04 जुलाई 2017

2 या अनेक परमात्मा

बहुत सी बातें बताना उचित नहीं होती या कहिये, उनका कुछ लाभ नहीं होता ।
जैसा कि अधिकांश लोग मुझे (मेरे कथन आधारों पर) किसी दूसरी दुनियाँ का समझते हैं ।
मुझे सामान्यतः लगता है वे सत्य हैं परन्तु आंशिक ही ।
क्योंकि उससे ज्यादा सोचना ‘बुद्धिक परिभाषा, और लक्षण, और क्षमता’ के अंतर्गत संभव नही ।
ऐसा क्यों ?
इस सृष्टि का सर्वोच्च (जो भी ‘वह’ है) और बौद्धिक शब्द और उसमें निहित उपाधि ‘परमात्मा’ है ।
अब इस ‘हौआ’ बन चुके शब्द के निहितार्थ को सरलता से समझें ।
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परमात्मा - न आदि है, न अन्त है । न है, न नही है । अजर, अमर, अविनाशी आदि आदि है ।
ये इस शब्द के निहितार्थ प्रमुख अवयव या गुण-धर्म हैं ।
और इससे ऊपर या परे जैसे सोचने पर भी Stop है ।
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अब इसे उपर लिखित वही ‘निश्चित वैचारिक क्षमता’ या ‘अधिकाधिक ज्ञान सामर्थ्य’ के अन्दर स्वीकार लें तो ठीक है अन्यथा यहाँ ‘प्रज्ञा’ आदि शब्द देकर औपचारिकता सी हो जाती है एक तसल्ली सी ही हो जाती है लेकिन प्रज्ञा भी कहते किसको हैं उसका अनुभव क्या कैसा है ?
ये अधिकांश के लिये हवा हवाई ख्याल ही हैं ।
तब वहाँ ‘बुद्धि’ ‘प्रज्ञा’ या जिससे जाना जा रहा है, अनुभव हो रहा है वो क्या है, कैसा है ।
इसके लिये सर्वाधिक समर्थ संस्कृत या हिन्दी भाषा में भी शब्द नहीं मिलता ।
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यदाकदा सन्त परिभाषा में आने वाले इक्का दुक्का लोग जो अनन्त गहराई (या दूसरे भावों में ऊँचाई) में गये हैं ।
उनका मानना है - यहाँ की परिभाषा, गुण धर्म, वर्णन आदि हेतु सांसारिक शब्द काम नहीं करते ।
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वास्तव में परमात्मा को लेकर जो भी ‘सार निष्कर्ष’ कहे गये ।
वे कृतिम हैं या फ़िर वही बात, उसी ‘सीमित क्षमता’ के अन्दर कहे हैं ।
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अब थोङा विशेष गौर करें - ये क्यों कहा गया कि परमात्मा का न आदि है, न अन्त है ।
कहने वाले को कैसे पता कि उसकी कभी शुरूआत या जन्म नहीं हुआ और वह किस आधार पर निश्चित है कि उसका कभी अन्त नही होगा ?
इसी में अमर (मृत्यु न होना) अविनाशी (नष्ट न होना) भी कहा जा सकता है ।
विशेष गहराई से समझें - सच बात तो यह है कि स्वयं, जिसको परमात्मा आदि कहा जाता है,
उसे ही अब तक नहीं पता कि वो कौन है, क्या है, क्यों है और कब तक है ?
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अब पहले तो परमात्मा के प्रति ‘दो प्रमुख स्थितियों’ को समझें ।
इसमें से एक को अनुभूत कर चुके महाज्ञानी जानते हैं ।
और दूसरे उनके ही वर्णन आधार पर बनी अनेकों धारणाओं का चूरमा बनाकर बनायी हुयी एक मोटी और ‘कामन’ धारणा है ।

जो सामान्यतः बिलकुल नाजानकार से लेकर, कुछ कुछ छोटे मोटे अनुभवी जानते/मानते हैं ।
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यद्यपि (मेरी नहीं बल्कि अब तक उपलब्ध और सटीक) शब्द असामर्थ्य को लेकर यह कठिन ही है फ़िर भी समझाने की कोशिश करता हूँ ।
स्थितिप्रज्ञता और उसके वर्णन आधार पर निर्मित काल्पनिक धारणाओं के आधार पर
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परमात्मा आखिर कहते किसे हैं ?
1 - अब तक अनुभूत और सर्वोच्च स्थिति ‘विस्माध’ है ।
विस्माध के सरल वर्णन में कहा जाता है - तब जब वह ‘आप ही आप’ है ।
बल्कि उससे भी परे । अकथनीय ! अवर्णनीय !
अब इसके लिये समाधि, परम समाधि जैसे शाब्दिक अन्य अन्य अलंकार चाहे जितने बना लें ।
अनुभवी ज्ञानी ‘इसको’ ही परमात्मा कहते हैं ।
विशेष - इसे (जो ये है) किसी से कोई मतलब नहीं, न इसकी कोई सृष्टि है, न ये किसी का कोई नियन्ता है । मूलतः ये समझें, इसे किसी से कुछ लेना देना नही ।
2 - लेकिन परमात्म तत्व को सिर्फ़ प्रारम्भिक और बेहद सीमित स्तर पर जानने/अनुभूत करने वाले इससे भी 2-3 स्थित बाद (नीचे की ओर) को परमात्मा कहते हैं ।
जो दरअसल पहला और मूल अंतःकरण (जिसे ‘आदि-निरंजन’ नाम से कहा गया) है और जिसने पूरी सृष्टि को धीरे धीरे, कई चरणों में, कई बार बना बिगाङ कर, सुधार कर रचा है ।
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कबीर के अतिरिक्त इस ‘परमात्मा 2’ से आगे/अलग बढ़ने की धृष्टता किसी ने नहीं की ।
और कबीर ने भी ‘विस्माध’ ‘हंस’ या ‘आप ही आप’ के बाद बात खत्म कर दी ।
# मैं निश्चित नहीं कि कबीर इससे परे/अतिरिक्त भी जानते थे ।
सन्त-मत में ‘अकह’ को अन्तिम स्थिति कहा है पर सच कहा जाये तो ‘अनन्त’ की यहाँ से शुरूआत होती है ।
अकह को सिर्फ़ एक ही (सामान्य) भाव में कहा गया है । अनन्त के प्रति इसको छुआ भी नही गया । क्योंकि उसके कहे जाने का भी कोई अर्थ नहीं, जो इस ‘सामान्य अकह’ (पर) तक आ जाता है ।
उसे किसी की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं है ।
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यद्यपि एक उल्लेखनीय जिक्र करना चाहूँगा कि कबीर मतालम्बियों में ‘सतलोक’ ‘चौथा लोक’ और उसके अधिपति ‘सतपुरुष’ का बङे जोर शोर से और ‘अन्तिम स्थिति’ जैसी घोषणा करता हुआ सिद्धांत आता है ।
पर कबीर ने कहा है - एक बार मेरे अन्दर ये विचार उठा कि सतलोक से आगे क्या है ?
मैं आगे गया और उसी तरह एक के बाद एक अनेक सतलोक आते गये ।
जैसे प्रथ्वी पर ‘अन्तिम क्षितिज को पाना’
और जैसे अनेक सतलोक थे उसी प्रकार उतने ही सतपुरुष भी थे ।
यहाँ एक गूढ़ बात विशेष ध्यान रखना कि - कबीर एक ही थे ।
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इस लेख के द्वारा मैं वह कहना चाहता हूँ जो (मेरी जानकारी में तो) आज तक नहीं कहा गया ।
#आत्म तत्व, परमात्म या जो भी वह है (ध्यान रहे, जो शोध के एकदम करीब पहुँचें उन्होंने) ‘इसे’ आत्मा, परमात्मा जैसे शब्द नहीं दिये । क्योंकि ये शब्द अपने अर्थ को लेकर ‘उस सत्य’ को समझाने में समर्थ नहीं थे और आजकल तो उतना भी प्रभावित नहीं रहे ।
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बात यह है कि वह इतना ‘सूक्ष्म तत्व’ है कि (कितना है ?) इसको लेकर फ़िर वही व्यक्त न कर पाने की असमर्थता ही है । और ‘यहाँ’ पहुँचकर कभी एक विलक्षण अचलता, या फ़िर अन्य मुख्य स्थिति में एक सर्व-व्यापी प्रवाह महसूस होता है ।
अब यहाँ गौर करना, अचलता में भी वह गतिहीन है निस्पन्द है और दूसरी स्थिति में जो सर्व-व्यापी प्रवाह महसूस होता है । वो भी उसी अचल स्थिति में और उसी में, उसी के अन्दर ही महसूस होता है ।
इस समय, जैसे तीव्र वेग से बहती मोटी धारा में हाथ या पैर डालने पर जैसा ‘बल’ अनुभव होता है । ठीक वैसा ही बल अनुभव होता है ।
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अब जो लेख का मुख्य बिन्दु है !
जब वह ‘मूलतत्व’ इतना सूक्ष्म और अचल है (इसमें जो विराट अनुभव होता है उसको किसी led जैसे छोटे बल्ब से निकलती प्रकाश किरणें, बनते दायरे से समझें, यही निरति कही गयी है) और उसमें से उठती निरति और सुरति इतने में ही यह सृष्टि है ।
यहाँ रैदास, कबीर आदि के उन कथनों पर ध्यान दें ।
जिसमें उन्होंने सृष्टि स्थिति को ‘गूलर फ़ल’ वट बीज के समान कहा है ।
फ़िर से ध्यान कर लें, अभी तक अन्तिम और निर्णायक तौर पर इसे ‘अचल’ कहा गया है ।
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तब बहुत संभव है कि इससे परे करोङों, अरबों बल्कि असंख्य और असंख्य प्रकार के सार-तत्व और सृष्टियां हो सकती हैं बल्कि इस सारतत्व का भी नियन्ता, जन्मदाता या अन्य कुछ हो सकता है ।
इस दृश्य को और सरलता से समझने हेतु काली रात के गहन काले आसमान में चमकते असंख्य तारों को देखिये और जानिये कि ये स्थिर, अचल हैं ।
लेकिन इन्हीं में प्रत्येक में एक ऐसी ही सृष्टि समाई हुयी है जैसी हमारे अनुभव में आ रही है ।
अब इन्हीं असंख्य तारों को, एक एक को उसी ‘सार-तत्व’ को जानो । परमात्मा मानो ।
तब ये तारे आपस में सिर्फ़ सौ फ़ुट दूर या एक फ़ुट या छह इंच या एक इंच पर भी हों ।
तो भी हमें उनके बारे में पता नही है कि कितने परमात्मा हैं या हो सकते हैं ?
# इस समय मैं इसी खोज अभियान पर हूँ ।
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अगर लेख में कही बात आप ग्रहण कर सके तो एक ‘अजीब सा’ झटका लग सकता है ।
बस एक बात पर आपको ये लेख एकदम आधारहीन, निरर्थक लग सकता है कि - सृष्टि तो अरबों वर्ष से है, इस तत्व का न आदि है न अन्त है, जीव अविनाशी है, अमर अजर आदि है ।
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ये सब किताबी और किस्साई बातें हैं ।
ये यदि सच हैं तो इसी रचना के अंतर्गत, रचना से बाहर नहीं ।
और ‘समय’ ?
समय की कृतिमता, जोन के अनुसार मानक के घटाव बढ़ाव, अन्य अन्य अनेक भूमिकाई रूपान्तरण तो सन्तों के ही अनुभव में प्रायः आते रहे ।
और अब तो प्रमुख वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे ।
यानी ‘यथार्थ’ रूप में समय जैसा कुछ है ही नहीं, बल्कि ये अनुभव रूप व्यंजन है ।
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अन्त में माथापच्ची
समाधि, साक्षात्कार, साक्षी, द्वैत, अद्वैत आदि जिनको खोजने हेतु सब व्यग्र हैं ।
ये सब इकठ्ठे कहाँ पाये जाते हैं ?
(अर्थात कुछ ऐसा जानना, युक्ति हो, जिससे सब एक साथ पकङ में आ जायें)
उत्तर - ?

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