17 अगस्त 2015

कबीर कोई जाप नहीं करते थे

आपको प्रणाम ! मैंने आपके ब्लाग के बहुत से लेख पढे । मैं रीवा ( म. प्र. ) से हूँ । मैं मैकेनिकल इंजीनियरिंग का स्टूडेन्ट हूँ । मेरी अध्यात्म में रुचि है । मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं । आप उनके समाधान की कृपा करें । ( ल. गौ. )

1. क्या सृष्टि के सृजन के बाद कभी ऐसा समय रहा । जब अधिकतर लोग परमात्मा को जानते थे और परमात्मा की स्तुति करते थे । परमात्मा को प्राप्त करने की उनकी विधि क्या थी ?
इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जगत बनाया ।
इच्छा पार जो हैं विचरत, उनका पार न पाया ।
उत्तर - सृष्टि का सृजन माया के अभाव में कभी संभव नहीं था । न ही कभी होगा । इसलिये प्रथमतः सृजन के दौरान ही आदिमाया, माया, योगमाया जैसे अस्तित्व निर्मित हो गये । इसको सरल उदाहरण के रूप में ऐसे समझ सकते हैं । जैसे एक चित्रकार खाली कागज ( मन, चित्ताकाश या चित्त ) पर प्रथम कुछ रेखायें ( विचार ) उकेरता है । उनसे आकारों ( ढांचा रचना ) का निर्माण होता है । फ़िर उसमें ( भावना ( ओं ) के ) रंग ( तीन गुण ) स्वेच्छानुसार भरता है । और अन्ततः उसका इच्छित चित्र ( वासना ) निराकार ( कोरा कागज ) से साकार ( रंगीन ) हो जाती है । और वह वस्तु चित्र सत्य सा लगने लगता है । जबकि कोरे कागज पर कुछ रेखायें और रंगों का संयोजन ही है । वहाँ यथार्थिक कुछ नही है ।
आशय यह है कि जो भी संकल्पित जीव ( सभी कुछ, महाशक्तियां भी ) बने । वो माया के आवरण में ही थे । और परमात्मा सबसे फ़िर भी अलग ही रहा ।
अब महत्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को छोङकर जो भी देव, बृह्म आदि अस्तित्व थे । उनका ढांचा सीमित था । उसमें विराट या अनन्त था ही नहीं । और उनका परिपथ ( सर्किट ) अथवा यन्त्र ही भिन्न था । जानने के अनुरूप नहीं था । अतः कह सकते हैं कि उन्होंने जो जाना, बरता, वह अनन्त परमात्मा की एक कला या कुछ अंश मात्र था ।
और मनुष्य में यह सब कुछ था । पर वह ताले या तालों में बन्द था । जिसकी चाबी सम्बन्धित अधिकारी या गुरु के पास थी । जो एक निर्धारित नियमों की औपचारिकता के बाद ही मिलती ।
अतः निःसंदेह ही कहा जा सकता है कि आदि सृष्टि के ठीक एक क्षण बाद का भी समय ऐसा नहीं था कि बहुत लोग परमात्म मूल को जानने वाले हों । क्योंकि मायावश वे बहुत दूर हो गये थे । ऐसा बहुत आवश्यक था । क्योंकि तभी सृष्टि रह सकती थी ।
स्तुति - विभिन्न जीव उपाधियों द्वारा जो भी स्तुति हुयी । वह परमात्म स्तुति ही थी । पर उससे मूल को जाना नहीं जा सकता था । मूल को वही जान सकता था । जिसे वह ( कारणवश ) चुनता था ।
जेहि जाने जाहि देयु जनाई, जानत तुमहि तुमहि हो जाई ।
यह फ़ल साधन से नहि होई, तुम्हरी कृपा पाई कोई कोई ।
विधि - परमात्मा को प्राप्त करने की कोई विधि नहीं है । हाँ उसकी कृपा हो जाये । ऐसा भाव निरन्तर रखना, को शब्दों के घुमाव में विधि कह सकते हैं । स्मरण रहे - परमात्मा सिर्फ़ भाव का भूखा है । और कुछ उसे तृप्त नहीं करता ।

2. परमात्मा ने कब कब अवतार लिया । अथवा परमात्मा ने कब और किस तरह लोगों को अपने बारे में बताया ?
साहिब तेरी साहिबी घट घट रही समाय, ज्यों मेंहदी के पात में लाली लखी न जाये ।
उत्तर - परमात्मा ने कभी अवतार नहीं लिया । लेकिन परमात्मा प्रकट अवश्य होता है । यह किसी भी सन्त ह्रदय में एक कला से लेकर बहुकला अथवा अनन्तकला प्रकट होता है । वह सन्त उसी अनुसार उसको कहता है । पूर्ण परमात्मा या अनन्त परमात्मा वाणी का विषय नहीं बन पाता । अतः निर्वाणी या अवर्णनीय ही रहता है । वास्तव में यह ह्रदय से ह्रदय में प्रकट होता है । यद्यपि बहुत से सन्तों ने इसका अधिकाधिक सटीक वर्णन करने का प्रयास किया । पर सफ़ल नहीं हुये । और दूसरे उन्हें इसका विशेष लाभ नजर नहीं आया । क्योंकि जैसी जीव सृष्टि है । उसमें उपलब्ध वर्णन जीव स्तर पर काफ़ी है । और यदि कोई जीव ज्ञान मार्ग पर बढता है । तो मूल सूत्रों के अनुसार अनुभव करता हुआ जानने लगता है । ऐसे जीवों ने भी प्रारम्भ में उत्साह से इसका वर्णन करना चाहा । पर शीघ्र ही वह समझ गये । यह सिर्फ़ गूंगे का गुङ है । जो सिर्फ़ खाने वाला ही जान सकेगा ।
इसलिये इसका विशेष इतिहास या वैज्ञानिकता लिखित में नहीं है । कब और किस तरह से की बात यह है कि आदि सृष्टि से ही जो खेल प्रचलित हुआ । उसमें भक्ति सर्वोपरि थी । वास्तव में यह मायिक खेल बच्चों के छुआछाई या चोर सिपाही की भांति ही था । जो आदि सृष्टि के समय जैसा था । वैसा ही आज भी है । इसी क्षण भी है ।
कह सकते हैं - लाखों करोङों युगों में कोई समय ऐसा आता है । जब अनन्तकला परमात्मा किसी बिरले में प्रकट होता है ।
हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय, बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रगट होय ।
अवतार - ईश्वरीय या भगवद शक्तियां लेती हैं । मुख्य अवतार जैसे राम कृष्ण आदि आधे अंश से होता है । फ़िर भी इसे पूर्णावतार कहते हैं । विभिन्न नैमित्तिक कार्यों हेतु अनेक अंशांश अवतार जैसे वराह, मोहिनी, रुद्र आदि हुये, होते रहते हैं । इनकी संख्या लाखों में होती है ।

3. वास्तविक मोक्ष क्या है । क्या सतलोक जाना ही मोक्ष है ? जो अविनाशी धाम पहुंच जाते हैं । तो वहाँ वे किस अवस्था में रहते हैं कि अनन्त समय तक उबाऊपन नहीं आता ?
उत्तर - केवल और एकमात्र परमात्म स्थिति को प्राप्त हो जाना ही असली मोक्ष है । मोक्ष शब्द मोह-क्षय..मोःक्षःय से बना है । इस स्थिति का कोई वर्णन मेरी नजर में आज तक नहीं आया । कबीर को छोङकर अधिकांश ने शून्य समाधि या शून्य स्थिति को परमात्म स्थिति कह दिया । जो बेहद हास्यास्प्रद है । कबीर ने भी सतपुरुष और पारबृह्म से अधिक ( मेरी जानकारी में ) वो भी कुछ संकेतों में, नहीं कहा । अनन्त शब्द का प्रयोग अवश्य किया । पर अनन्त क्या ? यह नहीं बताया । या फ़िर अभी तक मेरी जानकारी में नहीं है । क्योंकि कबीर की वाणियां बहुत हैं । जिनमें बहुतों में मिलावट भी है । और बहुत सी लोप हो चुकी हैं ।
पर एक बात अवश्य है । अभी तक उपलब्ध वाणियों में कबीर से.. अधिक, सटीक और सार कोई नहीं बोल सका । कबीर जैसी बेबाक और खरी खरी तो दूर की बात है ।
सतलोक पहुँचा जीव स्थिति अनुसार आवागमन से रहित, मनः दुर्गुणों से परे, काग वासनाओं से दूर आनन्द की अवस्था में एक पक्षीय होता है । त्रिलोकी जैसा कल्पित पक्ष नहीं होता । अविनाशी धाम में अमृत्व, प्रकाश, आनन्द और हंस अवस्था होती है । बाकी यहाँ की दीप भूमियां इतनी विशाल और अनेकानेक रासरंग विचित्रताओं वाली हैं कि उबाऊपन कैसे हो ? यह मैंने सिर्फ़ समझाने हेतु लिखा है । दरअसल हंस काय में उबाऊपन जैसा कुछ होता ही नहीं । ये मनः चेष्टा के अंतर्गत ही है ।
इस बात को ऐसे समझें कि किसी तरह आपको निरन्तर युवा अजर निरोगी काय और सभी सुख सुविधायें और स्वेच्छा चरण विचरण प्राप्त हो । तो इसी प्रथ्वी पर लाखों वर्षों तक उबाऊपन नहीं होगा । क्योंकि विचित्रतायें और बहुरंगता और रहस्य और बहुभोग ये अहसास तक नहीं होने देंगे कि लाखों वर्ष हो गये । प्रथ्वी ( मृत्युलोक ) के एक एक जगह की ही विचित्रता विभिन्नता और रहस्य ज्ञान विज्ञान को अनुभूत करने हेतु युगों का समय चाहिये । फ़िर अन्य अदभुत की तो बात ही कैसे हो ?
सबसे बङी और खास बात अविनाशी धाम के जीव आदेशानुसार और स्वेच्छा से भी विभिन्न सृष्टियों में गर्भरहित आवागमन करते रहते हैं । इसलिये परिवर्तन और नित नूतन के कारण उबाऊपन जैसा कुछ हो नहीं सकता । सब कुछ खेल जैसा होता है ।

4. क्या परमात्मा निराकार और साकार दोनों हो सकता है ? यदि हाँ, तो दोनों में से किसकी भक्ति श्रेष्ठ है । और दोनों से मिलने वाले फल में क्या अंतर है ?
उत्तर - हाँ कहो तो है नहीं, ना कही न जाये । हाँ ना के बीच में साहिब रहा समाय ।
परमात्मा को निराकार खास इसलिये कहा है कि उसका कोई आकार रूप रंग नहीं है । बाकी न वह निराकार है न साकार है । बल्कि वह - है । जो है - सो है । इसलिये निराकार बस इसलिये कह दिया कि वह साकार हरगिज नहीं है । लेकिन निराकार है । ऐसा भी नहीं है । दूध में छिपा घृत और मेंहदी में छिपी लाली और रगङ में छिपी अग्नि की भांति ही वह प्रकट भर होता है । प्रकट होते समय दर्शनीय और आवेशी होता है । बाकी फ़िर अगम अगोचर ही रहता है । ध्यान दें..घी लाली अग्नि ये फ़िर लोप हो जाती हैं ।
अब क्योंकि वह निराकार साकार है ही नहीं । तो फ़िर इनकी भक्ति कैसे । हाँ दोनों भक्तियों की अपनी श्रेष्ठता है । पूर्व में बिना साकार के निराकार भक्ति संभव ही नहीं । फ़िर भी गुणात्मक और घटक पदार्थों के अनुसार तुलना की जाये । तो निराकार श्रेष्ठ है । क्योंकि साकार के बाद उच्चता कृम में यही है ।
यदि भक्ति साकार ही रही । तो द्वैत बना रहेगा । निराकार द्वैत को अद्वैत में बदलता है । साकार की तुलना में निराकार भक्ति के फ़लों में राई पहाङ जैसा अन्तर है । निराकार ही ‘होने’ में फ़िर ‘है’ में ले जाती है ।

5. क्या परमात्मा को केवल मंत्र जप से ही पाया जा सकता है ? यदि कोई परमात्मा के लिए प्रेम रखे । और आश्रय ले । परन्तु मंत्र न जपे । तो उसकी गति क्या होगी ?
उत्तर - यह गुन साधन ते नहिं होई, तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को किसी तन्त्र मन्त्र से जाना, पाया नहीं जा सकता । पर थोङा सा अलग शब्दों में कह सकते हैं कि इसका एक तरीका है । और सदगुरु है । और कृपा है । और भक्त का समर्पण होना है । और भक्त का ही भाव पूर्ण होना है ।
मन्त्र जप या निर्वाणी मन्त्र या अजपा जप, जन साधारण को विषय समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त शब्दों में कहे गये हैं । क्योंकि प्रारम्भिक स्थितियों में बात समझाने के लिये शब्दों और खास शब्दों की आवश्यकता होती ही है । वैसे स्वयं निशब्द के लिये शब्द कैसे हो सकते हैं । यानी वहाँ तक जाने के संकेत और पूर्व साधन ।
प्रेम - मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । मन का नहीं, परन्तु जीव का नौवां भाव ‘प्रेम’ है । जो एक अविरल धारा है । जिसे चेतना भी कहते हैं । इसी में प्रविष्टि होने पर समत्व शिवत्व जैसे समग्र भाव उदित होते हैं ।
सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि ।
इसी भाव में प्रविष्टि के बाद ही सम्भव है । ये चेतना में रमण करने या निर्वाणी मन्त्र में लय के बाद अनुभूत होता है । अतः बिना इसको जाने, बिना इसको हुये कोई भी परमात्मा या किसी अन्य से प्रेम कर ही नहीं सकता ।
गौर से सोचिये - आप परमात्मा से प्रेम क्यों कर रहे हैं या करेंगे ? उत्तर में स्वार्थ ही निकलेगा ।
यह प्रेमधार ही परमात्मा तक ले जाती है । पर इस पनघट की डगर अति कठिन है ।
- लेकिन फ़िर भी यह बात मान कर चलते हैं कि परमात्मा से सिर्फ़ प्रेम रखें । और मन्त्र जप न करें । 
तो वास्तव में यह होगा कि यदि आप प्रेम ( भाव ) से शुरू करते हैं । तो मन्त्र की उच्छवास आदि डूबना, भाव बेहोशी, भाव समाधि जैसी क्रियायें स्वतः होने लगेंगी । और नयी क्रियाओं से घबराकर गुरु के पास जाना ही होगा । और इसके बजाय यदि आप निर्वाणी मन्त्र से शुरू करते हैं । तो प्रगाढ प्रेम उदय होकर बढता ही जायेगा । तरीका कोई अपनायें । सदगुरु के बिना सफ़ल नहीं होगा ।

6. यदि कोई संसार में परमात्मा का ज्ञान रखता हो । या उसको प्राप्त करने का उपदेश दे । तो सृष्टि के जो बडे देवता ब्रह्मा, विष्णु या शंकर आदि देवता भी तो जान जायेंगे । तो वो परमात्मा को पाने का प्रयास नही करेंगे ?
उत्तर - जैसे इस प्रथ्वी के आसमान में कोई उल्का आदि चमके । बिजली कौंधे । तो सभी निवासियों को ज्ञात हो जाता है । ऐसे ही जब भी कोई भक्ति पुंज प्रकाशित होता है । तुरन्त उसकी खबर अधिकांश को हो जाती है । अक्सर वर्णनों में ऐसा आता है कि उसके तप से तीनों लोक जल उठे । उसके घनघोर तप से धरती आसमान थर्रा उठे, डोलने लगे आदि ।
तो देवता या अन्य कुछ शक्तियां, माया आदि जिनका कार्य भक्ति में बाधा डालना भी होता है । निश्चय ही जान जाते हैं । सर्वप्रथम तो माया ही जान जाती है । क्योंकि इच्छाशक्ति जगत के विपरीत भगति की ओर होने लगती है । इसके पश्चात तीन गुणों के नियंता, प्रतिनिधि बृह्मा विष्णु शंकर आदि जान जाते हैं । क्योंकि इनकी क्रियायें भी विपरीत हो उठती हैं । फ़िर भक्ति स्तर बढने पर काल और अन्य भी चौकन्ने हो उठते हैं । क्योंकि एक भक्त जीव जाग्रत होकर निकट भविष्य में उनके लिये चुनौती बनने वाला है । इनके लिये एक-एक जीव की बहुत कीमत होती है ।
वास्तव में यह अजीब सी बात है । परन्तु तत्व को समझकर जाग्रत होने की दशा में मुढ चुका निश्चयात्मक बुद्धि का जीव ( यदि वह पात्र भी हो ) यदि बिना भक्ति के विष्णु लोक या विष्णु पद भी मांगे । तो त्रिलोकी सत्ता बेहिचक सहर्ष दे देगी । क्योंकि इससे जीव उनकी जद में ही रहेगा । और अक्सर ऐसा ही हो जाता है ।
अब दूसरी बात यह कि - बृह्मा विष्णु शंकर आदि देवता उस भक्त जीव को हुये उपदेश के बारे में सैद्धांतिक जानकारी लेकर स्वयं भी प्रयास कर सकते हैं । तो मैं कह चुका हूँ । उनका तन्त्र और यन्त्र दोनों ही इस प्राप्ति के अनुरूप नहीं होते । क्योंकि मुख्यतया देवों के निर्माण में सिर्फ़ बृह्मांड ही होता है । पिंड नहीं होता । जबकि इस लक्ष्य के लिये एक ही काय में अंड पिंड बृह्मांड तीनों का होना आवश्यक है ।
बङे भाग, मानुष तन ? पावा । सुर दुर्लभ ? सद ग्रन्थन गावा ।
सुर दुर्लभ मानुष तन, यानी सर्व सुख भोगी देवों के पास यह मनुष्य शरीर नहीं है । जाहिर है कि आत्मतत्व ज्ञान के लिये मनुष्य शरीर अनिवार्य है ।
दूसरे जब देवों का देवत्व काल पूर्ण हो जाता है । तो इन्हें मेघों के साथ उस देवलोक से कुछ विशेष जीवों के आवरण में गिरा देते हैं । तदुपरान्त विभिन्न योनियों से गुजर कर जब कभी इन्हें मनुष्य शरीर मिलता भी है । तो अज्ञान को लेकर इनमें और इस धरती के मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता । कृष्ण रुक्मणी को को सत्रह बार इन्द्र बन चुके चींटे के बारे में बताते हैं । हम धरती पर स्वयं सहित जिन असंख्य मनुष्य और जीवों को देखते हैं । वे सब और हम अनेकानेक बार देवता राक्षस भगवान यक्ष आदि सभी कुछ बन चुके हैं । यह त्रिलोकी तन्त्र के बारे में है । इससे परे की बात अलग हो जाती है । वहाँ की स्थितियां उपाधियां अमरत्व वाली होती हैं ।
अतः देवता यदि प्रयास करें भी तो कुछ नहीं होने वाला ।

7. सदगुरु कबीर का उपदेश व्यापक स्तर पर क्यों नहीं किया गया ? किसी भी ज्ञान, मंत्र को एकदम क्लियर नही बताया गया । यहाँ तक कि कई कबीर पंथी संत अलग अलग मंत्र उपदेश दे देते हैं । उन्हें भी नहीं पता होता । साधारण इंसान के लिए तो इसे कोई विशेष कृपा कैसे मानें ।
उत्तर - समस्त द्वैत अद्वैत अलौकिक ज्ञान गूढ की श्रेणी में आता है । हीरा पायो गांठ गठियाओ । हीरा वहाँ न खोलिये जहाँ कुंजङन की हाट । अतः मन्त्र गूढ शैली में ही लिखे गये हैं । साधारणतः जैसे विज्ञान गणित आदि जटिल विषय जन साधारण के लिये नहीं होते । कुछ ही लोग इनके अधिकारी हो पाते हैं । ऐसे ही आध्यात्म जैसे उच्च विषय विशेष मायनों में सभी के लिये नहीं होते । और जो पात्र होते हैं । उनके लिये गूढता सरल सहज हो जाती है ।
जहाँ तक व्यापक स्तर पर उपदेश की बात है । कोई भी उपदेश व्यापक स्तर पर नहीं होता । वर्गीय और वर्गीय भेद होने से ही सृष्टि विलक्षण बहुरंगी बहुरस वाली है । सत्य ज्ञान का उपदेश व्यापक स्तर पर होने से 90% सृष्टिक गतिविधियां मृत हो जायेंगी ।
सत्य ज्ञान गद्दी परम्परागत नहीं होता । और कबीर पंथ या अन्य इसी गद्दी परम्परा के अंतर्गत हैं । शेष कबीर पंथ या उनका ज्ञान क्या कैसे क्यों है । कबीर ग्रन्थ ‘अनुराग सागर’ से स्पष्ट हो जाता है ।

8. मैंने सुना है सदगुरु कबीर राम नाम का जप करते थे । क्या उनको इस जप की आवश्यकता थी ? और सदगुरु कबीर यदि विष्णु या कृष्ण से श्रेष्ठ हैं । तो उन्होने साधारण जन के सामने ज्ञान उपदेश क्यों नहीं किया । उन्हें तो कोई भय नहीं होगा । क्या परमात्मा यह नहीं चाहते कि सब उन्हें जानें । क्योंकि परमात्मा के सामने कालपुरुष की दाल तो नहीं गलेगी ।
धन्यवाद ! 
उत्तर - आपने गलत सुना है । कबीर कोई जाप नहीं करते थे । बल्कि उन्होंने जहाँ जहाँ ऐसी वाणी कही है । वह भक्त जीव के उस स्थिति का प्रतिनिधित्व किया है । दूसरे शब्दों में इसको वैज्ञानिक विश्लेषण कह सकते हैं । जैसे -
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम, गले राम की जेबरी जित खेंचो तित जावं ।
अर्थात समर्पित भक्त की स्थिति गले में रस्सी पङे उस कुत्ते की भांति है । जिसकी डोरी मालिक के हाथ है । और वह उसी की इच्छानुसार चलता है । कबीर का अर्थ मनुष्य शरीर का संचालक जो चेतन पुरुष है, होता है ।
तुलसीदास ने इसको ऐसे कहा है ।
उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत राम गुसाईं ।
दारु जोषित - कठपुतली ।
निसंदेह विष्णु या कृष्ण और कबीर की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली जैसा फ़र्क है । कबीर राजा हैं ।
कबीर के सभी जाति धर्म देश में दीक्षित अदीक्षित 70 हजार शिष्य थे । जिनमें राजा रंक सभी थे । उन्होंने बेहद सरल सादगी युक्त जीवन के साथ हरेक को उपदेश किया । निर्भयता का ज्ञान देने वाले को भय कैसे हो सकता है ?
परमात्मा न यह चाहते कि कोई उन्हें जाने । न यह चाहते कि न जाने । इसके लिये आदिसृष्टि के बाद से ही एक कानून बना हुआ है । उसी ज्ञान विज्ञान से सभी घटनायें होती हैं ।
परमात्मा की सृष्टि में एक ही समय में अरबों कालपुरुष होते हैं । जो इससे ऊपर की कई उपाधियों के तुलनात्मक बेहद छोटी उपाधि है । अतः दाल गलेगी जैसा कुछ सोचना ही व्यर्थ है ।
----------
साहेब

1 टिप्पणी:

satta king ने कहा…

best site for satta king result, leak number  all game record charts. We provide 100% fix number direct from Satta king gali company which includes all famous games like Satta king Desawar, Gali Satta, Ghaziabad, Faridabad, Shri Ganesh Satta, Taj Satta King, charminar and other games of Satta Market Matka is also a simple game and essentially is a form of old lottery games. Ratan Khatri was the founder of this game in the 70 century and was become popular up until the 90 century. The game is not played that much anymore mostly in the regions of North India and Pakistan. Instead, many enjoy the lottery games Satta king result  more so these days.
Here is an example card. satta-king.online is the no1 satta king site where you can get the fastest Satta result, Satta king leak number (confirm jodi), Old Satta King ghaziabad, Daily leak Jodi, Desawar Jodi, Satta king faridabad, Satta record chart, Satta king taj, Gali Satta result, Ghaziabad Satta Result, Satta Bazar result and 100% passing fix Jodi today.

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326