13 जून 2017

अनमोल ज्ञान सूत्र

चाह चमारी चूहरी, अति नीचन की नीच ।
मैं तो पूरण ब्रह्म था, जो तू न होती बीच ।
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राजीव बाबा, मेरे एक मित्र का प्रश्न है ।
क्या सशरीर चित्त के पार हुआ जा सकता है ? कृपया समाधान करें ।

उत्तर - प्रश्न उलझाव पैदा करता है ।
ऐसे प्रश्न सम्बन्धित साहित्य के अध्ययन के बाद, अनजाने निर्मित हुयी काल्पनिक धारणाओं से उपजते हैं । दूसरे, यदि प्रश्न अपने सभी बिन्दुओं को लेकर अपने सभी आशय को लेकर स्पष्ट न हो तो निराकरण और भी मुश्किल हो जाता है ।
पर फ़िर भी यहाँ ‘सशरीर’ शब्द मुझे इसी बाह्य, दर्शनीय, स्थूल शरीर के लिये प्रयुक्त लगा ।

- सशरीर चित्त के पार से क्या आशय है ?
कोई भी स्वयं और अन्य सब कुछ भी, स्वयं चित्त में ही (मन के द्वारा मन में ही) स्थित है ।
चित्त के पार क्या है ?
अगर ‘मूल स्थिति’ की बात की जाये तो फ़िर चित्त के पार कुछ है ही नहीं ।
जो है, वह सिर्फ़ आपका होना भर है ।
और बारीकी से कहा जाये तो फ़िर वह जो है - है ।
वहाँ होना जैसा भी कुछ नहीं है ।
होना शुरू होते ही चित्त भी हो जाता है ।
मन बुद्धि चित्त अहम, ये मिल जुल कर इतनी तेजी से क्रियान्वित होते हैं कि तय होना मुश्किल है कि ये किस कृमानुसार सक्रिय हुये । फ़िर भी किसी भी इच्छा के उदय होते ही चित्त बनता है ।
या स्थूल जीव में प्रथम चित्त जाता है ।
क्योंकि किसी भी हलन चलन हेतु भूमि और दूसरे अन्य अंगों की आवश्यकता होगी ।

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पुस्तक - अनमोल ज्ञान सूत्र pdf
लेखक - राजीव कुलश्रेष्ठ
विषय - आत्मज्ञान, सुरति शब्द योग
मूल्य - 150 रु.
प्रष्ठ - 157

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1 टिप्पणी:

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