ज्ञान और भक्ति
ब्रह्मभूतः
प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु
भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम ॥ (गीता 18-54)
टीका - सन्त
श्री ज्ञानेश्वर जी
ब्रह्म होने
की योग्यता के द्वारा वह पुरुष आत्मज्ञान-प्रसन्नता के पद पर जा बैठता
है ।
(जिस
अग्नि पर रसोई तैयार की जाती है वह जब शान्त हो जाती है तब रसोई का आनन्द लिया
जाता है अथवा शरत-काल में ज्वार-भाटा
छोङ जैसे गंगा शान्त हो जाती है, अथवा गीत समाप्त होते ही
उसके उपांग तबला, तम्बूरा इत्यादि भी जैसे बन्द हो जाते हैं,
वैसे ही आत्मज्ञान के लिये उद्यम करने के जो श्रम होते हैं, वे भी जहाँ शान्त हो जाते हैं)
उस दशा का
नाम आत्मज्ञान-प्रसन्नता है ।
(वह
योग्य पुरुष उस दशा का उपभोग करता है)
उस समय ‘यह
वस्तु मेरी है’ ऐसा समझकर सोच करना अथवा किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा करना आदि
बातों का अन्त हो जाता है ।
उसमें केवल
‘ऐक्यभाव’ भरा हुआ रहता है ।
सूर्य का उदय
होते ही सम्पूर्ण नक्षत्र जैसे अपनी दीप्ति खो देते हैं, वैसे
ही आत्मानुभव प्राप्त होते ही वह पुरुष अनेक भूत व्यक्तियों की रचना ताङते तोङते
सब आकाशरूप ही देखता है । जैसे पाटी पर लिखे हुये अक्षर हाथ से पोंछ लिये जायें,
वैसे ही उसकी दृष्टि से सब भेदान्तरों का लोप हो जाता है । जागृति
और स्वप्न ये दो अवस्थायें जो विपरीत ज्ञान का ग्रहण करती हैं उन्हें वह
सुषप्तिरूपी अज्ञान में लीन कर देता है । फ़िर ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ता है त्यों
त्यों वह अव्यक्त भी घटता जाता है और पूर्ण ज्ञान होते ही सम्पूर्ण विलीन हो जाता
है ।
जैसे भोजन
करते समय भूख धीरे धीरे बुझती जाती है और तृप्ति के समय सम्पूर्ण शान्त हो जाती है, अथवा
चलते चलते जैसे रास्ता कटता जाता है और इष्ट स्थान को पहुँचते ही समाप्त हो जाता
है, अथवा ज्यों ज्यों जागृति आती जाती है त्यों त्यों नींद
छूटती जाती है और पूर्ण जागृत होने पर उसका पता नहीं रहता, अथवा
वृद्धि समाप्त होने पर जब चन्द्र पूर्णता प्राप्त कर लेता है तो शुक्ल पक्ष की भी
निःशेष समाप्त हो जाता है, वैसे ही वह पुरुष जब ज्ञेय विषयों
को लीन कर लेता है तो ज्ञान का नाश हो जाता है, तब कल्पान्त
के समय जैसे नदी या समुद्र की सीमा टूट जाने से ब्रह्मलोक तक जल ही जल भर जाता है,
अथवा घट या मठ का नाश होने पर जैसे एक आकाश ही सर्वत्र रहता है,
अथवा लकङी जलाकर जैसे अग्नि ही रह जाती है, अथवा
जैसे अलंकारों को सांचे में डालकर गलाने से उनके नाम और रूपों का नाश हो सोना ही
रह जाता है, यह भी रहने दो, फ़िर जागने
पर जैसे स्वपन का नाश हो जाता है और मनुष्य केवल एक मेरे अतिरिक्त स्वयं अपने समेत
और कुछ भी नही रहता ।
इस प्रकार वह
मेरी चौथी भक्ति प्राप्त करता है ।
दूसरे आर्त, जिज्ञासु
और अर्थार्थी जिन रीतियों से मेरी भक्ति करते हैं उनकी अपेक्षा से हम इसे चौथी
भक्ति कहते हैं ।
अन्यथा यह न
तीसरी है,
न पहली है, न अन्तिम है ।
वास्तव में
मेरी ब्रह्मरूपी स्थिति का ही नाम भक्ति है ।
जो मेरे
अज्ञान को प्रकाशित कर,
मुझे अन्य रूप से दिखाकर, सबको सब विषयों की
रुचि लगाकर उनका ज्ञान करा देता है, जिस अखंड प्रकाश से जो
जहाँ जिस वस्तु को देखना चाहे वह वस्तु उसे वहाँ वैसी ही दिखाई देती है ।
स्वपन का
दिखाई देना,
न देना, जैसे अपने अस्तित्व पर निर्भर है,
वैसे ही प्रकाश से ही विश्व की उत्पत्ति या लय होता है, वह मेरा जो स्वाभाविक प्रकाश है उसी को भक्त कहते हैं ।
अतः आर्तों
में यह भक्ति इच्छारूप हो जो वस्तु की अपेक्षा करती हो, वह
मैं ही हूँ ।
जिज्ञासु में
भी यही भक्ति जिज्ञासा रूप हो मुझे जिज्ञास्य रूप से प्रकट करती है और यही भक्ति
अर्थप्राप्ति की इच्छा बन मानो मुझे ही अपनी प्राप्ति के पीछे लगा मुझे अर्थ नाम
का पात्र बनाती है,
एवं यदि मेरी भक्ति अज्ञान के साथ हो तो वह मुझ सर्वसाक्षी को
अदृश्य रूप से बताती है ।
दर्पण में
मुख से ही मुख दिखाई देता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं ।
परन्तु यह जो
मिथ्या द्वितीयत्व है उसका हेतु दर्पण है ।
दृष्टि
वास्तव में चन्द्रमा का ही ग्रहण करती है पर एक चन्द्र के जो दो रूप दिखाई देते
हैं वह नेत्र रोग के कारण ।
वैसे ही
वास्तव में मैं ही सर्वत्र निज को ही देखता हूँ ।
परन्तु जो
मिथ्या दृश्य पदार्थ दिखाई देते हैं वह अज्ञान का कारण है ।
वह अज्ञान उस
चौथे भक्ति का मिट जाता है,
और प्रतिबिम्ब जैसे बिम्ब में मिल जाय, वैसे
ही मेरी साक्षिरूपता मुझमें ही समा जाती है ।
सोना जब
मिश्रित स्थिति में रहता है तब भी सोना ही रहता है, परन्तु मिश्रण अलगाने
पर जैसे वह शुद्ध रूप से शेष रहता है ।
पूर्णमासी के
पहले चन्द्रमा क्या सावयव नही रहता, परन्तु जैसे उस दिन उसकी
पूर्णता उससे आ मिलती है ।
वैसे ही
दिखाई तो मैं ही देता हूँ पर अज्ञान के कारण दृश्य रूप से और भिन्न दिखाई देता हूँ
और दृष्टात्व विलीन होने पर मुझे ही अपनी प्राप्ति हो जाती है ।
अतएव, दृष्टिपथ
के परे जो मेरा भक्तियोग है उसे मैंने चौथा कहा है ।
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