आपको प्रणाम ! मैंने आपके ब्लाग के बहुत से लेख पढे । मैं रीवा ( म. प्र. ) से हूँ । मैं मैकेनिकल इंजीनियरिंग का स्टूडेन्ट हूँ । मेरी अध्यात्म में रुचि है । मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं । आप उनके समाधान की कृपा करें । ( ल. गौ. )
1. क्या सृष्टि के सृजन के बाद कभी ऐसा समय रहा । जब अधिकतर लोग परमात्मा को जानते थे और परमात्मा की स्तुति करते थे । परमात्मा को प्राप्त करने की उनकी विधि क्या थी ?
इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जगत बनाया ।
इच्छा पार जो हैं विचरत, उनका पार न पाया ।
उत्तर - सृष्टि का सृजन माया के अभाव में कभी संभव नहीं था । न ही कभी होगा । इसलिये प्रथमतः सृजन के दौरान ही आदिमाया, माया, योगमाया जैसे अस्तित्व निर्मित हो गये । इसको सरल उदाहरण के रूप में ऐसे समझ सकते हैं । जैसे एक चित्रकार खाली कागज ( मन, चित्ताकाश या चित्त ) पर प्रथम कुछ रेखायें ( विचार ) उकेरता है । उनसे आकारों ( ढांचा रचना ) का निर्माण होता है । फ़िर उसमें ( भावना ( ओं ) के ) रंग ( तीन गुण ) स्वेच्छानुसार भरता है । और अन्ततः उसका इच्छित चित्र ( वासना ) निराकार ( कोरा कागज ) से साकार ( रंगीन ) हो जाती है । और वह वस्तु चित्र सत्य सा लगने लगता है । जबकि कोरे कागज पर कुछ रेखायें और रंगों का संयोजन ही है । वहाँ यथार्थिक कुछ नही है ।
आशय यह है कि जो भी संकल्पित जीव ( सभी कुछ, महाशक्तियां भी ) बने । वो माया के आवरण में ही थे । और परमात्मा सबसे फ़िर भी अलग ही रहा ।
अब महत्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को छोङकर जो भी देव, बृह्म आदि अस्तित्व थे । उनका ढांचा सीमित था । उसमें विराट या अनन्त था ही नहीं । और उनका परिपथ ( सर्किट ) अथवा यन्त्र ही भिन्न था । जानने के अनुरूप नहीं था । अतः कह सकते हैं कि उन्होंने जो जाना, बरता, वह अनन्त परमात्मा की एक कला या कुछ अंश मात्र था ।
और मनुष्य में यह सब कुछ था । पर वह ताले या तालों में बन्द था । जिसकी चाबी सम्बन्धित अधिकारी या गुरु के पास थी । जो एक निर्धारित नियमों की औपचारिकता के बाद ही मिलती ।
अतः निःसंदेह ही कहा जा सकता है कि आदि सृष्टि के ठीक एक क्षण बाद का भी समय ऐसा नहीं था कि बहुत लोग परमात्म मूल को जानने वाले हों । क्योंकि मायावश वे बहुत दूर हो गये थे । ऐसा बहुत आवश्यक था । क्योंकि तभी सृष्टि रह सकती थी ।
स्तुति - विभिन्न जीव उपाधियों द्वारा जो भी स्तुति हुयी । वह परमात्म स्तुति ही थी । पर उससे मूल को जाना नहीं जा सकता था । मूल को वही जान सकता था । जिसे वह ( कारणवश ) चुनता था ।
जेहि जाने जाहि देयु जनाई, जानत तुमहि तुमहि हो जाई ।
यह फ़ल साधन से नहि होई, तुम्हरी कृपा पाई कोई कोई ।
विधि - परमात्मा को प्राप्त करने की कोई विधि नहीं है । हाँ उसकी कृपा हो जाये । ऐसा भाव निरन्तर रखना, को शब्दों के घुमाव में विधि कह सकते हैं । स्मरण रहे - परमात्मा सिर्फ़ भाव का भूखा है । और कुछ उसे तृप्त नहीं करता ।
2. परमात्मा ने कब कब अवतार लिया । अथवा परमात्मा ने कब और किस तरह लोगों को अपने बारे में बताया ?
साहिब तेरी साहिबी घट घट रही समाय, ज्यों मेंहदी के पात में लाली लखी न जाये ।
उत्तर - परमात्मा ने कभी अवतार नहीं लिया । लेकिन परमात्मा प्रकट अवश्य होता है । यह किसी भी सन्त ह्रदय में एक कला से लेकर बहुकला अथवा अनन्तकला प्रकट होता है । वह सन्त उसी अनुसार उसको कहता है । पूर्ण परमात्मा या अनन्त परमात्मा वाणी का विषय नहीं बन पाता । अतः निर्वाणी या अवर्णनीय ही रहता है । वास्तव में यह ह्रदय से ह्रदय में प्रकट होता है । यद्यपि बहुत से सन्तों ने इसका अधिकाधिक सटीक वर्णन करने का प्रयास किया । पर सफ़ल नहीं हुये । और दूसरे उन्हें इसका विशेष लाभ नजर नहीं आया । क्योंकि जैसी जीव सृष्टि है । उसमें उपलब्ध वर्णन जीव स्तर पर काफ़ी है । और यदि कोई जीव ज्ञान मार्ग पर बढता है । तो मूल सूत्रों के अनुसार अनुभव करता हुआ जानने लगता है । ऐसे जीवों ने भी प्रारम्भ में उत्साह से इसका वर्णन करना चाहा । पर शीघ्र ही वह समझ गये । यह सिर्फ़ गूंगे का गुङ है । जो सिर्फ़ खाने वाला ही जान सकेगा ।
इसलिये इसका विशेष इतिहास या वैज्ञानिकता लिखित में नहीं है । कब और किस तरह से की बात यह है कि आदि सृष्टि से ही जो खेल प्रचलित हुआ । उसमें भक्ति सर्वोपरि थी । वास्तव में यह मायिक खेल बच्चों के छुआछाई या चोर सिपाही की भांति ही था । जो आदि सृष्टि के समय जैसा था । वैसा ही आज भी है । इसी क्षण भी है ।
कह सकते हैं - लाखों करोङों युगों में कोई समय ऐसा आता है । जब अनन्तकला परमात्मा किसी बिरले में प्रकट होता है ।
हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय, बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रगट होय ।
अवतार - ईश्वरीय या भगवद शक्तियां लेती हैं । मुख्य अवतार जैसे राम कृष्ण आदि आधे अंश से होता है । फ़िर भी इसे पूर्णावतार कहते हैं । विभिन्न नैमित्तिक कार्यों हेतु अनेक अंशांश अवतार जैसे वराह, मोहिनी, रुद्र आदि हुये, होते रहते हैं । इनकी संख्या लाखों में होती है ।
3. वास्तविक मोक्ष क्या है । क्या सतलोक जाना ही मोक्ष है ? जो अविनाशी धाम पहुंच जाते हैं । तो वहाँ वे किस अवस्था में रहते हैं कि अनन्त समय तक उबाऊपन नहीं आता ?
उत्तर - केवल और एकमात्र परमात्म स्थिति को प्राप्त हो जाना ही असली मोक्ष है । मोक्ष शब्द मोह-क्षय..मोःक्षःय से बना है । इस स्थिति का कोई वर्णन मेरी नजर में आज तक नहीं आया । कबीर को छोङकर अधिकांश ने शून्य समाधि या शून्य स्थिति को परमात्म स्थिति कह दिया । जो बेहद हास्यास्प्रद है । कबीर ने भी सतपुरुष और पारबृह्म से अधिक ( मेरी जानकारी में ) वो भी कुछ संकेतों में, नहीं कहा । अनन्त शब्द का प्रयोग अवश्य किया । पर अनन्त क्या ? यह नहीं बताया । या फ़िर अभी तक मेरी जानकारी में नहीं है । क्योंकि कबीर की वाणियां बहुत हैं । जिनमें बहुतों में मिलावट भी है । और बहुत सी लोप हो चुकी हैं ।
पर एक बात अवश्य है । अभी तक उपलब्ध वाणियों में कबीर से.. अधिक, सटीक और सार कोई नहीं बोल सका । कबीर जैसी बेबाक और खरी खरी तो दूर की बात है ।
सतलोक पहुँचा जीव स्थिति अनुसार आवागमन से रहित, मनः दुर्गुणों से परे, काग वासनाओं से दूर आनन्द की अवस्था में एक पक्षीय होता है । त्रिलोकी जैसा कल्पित पक्ष नहीं होता । अविनाशी धाम में अमृत्व, प्रकाश, आनन्द और हंस अवस्था होती है । बाकी यहाँ की दीप भूमियां इतनी विशाल और अनेकानेक रासरंग विचित्रताओं वाली हैं कि उबाऊपन कैसे हो ? यह मैंने सिर्फ़ समझाने हेतु लिखा है । दरअसल हंस काय में उबाऊपन जैसा कुछ होता ही नहीं । ये मनः चेष्टा के अंतर्गत ही है ।
इस बात को ऐसे समझें कि किसी तरह आपको निरन्तर युवा अजर निरोगी काय और सभी सुख सुविधायें और स्वेच्छा चरण विचरण प्राप्त हो । तो इसी प्रथ्वी पर लाखों वर्षों तक उबाऊपन नहीं होगा । क्योंकि विचित्रतायें और बहुरंगता और रहस्य और बहुभोग ये अहसास तक नहीं होने देंगे कि लाखों वर्ष हो गये । प्रथ्वी ( मृत्युलोक ) के एक एक जगह की ही विचित्रता विभिन्नता और रहस्य ज्ञान विज्ञान को अनुभूत करने हेतु युगों का समय चाहिये । फ़िर अन्य अदभुत की तो बात ही कैसे हो ?
सबसे बङी और खास बात अविनाशी धाम के जीव आदेशानुसार और स्वेच्छा से भी विभिन्न सृष्टियों में गर्भरहित आवागमन करते रहते हैं । इसलिये परिवर्तन और नित नूतन के कारण उबाऊपन जैसा कुछ हो नहीं सकता । सब कुछ खेल जैसा होता है ।
4. क्या परमात्मा निराकार और साकार दोनों हो सकता है ? यदि हाँ, तो दोनों में से किसकी भक्ति श्रेष्ठ है । और दोनों से मिलने वाले फल में क्या अंतर है ?
उत्तर - हाँ कहो तो है नहीं, ना कही न जाये । हाँ ना के बीच में साहिब रहा समाय ।
परमात्मा को निराकार खास इसलिये कहा है कि उसका कोई आकार रूप रंग नहीं है । बाकी न वह निराकार है न साकार है । बल्कि वह - है । जो है - सो है । इसलिये निराकार बस इसलिये कह दिया कि वह साकार हरगिज नहीं है । लेकिन निराकार है । ऐसा भी नहीं है । दूध में छिपा घृत और मेंहदी में छिपी लाली और रगङ में छिपी अग्नि की भांति ही वह प्रकट भर होता है । प्रकट होते समय दर्शनीय और आवेशी होता है । बाकी फ़िर अगम अगोचर ही रहता है । ध्यान दें..घी लाली अग्नि ये फ़िर लोप हो जाती हैं ।
अब क्योंकि वह निराकार साकार है ही नहीं । तो फ़िर इनकी भक्ति कैसे । हाँ दोनों भक्तियों की अपनी श्रेष्ठता है । पूर्व में बिना साकार के निराकार भक्ति संभव ही नहीं । फ़िर भी गुणात्मक और घटक पदार्थों के अनुसार तुलना की जाये । तो निराकार श्रेष्ठ है । क्योंकि साकार के बाद उच्चता कृम में यही है ।
यदि भक्ति साकार ही रही । तो द्वैत बना रहेगा । निराकार द्वैत को अद्वैत में बदलता है । साकार की तुलना में निराकार भक्ति के फ़लों में राई पहाङ जैसा अन्तर है । निराकार ही ‘होने’ में फ़िर ‘है’ में ले जाती है ।
5. क्या परमात्मा को केवल मंत्र जप से ही पाया जा सकता है ? यदि कोई परमात्मा के लिए प्रेम रखे । और आश्रय ले । परन्तु मंत्र न जपे । तो उसकी गति क्या होगी ?
उत्तर - यह गुन साधन ते नहिं होई, तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को किसी तन्त्र मन्त्र से जाना, पाया नहीं जा सकता । पर थोङा सा अलग शब्दों में कह सकते हैं कि इसका एक तरीका है । और सदगुरु है । और कृपा है । और भक्त का समर्पण होना है । और भक्त का ही भाव पूर्ण होना है ।
मन्त्र जप या निर्वाणी मन्त्र या अजपा जप, जन साधारण को विषय समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त शब्दों में कहे गये हैं । क्योंकि प्रारम्भिक स्थितियों में बात समझाने के लिये शब्दों और खास शब्दों की आवश्यकता होती ही है । वैसे स्वयं निशब्द के लिये शब्द कैसे हो सकते हैं । यानी वहाँ तक जाने के संकेत और पूर्व साधन ।
प्रेम - मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । मन का नहीं, परन्तु जीव का नौवां भाव ‘प्रेम’ है । जो एक अविरल धारा है । जिसे चेतना भी कहते हैं । इसी में प्रविष्टि होने पर समत्व शिवत्व जैसे समग्र भाव उदित होते हैं ।
सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि ।
इसी भाव में प्रविष्टि के बाद ही सम्भव है । ये चेतना में रमण करने या निर्वाणी मन्त्र में लय के बाद अनुभूत होता है । अतः बिना इसको जाने, बिना इसको हुये कोई भी परमात्मा या किसी अन्य से प्रेम कर ही नहीं सकता ।
गौर से सोचिये - आप परमात्मा से प्रेम क्यों कर रहे हैं या करेंगे ? उत्तर में स्वार्थ ही निकलेगा ।
यह प्रेमधार ही परमात्मा तक ले जाती है । पर इस पनघट की डगर अति कठिन है ।
- लेकिन फ़िर भी यह बात मान कर चलते हैं कि परमात्मा से सिर्फ़ प्रेम रखें । और मन्त्र जप न करें ।
तो वास्तव में यह होगा कि यदि आप प्रेम ( भाव ) से शुरू करते हैं । तो मन्त्र की उच्छवास आदि डूबना, भाव बेहोशी, भाव समाधि जैसी क्रियायें स्वतः होने लगेंगी । और नयी क्रियाओं से घबराकर गुरु के पास जाना ही होगा । और इसके बजाय यदि आप निर्वाणी मन्त्र से शुरू करते हैं । तो प्रगाढ प्रेम उदय होकर बढता ही जायेगा । तरीका कोई अपनायें । सदगुरु के बिना सफ़ल नहीं होगा ।
6. यदि कोई संसार में परमात्मा का ज्ञान रखता हो । या उसको प्राप्त करने का उपदेश दे । तो सृष्टि के जो बडे देवता ब्रह्मा, विष्णु या शंकर आदि देवता भी तो जान जायेंगे । तो वो परमात्मा को पाने का प्रयास नही करेंगे ?
उत्तर - जैसे इस प्रथ्वी के आसमान में कोई उल्का आदि चमके । बिजली कौंधे । तो सभी निवासियों को ज्ञात हो जाता है । ऐसे ही जब भी कोई भक्ति पुंज प्रकाशित होता है । तुरन्त उसकी खबर अधिकांश को हो जाती है । अक्सर वर्णनों में ऐसा आता है कि उसके तप से तीनों लोक जल उठे । उसके घनघोर तप से धरती आसमान थर्रा उठे, डोलने लगे आदि ।
तो देवता या अन्य कुछ शक्तियां, माया आदि जिनका कार्य भक्ति में बाधा डालना भी होता है । निश्चय ही जान जाते हैं । सर्वप्रथम तो माया ही जान जाती है । क्योंकि इच्छाशक्ति जगत के विपरीत भगति की ओर होने लगती है । इसके पश्चात तीन गुणों के नियंता, प्रतिनिधि बृह्मा विष्णु शंकर आदि जान जाते हैं । क्योंकि इनकी क्रियायें भी विपरीत हो उठती हैं । फ़िर भक्ति स्तर बढने पर काल और अन्य भी चौकन्ने हो उठते हैं । क्योंकि एक भक्त जीव जाग्रत होकर निकट भविष्य में उनके लिये चुनौती बनने वाला है । इनके लिये एक-एक जीव की बहुत कीमत होती है ।
वास्तव में यह अजीब सी बात है । परन्तु तत्व को समझकर जाग्रत होने की दशा में मुढ चुका निश्चयात्मक बुद्धि का जीव ( यदि वह पात्र भी हो ) यदि बिना भक्ति के विष्णु लोक या विष्णु पद भी मांगे । तो त्रिलोकी सत्ता बेहिचक सहर्ष दे देगी । क्योंकि इससे जीव उनकी जद में ही रहेगा । और अक्सर ऐसा ही हो जाता है ।
अब दूसरी बात यह कि - बृह्मा विष्णु शंकर आदि देवता उस भक्त जीव को हुये उपदेश के बारे में सैद्धांतिक जानकारी लेकर स्वयं भी प्रयास कर सकते हैं । तो मैं कह चुका हूँ । उनका तन्त्र और यन्त्र दोनों ही इस प्राप्ति के अनुरूप नहीं होते । क्योंकि मुख्यतया देवों के निर्माण में सिर्फ़ बृह्मांड ही होता है । पिंड नहीं होता । जबकि इस लक्ष्य के लिये एक ही काय में अंड पिंड बृह्मांड तीनों का होना आवश्यक है ।
बङे भाग, मानुष तन ? पावा । सुर दुर्लभ ? सद ग्रन्थन गावा ।
सुर दुर्लभ मानुष तन, यानी सर्व सुख भोगी देवों के पास यह मनुष्य शरीर नहीं है । जाहिर है कि आत्मतत्व ज्ञान के लिये मनुष्य शरीर अनिवार्य है ।
दूसरे जब देवों का देवत्व काल पूर्ण हो जाता है । तो इन्हें मेघों के साथ उस देवलोक से कुछ विशेष जीवों के आवरण में गिरा देते हैं । तदुपरान्त विभिन्न योनियों से गुजर कर जब कभी इन्हें मनुष्य शरीर मिलता भी है । तो अज्ञान को लेकर इनमें और इस धरती के मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता । कृष्ण रुक्मणी को को सत्रह बार इन्द्र बन चुके चींटे के बारे में बताते हैं । हम धरती पर स्वयं सहित जिन असंख्य मनुष्य और जीवों को देखते हैं । वे सब और हम अनेकानेक बार देवता राक्षस भगवान यक्ष आदि सभी कुछ बन चुके हैं । यह त्रिलोकी तन्त्र के बारे में है । इससे परे की बात अलग हो जाती है । वहाँ की स्थितियां उपाधियां अमरत्व वाली होती हैं ।
अतः देवता यदि प्रयास करें भी तो कुछ नहीं होने वाला ।
7. सदगुरु कबीर का उपदेश व्यापक स्तर पर क्यों नहीं किया गया ? किसी भी ज्ञान, मंत्र को एकदम क्लियर नही बताया गया । यहाँ तक कि कई कबीर पंथी संत अलग अलग मंत्र उपदेश दे देते हैं । उन्हें भी नहीं पता होता । साधारण इंसान के लिए तो इसे कोई विशेष कृपा कैसे मानें ।
उत्तर - समस्त द्वैत अद्वैत अलौकिक ज्ञान गूढ की श्रेणी में आता है । हीरा पायो गांठ गठियाओ । हीरा वहाँ न खोलिये जहाँ कुंजङन की हाट । अतः मन्त्र गूढ शैली में ही लिखे गये हैं । साधारणतः जैसे विज्ञान गणित आदि जटिल विषय जन साधारण के लिये नहीं होते । कुछ ही लोग इनके अधिकारी हो पाते हैं । ऐसे ही आध्यात्म जैसे उच्च विषय विशेष मायनों में सभी के लिये नहीं होते । और जो पात्र होते हैं । उनके लिये गूढता सरल सहज हो जाती है ।
जहाँ तक व्यापक स्तर पर उपदेश की बात है । कोई भी उपदेश व्यापक स्तर पर नहीं होता । वर्गीय और वर्गीय भेद होने से ही सृष्टि विलक्षण बहुरंगी बहुरस वाली है । सत्य ज्ञान का उपदेश व्यापक स्तर पर होने से 90% सृष्टिक गतिविधियां मृत हो जायेंगी ।
सत्य ज्ञान गद्दी परम्परागत नहीं होता । और कबीर पंथ या अन्य इसी गद्दी परम्परा के अंतर्गत हैं । शेष कबीर पंथ या उनका ज्ञान क्या कैसे क्यों है । कबीर ग्रन्थ ‘अनुराग सागर’ से स्पष्ट हो जाता है ।
8. मैंने सुना है सदगुरु कबीर राम नाम का जप करते थे । क्या उनको इस जप की आवश्यकता थी ? और सदगुरु कबीर यदि विष्णु या कृष्ण से श्रेष्ठ हैं । तो उन्होने साधारण जन के सामने ज्ञान उपदेश क्यों नहीं किया । उन्हें तो कोई भय नहीं होगा । क्या परमात्मा यह नहीं चाहते कि सब उन्हें जानें । क्योंकि परमात्मा के सामने कालपुरुष की दाल तो नहीं गलेगी ।
धन्यवाद !
उत्तर - आपने गलत सुना है । कबीर कोई जाप नहीं करते थे । बल्कि उन्होंने जहाँ जहाँ ऐसी वाणी कही है । वह भक्त जीव के उस स्थिति का प्रतिनिधित्व किया है । दूसरे शब्दों में इसको वैज्ञानिक विश्लेषण कह सकते हैं । जैसे -
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम, गले राम की जेबरी जित खेंचो तित जावं ।
अर्थात समर्पित भक्त की स्थिति गले में रस्सी पङे उस कुत्ते की भांति है । जिसकी डोरी मालिक के हाथ है । और वह उसी की इच्छानुसार चलता है । कबीर का अर्थ मनुष्य शरीर का संचालक जो चेतन पुरुष है, होता है ।
तुलसीदास ने इसको ऐसे कहा है ।
उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत राम गुसाईं ।
दारु जोषित - कठपुतली ।
निसंदेह विष्णु या कृष्ण और कबीर की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली जैसा फ़र्क है । कबीर राजा हैं ।
कबीर के सभी जाति धर्म देश में दीक्षित अदीक्षित 70 हजार शिष्य थे । जिनमें राजा रंक सभी थे । उन्होंने बेहद सरल सादगी युक्त जीवन के साथ हरेक को उपदेश किया । निर्भयता का ज्ञान देने वाले को भय कैसे हो सकता है ?
परमात्मा न यह चाहते कि कोई उन्हें जाने । न यह चाहते कि न जाने । इसके लिये आदिसृष्टि के बाद से ही एक कानून बना हुआ है । उसी ज्ञान विज्ञान से सभी घटनायें होती हैं ।
परमात्मा की सृष्टि में एक ही समय में अरबों कालपुरुष होते हैं । जो इससे ऊपर की कई उपाधियों के तुलनात्मक बेहद छोटी उपाधि है । अतः दाल गलेगी जैसा कुछ सोचना ही व्यर्थ है ।
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साहेब
1. क्या सृष्टि के सृजन के बाद कभी ऐसा समय रहा । जब अधिकतर लोग परमात्मा को जानते थे और परमात्मा की स्तुति करते थे । परमात्मा को प्राप्त करने की उनकी विधि क्या थी ?
इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जगत बनाया ।
इच्छा पार जो हैं विचरत, उनका पार न पाया ।
उत्तर - सृष्टि का सृजन माया के अभाव में कभी संभव नहीं था । न ही कभी होगा । इसलिये प्रथमतः सृजन के दौरान ही आदिमाया, माया, योगमाया जैसे अस्तित्व निर्मित हो गये । इसको सरल उदाहरण के रूप में ऐसे समझ सकते हैं । जैसे एक चित्रकार खाली कागज ( मन, चित्ताकाश या चित्त ) पर प्रथम कुछ रेखायें ( विचार ) उकेरता है । उनसे आकारों ( ढांचा रचना ) का निर्माण होता है । फ़िर उसमें ( भावना ( ओं ) के ) रंग ( तीन गुण ) स्वेच्छानुसार भरता है । और अन्ततः उसका इच्छित चित्र ( वासना ) निराकार ( कोरा कागज ) से साकार ( रंगीन ) हो जाती है । और वह वस्तु चित्र सत्य सा लगने लगता है । जबकि कोरे कागज पर कुछ रेखायें और रंगों का संयोजन ही है । वहाँ यथार्थिक कुछ नही है ।
आशय यह है कि जो भी संकल्पित जीव ( सभी कुछ, महाशक्तियां भी ) बने । वो माया के आवरण में ही थे । और परमात्मा सबसे फ़िर भी अलग ही रहा ।
अब महत्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को छोङकर जो भी देव, बृह्म आदि अस्तित्व थे । उनका ढांचा सीमित था । उसमें विराट या अनन्त था ही नहीं । और उनका परिपथ ( सर्किट ) अथवा यन्त्र ही भिन्न था । जानने के अनुरूप नहीं था । अतः कह सकते हैं कि उन्होंने जो जाना, बरता, वह अनन्त परमात्मा की एक कला या कुछ अंश मात्र था ।
और मनुष्य में यह सब कुछ था । पर वह ताले या तालों में बन्द था । जिसकी चाबी सम्बन्धित अधिकारी या गुरु के पास थी । जो एक निर्धारित नियमों की औपचारिकता के बाद ही मिलती ।
अतः निःसंदेह ही कहा जा सकता है कि आदि सृष्टि के ठीक एक क्षण बाद का भी समय ऐसा नहीं था कि बहुत लोग परमात्म मूल को जानने वाले हों । क्योंकि मायावश वे बहुत दूर हो गये थे । ऐसा बहुत आवश्यक था । क्योंकि तभी सृष्टि रह सकती थी ।
स्तुति - विभिन्न जीव उपाधियों द्वारा जो भी स्तुति हुयी । वह परमात्म स्तुति ही थी । पर उससे मूल को जाना नहीं जा सकता था । मूल को वही जान सकता था । जिसे वह ( कारणवश ) चुनता था ।
जेहि जाने जाहि देयु जनाई, जानत तुमहि तुमहि हो जाई ।
यह फ़ल साधन से नहि होई, तुम्हरी कृपा पाई कोई कोई ।
विधि - परमात्मा को प्राप्त करने की कोई विधि नहीं है । हाँ उसकी कृपा हो जाये । ऐसा भाव निरन्तर रखना, को शब्दों के घुमाव में विधि कह सकते हैं । स्मरण रहे - परमात्मा सिर्फ़ भाव का भूखा है । और कुछ उसे तृप्त नहीं करता ।
2. परमात्मा ने कब कब अवतार लिया । अथवा परमात्मा ने कब और किस तरह लोगों को अपने बारे में बताया ?
साहिब तेरी साहिबी घट घट रही समाय, ज्यों मेंहदी के पात में लाली लखी न जाये ।
उत्तर - परमात्मा ने कभी अवतार नहीं लिया । लेकिन परमात्मा प्रकट अवश्य होता है । यह किसी भी सन्त ह्रदय में एक कला से लेकर बहुकला अथवा अनन्तकला प्रकट होता है । वह सन्त उसी अनुसार उसको कहता है । पूर्ण परमात्मा या अनन्त परमात्मा वाणी का विषय नहीं बन पाता । अतः निर्वाणी या अवर्णनीय ही रहता है । वास्तव में यह ह्रदय से ह्रदय में प्रकट होता है । यद्यपि बहुत से सन्तों ने इसका अधिकाधिक सटीक वर्णन करने का प्रयास किया । पर सफ़ल नहीं हुये । और दूसरे उन्हें इसका विशेष लाभ नजर नहीं आया । क्योंकि जैसी जीव सृष्टि है । उसमें उपलब्ध वर्णन जीव स्तर पर काफ़ी है । और यदि कोई जीव ज्ञान मार्ग पर बढता है । तो मूल सूत्रों के अनुसार अनुभव करता हुआ जानने लगता है । ऐसे जीवों ने भी प्रारम्भ में उत्साह से इसका वर्णन करना चाहा । पर शीघ्र ही वह समझ गये । यह सिर्फ़ गूंगे का गुङ है । जो सिर्फ़ खाने वाला ही जान सकेगा ।
इसलिये इसका विशेष इतिहास या वैज्ञानिकता लिखित में नहीं है । कब और किस तरह से की बात यह है कि आदि सृष्टि से ही जो खेल प्रचलित हुआ । उसमें भक्ति सर्वोपरि थी । वास्तव में यह मायिक खेल बच्चों के छुआछाई या चोर सिपाही की भांति ही था । जो आदि सृष्टि के समय जैसा था । वैसा ही आज भी है । इसी क्षण भी है ।
कह सकते हैं - लाखों करोङों युगों में कोई समय ऐसा आता है । जब अनन्तकला परमात्मा किसी बिरले में प्रकट होता है ।
हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय, बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रगट होय ।
अवतार - ईश्वरीय या भगवद शक्तियां लेती हैं । मुख्य अवतार जैसे राम कृष्ण आदि आधे अंश से होता है । फ़िर भी इसे पूर्णावतार कहते हैं । विभिन्न नैमित्तिक कार्यों हेतु अनेक अंशांश अवतार जैसे वराह, मोहिनी, रुद्र आदि हुये, होते रहते हैं । इनकी संख्या लाखों में होती है ।
3. वास्तविक मोक्ष क्या है । क्या सतलोक जाना ही मोक्ष है ? जो अविनाशी धाम पहुंच जाते हैं । तो वहाँ वे किस अवस्था में रहते हैं कि अनन्त समय तक उबाऊपन नहीं आता ?
उत्तर - केवल और एकमात्र परमात्म स्थिति को प्राप्त हो जाना ही असली मोक्ष है । मोक्ष शब्द मोह-क्षय..मोःक्षःय से बना है । इस स्थिति का कोई वर्णन मेरी नजर में आज तक नहीं आया । कबीर को छोङकर अधिकांश ने शून्य समाधि या शून्य स्थिति को परमात्म स्थिति कह दिया । जो बेहद हास्यास्प्रद है । कबीर ने भी सतपुरुष और पारबृह्म से अधिक ( मेरी जानकारी में ) वो भी कुछ संकेतों में, नहीं कहा । अनन्त शब्द का प्रयोग अवश्य किया । पर अनन्त क्या ? यह नहीं बताया । या फ़िर अभी तक मेरी जानकारी में नहीं है । क्योंकि कबीर की वाणियां बहुत हैं । जिनमें बहुतों में मिलावट भी है । और बहुत सी लोप हो चुकी हैं ।
पर एक बात अवश्य है । अभी तक उपलब्ध वाणियों में कबीर से.. अधिक, सटीक और सार कोई नहीं बोल सका । कबीर जैसी बेबाक और खरी खरी तो दूर की बात है ।
सतलोक पहुँचा जीव स्थिति अनुसार आवागमन से रहित, मनः दुर्गुणों से परे, काग वासनाओं से दूर आनन्द की अवस्था में एक पक्षीय होता है । त्रिलोकी जैसा कल्पित पक्ष नहीं होता । अविनाशी धाम में अमृत्व, प्रकाश, आनन्द और हंस अवस्था होती है । बाकी यहाँ की दीप भूमियां इतनी विशाल और अनेकानेक रासरंग विचित्रताओं वाली हैं कि उबाऊपन कैसे हो ? यह मैंने सिर्फ़ समझाने हेतु लिखा है । दरअसल हंस काय में उबाऊपन जैसा कुछ होता ही नहीं । ये मनः चेष्टा के अंतर्गत ही है ।
इस बात को ऐसे समझें कि किसी तरह आपको निरन्तर युवा अजर निरोगी काय और सभी सुख सुविधायें और स्वेच्छा चरण विचरण प्राप्त हो । तो इसी प्रथ्वी पर लाखों वर्षों तक उबाऊपन नहीं होगा । क्योंकि विचित्रतायें और बहुरंगता और रहस्य और बहुभोग ये अहसास तक नहीं होने देंगे कि लाखों वर्ष हो गये । प्रथ्वी ( मृत्युलोक ) के एक एक जगह की ही विचित्रता विभिन्नता और रहस्य ज्ञान विज्ञान को अनुभूत करने हेतु युगों का समय चाहिये । फ़िर अन्य अदभुत की तो बात ही कैसे हो ?
सबसे बङी और खास बात अविनाशी धाम के जीव आदेशानुसार और स्वेच्छा से भी विभिन्न सृष्टियों में गर्भरहित आवागमन करते रहते हैं । इसलिये परिवर्तन और नित नूतन के कारण उबाऊपन जैसा कुछ हो नहीं सकता । सब कुछ खेल जैसा होता है ।
4. क्या परमात्मा निराकार और साकार दोनों हो सकता है ? यदि हाँ, तो दोनों में से किसकी भक्ति श्रेष्ठ है । और दोनों से मिलने वाले फल में क्या अंतर है ?
उत्तर - हाँ कहो तो है नहीं, ना कही न जाये । हाँ ना के बीच में साहिब रहा समाय ।
परमात्मा को निराकार खास इसलिये कहा है कि उसका कोई आकार रूप रंग नहीं है । बाकी न वह निराकार है न साकार है । बल्कि वह - है । जो है - सो है । इसलिये निराकार बस इसलिये कह दिया कि वह साकार हरगिज नहीं है । लेकिन निराकार है । ऐसा भी नहीं है । दूध में छिपा घृत और मेंहदी में छिपी लाली और रगङ में छिपी अग्नि की भांति ही वह प्रकट भर होता है । प्रकट होते समय दर्शनीय और आवेशी होता है । बाकी फ़िर अगम अगोचर ही रहता है । ध्यान दें..घी लाली अग्नि ये फ़िर लोप हो जाती हैं ।
अब क्योंकि वह निराकार साकार है ही नहीं । तो फ़िर इनकी भक्ति कैसे । हाँ दोनों भक्तियों की अपनी श्रेष्ठता है । पूर्व में बिना साकार के निराकार भक्ति संभव ही नहीं । फ़िर भी गुणात्मक और घटक पदार्थों के अनुसार तुलना की जाये । तो निराकार श्रेष्ठ है । क्योंकि साकार के बाद उच्चता कृम में यही है ।
यदि भक्ति साकार ही रही । तो द्वैत बना रहेगा । निराकार द्वैत को अद्वैत में बदलता है । साकार की तुलना में निराकार भक्ति के फ़लों में राई पहाङ जैसा अन्तर है । निराकार ही ‘होने’ में फ़िर ‘है’ में ले जाती है ।
5. क्या परमात्मा को केवल मंत्र जप से ही पाया जा सकता है ? यदि कोई परमात्मा के लिए प्रेम रखे । और आश्रय ले । परन्तु मंत्र न जपे । तो उसकी गति क्या होगी ?
उत्तर - यह गुन साधन ते नहिं होई, तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को किसी तन्त्र मन्त्र से जाना, पाया नहीं जा सकता । पर थोङा सा अलग शब्दों में कह सकते हैं कि इसका एक तरीका है । और सदगुरु है । और कृपा है । और भक्त का समर्पण होना है । और भक्त का ही भाव पूर्ण होना है ।
मन्त्र जप या निर्वाणी मन्त्र या अजपा जप, जन साधारण को विषय समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त शब्दों में कहे गये हैं । क्योंकि प्रारम्भिक स्थितियों में बात समझाने के लिये शब्दों और खास शब्दों की आवश्यकता होती ही है । वैसे स्वयं निशब्द के लिये शब्द कैसे हो सकते हैं । यानी वहाँ तक जाने के संकेत और पूर्व साधन ।
प्रेम - मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । मन का नहीं, परन्तु जीव का नौवां भाव ‘प्रेम’ है । जो एक अविरल धारा है । जिसे चेतना भी कहते हैं । इसी में प्रविष्टि होने पर समत्व शिवत्व जैसे समग्र भाव उदित होते हैं ।
सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि ।
इसी भाव में प्रविष्टि के बाद ही सम्भव है । ये चेतना में रमण करने या निर्वाणी मन्त्र में लय के बाद अनुभूत होता है । अतः बिना इसको जाने, बिना इसको हुये कोई भी परमात्मा या किसी अन्य से प्रेम कर ही नहीं सकता ।
गौर से सोचिये - आप परमात्मा से प्रेम क्यों कर रहे हैं या करेंगे ? उत्तर में स्वार्थ ही निकलेगा ।
यह प्रेमधार ही परमात्मा तक ले जाती है । पर इस पनघट की डगर अति कठिन है ।
- लेकिन फ़िर भी यह बात मान कर चलते हैं कि परमात्मा से सिर्फ़ प्रेम रखें । और मन्त्र जप न करें ।
तो वास्तव में यह होगा कि यदि आप प्रेम ( भाव ) से शुरू करते हैं । तो मन्त्र की उच्छवास आदि डूबना, भाव बेहोशी, भाव समाधि जैसी क्रियायें स्वतः होने लगेंगी । और नयी क्रियाओं से घबराकर गुरु के पास जाना ही होगा । और इसके बजाय यदि आप निर्वाणी मन्त्र से शुरू करते हैं । तो प्रगाढ प्रेम उदय होकर बढता ही जायेगा । तरीका कोई अपनायें । सदगुरु के बिना सफ़ल नहीं होगा ।
6. यदि कोई संसार में परमात्मा का ज्ञान रखता हो । या उसको प्राप्त करने का उपदेश दे । तो सृष्टि के जो बडे देवता ब्रह्मा, विष्णु या शंकर आदि देवता भी तो जान जायेंगे । तो वो परमात्मा को पाने का प्रयास नही करेंगे ?
उत्तर - जैसे इस प्रथ्वी के आसमान में कोई उल्का आदि चमके । बिजली कौंधे । तो सभी निवासियों को ज्ञात हो जाता है । ऐसे ही जब भी कोई भक्ति पुंज प्रकाशित होता है । तुरन्त उसकी खबर अधिकांश को हो जाती है । अक्सर वर्णनों में ऐसा आता है कि उसके तप से तीनों लोक जल उठे । उसके घनघोर तप से धरती आसमान थर्रा उठे, डोलने लगे आदि ।
तो देवता या अन्य कुछ शक्तियां, माया आदि जिनका कार्य भक्ति में बाधा डालना भी होता है । निश्चय ही जान जाते हैं । सर्वप्रथम तो माया ही जान जाती है । क्योंकि इच्छाशक्ति जगत के विपरीत भगति की ओर होने लगती है । इसके पश्चात तीन गुणों के नियंता, प्रतिनिधि बृह्मा विष्णु शंकर आदि जान जाते हैं । क्योंकि इनकी क्रियायें भी विपरीत हो उठती हैं । फ़िर भक्ति स्तर बढने पर काल और अन्य भी चौकन्ने हो उठते हैं । क्योंकि एक भक्त जीव जाग्रत होकर निकट भविष्य में उनके लिये चुनौती बनने वाला है । इनके लिये एक-एक जीव की बहुत कीमत होती है ।
वास्तव में यह अजीब सी बात है । परन्तु तत्व को समझकर जाग्रत होने की दशा में मुढ चुका निश्चयात्मक बुद्धि का जीव ( यदि वह पात्र भी हो ) यदि बिना भक्ति के विष्णु लोक या विष्णु पद भी मांगे । तो त्रिलोकी सत्ता बेहिचक सहर्ष दे देगी । क्योंकि इससे जीव उनकी जद में ही रहेगा । और अक्सर ऐसा ही हो जाता है ।
अब दूसरी बात यह कि - बृह्मा विष्णु शंकर आदि देवता उस भक्त जीव को हुये उपदेश के बारे में सैद्धांतिक जानकारी लेकर स्वयं भी प्रयास कर सकते हैं । तो मैं कह चुका हूँ । उनका तन्त्र और यन्त्र दोनों ही इस प्राप्ति के अनुरूप नहीं होते । क्योंकि मुख्यतया देवों के निर्माण में सिर्फ़ बृह्मांड ही होता है । पिंड नहीं होता । जबकि इस लक्ष्य के लिये एक ही काय में अंड पिंड बृह्मांड तीनों का होना आवश्यक है ।
बङे भाग, मानुष तन ? पावा । सुर दुर्लभ ? सद ग्रन्थन गावा ।
सुर दुर्लभ मानुष तन, यानी सर्व सुख भोगी देवों के पास यह मनुष्य शरीर नहीं है । जाहिर है कि आत्मतत्व ज्ञान के लिये मनुष्य शरीर अनिवार्य है ।
दूसरे जब देवों का देवत्व काल पूर्ण हो जाता है । तो इन्हें मेघों के साथ उस देवलोक से कुछ विशेष जीवों के आवरण में गिरा देते हैं । तदुपरान्त विभिन्न योनियों से गुजर कर जब कभी इन्हें मनुष्य शरीर मिलता भी है । तो अज्ञान को लेकर इनमें और इस धरती के मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता । कृष्ण रुक्मणी को को सत्रह बार इन्द्र बन चुके चींटे के बारे में बताते हैं । हम धरती पर स्वयं सहित जिन असंख्य मनुष्य और जीवों को देखते हैं । वे सब और हम अनेकानेक बार देवता राक्षस भगवान यक्ष आदि सभी कुछ बन चुके हैं । यह त्रिलोकी तन्त्र के बारे में है । इससे परे की बात अलग हो जाती है । वहाँ की स्थितियां उपाधियां अमरत्व वाली होती हैं ।
अतः देवता यदि प्रयास करें भी तो कुछ नहीं होने वाला ।
7. सदगुरु कबीर का उपदेश व्यापक स्तर पर क्यों नहीं किया गया ? किसी भी ज्ञान, मंत्र को एकदम क्लियर नही बताया गया । यहाँ तक कि कई कबीर पंथी संत अलग अलग मंत्र उपदेश दे देते हैं । उन्हें भी नहीं पता होता । साधारण इंसान के लिए तो इसे कोई विशेष कृपा कैसे मानें ।
उत्तर - समस्त द्वैत अद्वैत अलौकिक ज्ञान गूढ की श्रेणी में आता है । हीरा पायो गांठ गठियाओ । हीरा वहाँ न खोलिये जहाँ कुंजङन की हाट । अतः मन्त्र गूढ शैली में ही लिखे गये हैं । साधारणतः जैसे विज्ञान गणित आदि जटिल विषय जन साधारण के लिये नहीं होते । कुछ ही लोग इनके अधिकारी हो पाते हैं । ऐसे ही आध्यात्म जैसे उच्च विषय विशेष मायनों में सभी के लिये नहीं होते । और जो पात्र होते हैं । उनके लिये गूढता सरल सहज हो जाती है ।
जहाँ तक व्यापक स्तर पर उपदेश की बात है । कोई भी उपदेश व्यापक स्तर पर नहीं होता । वर्गीय और वर्गीय भेद होने से ही सृष्टि विलक्षण बहुरंगी बहुरस वाली है । सत्य ज्ञान का उपदेश व्यापक स्तर पर होने से 90% सृष्टिक गतिविधियां मृत हो जायेंगी ।
सत्य ज्ञान गद्दी परम्परागत नहीं होता । और कबीर पंथ या अन्य इसी गद्दी परम्परा के अंतर्गत हैं । शेष कबीर पंथ या उनका ज्ञान क्या कैसे क्यों है । कबीर ग्रन्थ ‘अनुराग सागर’ से स्पष्ट हो जाता है ।
8. मैंने सुना है सदगुरु कबीर राम नाम का जप करते थे । क्या उनको इस जप की आवश्यकता थी ? और सदगुरु कबीर यदि विष्णु या कृष्ण से श्रेष्ठ हैं । तो उन्होने साधारण जन के सामने ज्ञान उपदेश क्यों नहीं किया । उन्हें तो कोई भय नहीं होगा । क्या परमात्मा यह नहीं चाहते कि सब उन्हें जानें । क्योंकि परमात्मा के सामने कालपुरुष की दाल तो नहीं गलेगी ।
धन्यवाद !
उत्तर - आपने गलत सुना है । कबीर कोई जाप नहीं करते थे । बल्कि उन्होंने जहाँ जहाँ ऐसी वाणी कही है । वह भक्त जीव के उस स्थिति का प्रतिनिधित्व किया है । दूसरे शब्दों में इसको वैज्ञानिक विश्लेषण कह सकते हैं । जैसे -
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम, गले राम की जेबरी जित खेंचो तित जावं ।
अर्थात समर्पित भक्त की स्थिति गले में रस्सी पङे उस कुत्ते की भांति है । जिसकी डोरी मालिक के हाथ है । और वह उसी की इच्छानुसार चलता है । कबीर का अर्थ मनुष्य शरीर का संचालक जो चेतन पुरुष है, होता है ।
तुलसीदास ने इसको ऐसे कहा है ।
उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत राम गुसाईं ।
दारु जोषित - कठपुतली ।
निसंदेह विष्णु या कृष्ण और कबीर की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली जैसा फ़र्क है । कबीर राजा हैं ।
कबीर के सभी जाति धर्म देश में दीक्षित अदीक्षित 70 हजार शिष्य थे । जिनमें राजा रंक सभी थे । उन्होंने बेहद सरल सादगी युक्त जीवन के साथ हरेक को उपदेश किया । निर्भयता का ज्ञान देने वाले को भय कैसे हो सकता है ?
परमात्मा न यह चाहते कि कोई उन्हें जाने । न यह चाहते कि न जाने । इसके लिये आदिसृष्टि के बाद से ही एक कानून बना हुआ है । उसी ज्ञान विज्ञान से सभी घटनायें होती हैं ।
परमात्मा की सृष्टि में एक ही समय में अरबों कालपुरुष होते हैं । जो इससे ऊपर की कई उपाधियों के तुलनात्मक बेहद छोटी उपाधि है । अतः दाल गलेगी जैसा कुछ सोचना ही व्यर्थ है ।
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साहेब
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