तो यह कहीं से भी स्त्री वर्ग में नहीं था । लेकिन सिर्फ़ इस एक ही शब्द के बाद ‘शिष्य’ लिखना उलझन पैदा करता है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
लगभग 4-5 पंक्तियों में किये प्रश्न में प्रश्नकर्ता ( या कर्ती ) ओशो का उदाहरण देते हुये मुझसे प्रश्न करता है ।
क्या उत्तर दूँ ? अब मेरे लिये यह प्रश्न है । क्योंकि शब्द खुद में विचित्र होते हैं । विचित्र ! उलझो मत । उनका सिर्फ़ एक चित्र बनाना मुमकिन नहीं है ।
या तो आपने ओशो को पढने सुनने में भूल की । या ओशो ने ऐसा मोटा अन्दाज बोलकर भूल की । लेकिन यह शोधार्थियों की खोज का विषय है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
दरअसल मन कभी 100% होता ही नहीं । यदि आप 100% को पूर्णता का मानक मानते हुये सिर्फ़ अंतःकरण के 25% मन भाग ( पार्ट ) को ही 100% मान लें । तो यह गलत तो नहीं होगा । लेकिन फ़िर ऐसा मन किसी काम का नहीं । यह ऐसे स्टेयरिंग की भांति होगा । जिसमें गति हेतु पहिये और इंजन न हो । और अकेला स्टेयरिंग वाहन का कार्य नहीं कर पायेगा । तब जाहिर है 100% मन से सक्रियता नहीं हो सकती । इसके लिये वाहन के अन्य तीन भाग - बुद्धि, चित्त, अहम का होना अनिवार्य है ।
आगे झगङा झंझट और भी है । जब दो प्रकार की निश्चयात्मक अनिश्चयात्मक बुद्धि सही गलत के निर्णय में बेहद अङचन पैदा करेगी । इसकी भी बारीकी में जायें । तो और भी बङा झमेला है । क्योंकि कोई गारंटी नहीं । बुद्धि सही पर ही निर्णय दे । कभी कभी यह गुणों के आधार पर ‘गलत’ को सही ठहरा देगी । अतः इसका भी भरोसा नहीं ।
एक तीसरा भाग ‘चित्त’ या तो चापलूस है । या बेहद मजबूर ? यह बुद्धि के विचारण के साथ ही तुरन्त ( इंस्टेंट ) विचारित आधारित दृश्य और भूमि तैयार करता रहेगा ।
हाँ अहम ( शरीर युक्त स्व होने का भाव ) बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा इनके निर्णय का इंतजार करेगा कि कब फ़ैसला हो । और कब ये शरीर रूपी वाहन सक्रिय हो ?
दोहराना आवश्यक तो नहीं लगता । पर सिर्फ़ 100% मन से आप हिल भी नहीं सकते ।
अतः जब मन बुद्धि चित्त अहम जुङे होंगे । तभी कार्य होगा ।
लेकिन जब ये चारों मिलकर 1 हो जाते हैं । तो उसको फ़िर मन नहीं ‘सुरति’ कहते हैं । और इस एकाग्रता में जो कार्य होता है । वह बुद्धि के बजाय ‘विवेक’ का होता है । और विवेक का निर्णय बुद्धि की भांति दो पक्षीय न होकर सिर्फ़ 1 पक्षीय ही ( ऐसा जिसका दूसरा पक्ष न हो ) सत्य ही होता है ।
जो प्रश्न किया गया । इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है । सर पर ( बिना हाथ लगाये ) घङा लाती पनिहारिन की भांति । कछुवी के अंडे सेने की भांति, ये प्रसिद्ध उदाहरण हैं । तुलसीदास ने इस तरह बताया है ।
कर से कर्म करो विधि नाना । राखो ध्यान जहाँ कृपा निधाना ।
पर मेरा सोचना, इन सबमें नहीं है । कहाँ पुरानी बातों के चक्कर में पङते हैं ? आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में एक साथ चार चार काम कौन नहीं कर रहा भला । और स्थिति अनुसार उन 4-5-6 कामों से महत्वपूर्ण काम पर सर्वाधिक ध्यान देना प्रयत्न करना क्या किसी को सिखाना पङता है ?
अतः भजन न कर पाने का बहाना ढूंङना या असमर्थता प्रकट करना बेकार है ।
अतः प्रश्न के नीचे यह लिखा होना - वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ? बेहद हास्यास्प्रद है ।
ये ( पूरा प्रश्न ही ) तब और भी अधिक हास्यास्प्रद है जब इसके ठीक नीचे लिखा हो - गुरूजी की एक शिष्य
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आपने किसी गुरुजी से नामदीक्षा ली है ? या फ़िल्म एक्टिंग कोर्स में एडमिशन लिया है । पहले यह विचार करें ?
ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
भजन तथा काम दोनों एक साथ कैसे. वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ?
गुरूजी की एक शिष्य
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लगभग दस महीने के अज्ञातवास के बाद एक बार फ़िर डेढ महीने से ‘चिन्ताहरण आश्रम’ में हूँ । ये ठीक ऐसा ही है । महीनों पूङी पराठें खाने के बाद रोटी का खाना 56 व्यंजन के समान लगे । अथवा मरीजी टायप मूंग की दाल की खिचङी भी ‘मोहन भोग’ लगे । बात विपरीत लग सकती है । पर बात परिवर्तन को लेकर है । आप आजमा कर देखें । कश्मीर या स्विटरजरलेंड जैसी वादियों से ऊब होने पर उजङी हवेलियां, भुतहा खंडहर, टूटे पुल भी उतन ही आकर्षक और सम्मोहक लगते हैं । जबकि जिन्हें प्राप्य नहीं । खूबसूरत वादियों की सिर्फ़ कल्पना भी उनके लिये स्वर्गिक ही है । अदृश्य परमात्मा, सुना हुआ सत्यलोक या सचखण्ड भी उनके लिये अति महत्वाकांक्षी महल है ।
शब्द बङे विचित्र होते हैं । इतने विचित्र ! कि हम उनके भी मायाजाल में फ़ंस जाते हैं । यदि हम उनके अस्तित्व को जानने की कोशिश न कर सिर्फ़ उनके सन्देश में बहते है ।
झूठलोक या झूठखण्ड से सत्यलोक सचखण्ड का सफ़र और फ़िर गुरु कृपा से वहाँ का स्थायी निवासी हो जाना । आवागमन का झंझट मिट जाना । रोग बुढापा दुख का सदा समाप्त हो जाना बराबर सत्यलोक और परमात्मा है ।
स्वयं अखण्ड परमात्मा ने मुख्यतया दो खण्ड, प्रथम सचखण्ड और दूसरा झूठखण्ड बनाया । जिनमें एक पारबृह्म का क्षेत्र कहलाता है । दूसरा काल निरंजन का । कुछ अधिक विद्वान आपत्ति उठा सकते हैं कि झूठखण्ड परमात्मा ने नहीं, काल निरंजन ने बनाया है । उठाईये, मुझे कोई आपत्ति नहीं । पर इनके लिये भूमि आवंटन ( अलाटमेंट ) किसी तीसरे जमींदार ( लेंडलार्ड ) ने किया होगा ?
सत्य में स्थित होना ही सचखण्ड है । जो सिर्फ़ आत्मिक है । मन में स्थित होना ही झूठखण्ड है । ऊपर मैंने लिखा - शब्द विचित्र होते हैं । इसलिये मैं कह रहा हूँ ।
तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?
शब्दों की गति, शब्दों का निर्माण, शब्दों की खाईयां, शब्दों की इमारतें, शब्दों की लय, शब्दों का बहाव..क्या कभी खोजा है ?
जिस दिन उपरोक्त कमेंट हुआ । उसी दिन मैंने फ़ेसबुक के किसी पेज पर लिखा देखा - Art of living without doing anything
बात अजीब सी है न । प्रश्न उठने से पहले उत्तर आ चुका था - Art of living without doing anything
बहुत कम शब्द, बहुत सटीक उत्तर - Art of living without doing anything
मैं बङे गौर से देखता हूँ शब्दों को । यह कहूँ तो गलत हो जायेगा । लेकिन आपके लिये वह देखना ऐसा है । यह सही है । मैं तो सामान्यतयाः गौर से ही देखता हूँ । मैं गौर से ही सामान्यतयाः देखता हूँ ।
उपरोक्त कमेंट में यदि ‘गुरूजी की एक शिष्य’ में यदि ‘की’ न लिखा होता । तो यह कहीं से भी स्त्री वर्ग में नहीं था । लेकिन सिर्फ़ इस एक ही शब्द के बाद ‘शिष्य’ लिखना उलझन पैदा करता है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
लगभग 4-5 पंक्तियों में किये प्रश्न में प्रश्नकर्ता ( या कर्ती ) ओशो का उदाहरण देते हुये मुझसे प्रश्न करता है ।
क्या उत्तर दूँ ? अब मेरे लिये यह प्रश्न है । क्योंकि शब्द खुद में विचित्र होते हैं । विचित्र ! उलझो मत । उनका सिर्फ़ एक चित्र बनाना मुमकिन नहीं है ।
या तो आपने ओशो को पढने सुनने में भूल की । या ओशो ने ऐसा मोटा अन्दाज बोलकर भूल की । लेकिन यह शोधार्थियों की खोज का विषय है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
दरअसल मन कभी 100% होता ही नहीं । यदि आप 100% को पूर्णता का मानक मानते हुये सिर्फ़ अंतःकरण के 25% मन भाग ( पार्ट ) को ही 100% मान लें । तो यह गलत तो नहीं होगा । लेकिन फ़िर ऐसा मन किसी काम का नहीं । यह ऐसे स्टेयरिंग की भांति होगा । जिसमें गति हेतु पहिये और इंजन न हो । और अकेला स्टेयरिंग वाहन का कार्य नहीं कर पायेगा । तब जाहिर है 100% मन से सक्रियता नहीं हो सकती । इसके लिये वाहन के अन्य तीन भाग - बुद्धि, चित्त, अहम का होना अनिवार्य है ।
आगे झगङा झंझट और भी है । जब दो प्रकार की निश्चयात्मक अनिश्चयात्मक बुद्धि सही गलत के निर्णय में बेहद अङचन पैदा करेगी । इसकी भी बारीकी में जायें । तो और भी बङा झमेला है । क्योंकि कोई गारंटी नहीं । बुद्धि सही पर ही निर्णय दे । कभी कभी यह गुणों के आधार पर ‘गलत’ को सही ठहरा देगी । अतः इसका भी भरोसा नहीं ।
एक तीसरा भाग ‘चित्त’ या तो चापलूस है । या बेहद मजबूर ? यह बुद्धि के विचारण के साथ ही तुरन्त ( इंस्टेंट ) विचारित आधारित दृश्य और भूमि तैयार करता रहेगा ।
हाँ अहम ( शरीर युक्त स्व होने का भाव ) बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा इनके निर्णय का इंतजार करेगा कि कब फ़ैसला हो । और कब ये शरीर रूपी वाहन सक्रिय हो ?
दोहराना आवश्यक तो नहीं लगता । पर सिर्फ़ 100% मन से आप हिल भी नहीं सकते ।
अतः जब मन बुद्धि चित्त अहम जुङे होंगे । तभी कार्य होगा ।
लेकिन जब ये चारों मिलकर 1 हो जाते हैं । तो उसको फ़िर मन नहीं ‘सुरति’ कहते हैं । और इस एकाग्रता में जो कार्य होता है । वह बुद्धि के बजाय ‘विवेक’ का होता है । और विवेक का निर्णय बुद्धि की भांति दो पक्षीय न होकर सिर्फ़ 1 पक्षीय ही ( ऐसा जिसका दूसरा पक्ष न हो ) सत्य ही होता है ।
जो प्रश्न किया गया । इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है । सर पर ( बिना हाथ लगाये ) घङा लाती पनिहारिन की भांति । कछुवी के अंडे सेने की भांति, ये प्रसिद्ध उदाहरण हैं । तुलसीदास ने इस तरह बताया है ।
कर से कर्म करो विधि नाना । राखो ध्यान जहाँ कृपा निधाना ।
पर मेरा सोचना, इन सबमें नहीं है । कहाँ पुरानी बातों के चक्कर में पङते हैं ? आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में एक साथ चार चार काम कौन नहीं कर रहा भला । और स्थिति अनुसार उन 4-5-6 कामों से महत्वपूर्ण काम पर सर्वाधिक ध्यान देना प्रयत्न करना क्या किसी को सिखाना पङता है ?
अतः भजन न कर पाने का बहाना ढूंङना या असमर्थता प्रकट करना बेकार है ।
अतः प्रश्न के नीचे यह लिखा होना - वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ? बेहद हास्यास्प्रद है ।
ये ( पूरा प्रश्न ही ) तब और भी अधिक हास्यास्प्रद है जब इसके ठीक नीचे लिखा हो - गुरूजी की एक शिष्य
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आपने किसी गुरुजी से नामदीक्षा ली है ? या फ़िल्म एक्टिंग कोर्स में एडमिशन लिया है । पहले यह विचार करें ?
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-08-2015) को "देखता हूँ ज़िंदगी को" (चर्चा अंक-2078) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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