प्रत्येक बात के दो अर्थ होते हैं ।
एक सामान्य सांसारिक भावों का अर्थ और दूसरा गूढ़, गम्भीर, पहेलीनुमा अर्थ ।
पहुँचे हुये सन्तों की वांणियां ऐसे ही दो अर्थों वाली होती हैं ।
कबीर की वाणी देखिये -
कस्तूरी कुंडलि बसे, मिरग ढ़ूंढ़े वन माहि ।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनियां देखे नाहिं ।
सामान्य अर्थ -
- विशेष जाति का एक मृग जिसकी नाभि में कस्तूरी नामक दुर्लभ वस्तु पायी जाती है । वह मृग अपनी ही नाभि से उठती कस्तूरी की तीव्र गन्ध से व्याकुल उस गन्ध का स्रोत खोजने हेतु वन में दौङता है ।
(इस तरह शिकारियों को उसका आभास हो जाता है और वह उनके विशेष छल द्वारा मारा जाता है)
- इसी प्रकार ‘घट-घट’ (प्रत्येक शरीर में) राम हैं लेकिन संसारी उसे देखते/जानते नहीं ।
----------------
गूढ़ अर्थ -
- कस्तूरी का अर्थ हम यहाँ उस अतृप्त प्यास, अज्ञात तपन और अज्ञात की चाह से करते हैं जो समय मिलते ही हरेक को बैचेन करती है कि - वह खुद नहीं समझ पाता कि क्या चाह रहा है और उसकी समस्त आपाधापी और अशान्ति किस कारण से है ?
- कुंडल का अर्थ घेरेदार अर्थात नाभि से (बसे) है ।
- मिरग का अर्थ बङा रहस्यपूर्ण है । इसका रहस्य मृगतृष्णा शब्द और मायामृग में भी है ।
मृगतृष्णा मतलब वही, तपते मरुस्थल में प्यास से तङपते हुये मृग को जलते रेत पर शीतल पानी की लहरों की मरीचिका आभासती है ।
और वह बार बार धोखा होने के बाबजूद आगे और आगे चलता जाता है और अन्त में प्यास से बेदम होकर गिर जाता है ।
- मृग के लिये मैंने अक्सर हिन्दी विद्वानों की किताब में ‘हरिण’ शब्द लिखा देखा है जो ही मेरे हिसाब से अधिक उचित है लेकिन हरिण की जगह हिरण या हिरन कैसे कर हुआ, यह शोध का विषय है ।
- अधिक बारीकी में न जाते हुये हिरण शब्द के उदभव में मुझे हिरण्य शब्द कारण लगता है जो (सही अर्थों में) हिरण्यगर्भ यानी सूक्ष्म शरीर के लिये प्रयुक्त होता है ।
इस शब्द के भी गूढ़ार्थों में जायें तो मृग के भावार्थ लिये ये शब्द ठीक हो जायेगा लेकिन आंतरिक स्थितियों के साथ, जिसको नगण्य लोग समझ पाते हैं ।
- लेकिन हरिण शब्द स्थूल होकर काफ़ी हद तक सरल हो जाता है ।
हरि (स्वांस) और ण (स्थिति, स्थित) यानी सांस द्वारा स्थित ।
- अब ‘सांस द्वारा स्थित = हरिण’ नामक जानवर कैसे हुआ, इतनी बारीकी से इस ‘लेख’ में बताना संभव नहीं (और वैसे भी ऐसे लेख सामान्य लोगों के लिये न होकर शोधार्थियों के लिये होते हैं)
- ढ़ूंढ़े वन माहि का अर्थ सरल है, वन में खोज रहा है ।
--------------
अब ‘आगे की लाइन’ के लिये सतर्क हो जाईये और गौर से समझिये ।
कबीर कह रहे हैं - ऐसे ? ठीक ऐसे ही घट (शरीर) में कुंडल (नाभि) में वह स्रोत है जहाँ से राम को जाया/पाया जा सकता है ।
--------------
विशेष - यह तो अर्थ हुआ आगे समझिये ।
योग वर्णन में नाभि स्थान को ही ‘भवसागर’ कहा गया है और सुरति शब्द योग में इसे भवसागर के अतिरिक्त ‘महाकारण’ शरीर स्थिति कहा है ।
महाकारण का गहरा अर्थ समझिये ।
उस ‘कारण’ से पार की स्थिति जहाँ किसी ने जीवत्व धारण किया और इस भवसागर में भटक गया । और इसी में चाँद, सूरज, तारे, ब्रह्माण्ड आदि स्थित हैं ।
और एक स्थिति में वह स्थिति जब आत्मा से पंच महाभूत क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर उपजे ।
इस महाकारण के बाद तुरीया (अहं ब्रह्मास्मि) है ।
जो महाकारण में ‘अविचल स्थिति’ के बाद बहुत सरल बात रह जाती है ।
अब कबीर का इस दोहे को लेकर इशारा समझ में आ गया होगा ।
या नहीं आया ?
---------------
ठीक यही बात निम्न दोहा कह रहा है ।
पानी में मीन प्यासी, मोहे सुन सुन आवत हांसी ।
अर्थात जो अज्ञात, अतृप्त प्यास है उसको तृप्ति देने का स्रोत स्वयं सागर तेरे पास है ।
तू उसके केन्द्र (नाभि) पर सुर्त लगा । सुरति लगा । सु-रति लगा । अपनी-चेष्टा लगा ।
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अब इस पद को देखिये -
काहे री नलिनी तूं कुमिलानी । तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥
- सांसारिक तपन से जलती हुयी (सु-रति) कमलिनी क्यों उस ‘अज्ञात प्यास’ से बैचेन है ।
तेरे ही (गर्भ) नाल कुंड (सरोवर) में वह ‘जल’ है ।
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।
अब यहाँ इसके ‘जल में कमल के उत्पन्न होने’ के बजाय जो छुपा रूपक भाव है उसे देखें ।
इसी नाभि कुंड से तेरी उत्पति हुयी है और ‘सांसों के ठहराव’ से (अभी) यही तेरा वास है ।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥
- अपने स्वरूप को जानने पर ये नीचे स्थिति भवसागर भी और ऊपर (सर्वत्र) तेरे लिये शीतल है अर्थात तुझे कोई बन्धन (कासनि) नहीं ।
कहे ‘कबीर’ जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।
- उदकि का अर्थ जल है और आपु या आप का भी ।
तब यहाँ नाभि (भवसागर) में जिसका ‘कारण’ खत्म हो गया, मिथ्या अहं नष्ट हो गया तो, क्योंकि वो उत्पन्न ही यहाँ से हुआ है । इसलिये स्वयं भवसागर रूप हो गया, सबमें स्वयं को ही देखने लगा ।
आपु ही आप हो गया ।
तो कबीर कहते हैं ।
विशेष गौर करिये - कबीर कहते हैं वे हमारी जानकारी में फ़िर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुये अर्थात अमर हो गये - ते नहिं मुए हमारे जान ।
इस स्थिति पर भी कबीर के बहुत पद/दोहे हैं ।
पर निम्न को और देखिये ।
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
कुंभ, घट, घङा तीनों का एक ही अर्थ है और शरीर को घटोपाधि यानी घट उपाधि यानी (तत्व कच्चे होने के कारण) कच्चा घङा कहा गया है और इसकी स्थिति उसी भवसागर नाभि से हुयी है ।
घङे के अन्दर बाहर जल ही जल है ।
फ़ूटा कुंभ जल जलहि समाना, येहि गति बिरले जानी ।
जिस अहं रूपी कारण से यह कुंभ उत्पन्न हुआ । उसके नष्ट होने पर यह ‘आप ही आप’ हो जायेगा ।
लेकिन इस गति को बिरले ही प्राप्त करते हैं ।
क्योंकि अन्य कहीं न कहीं घट (शरीर), पट (माया), भव (कुछ होने की इच्छा) से बंधे हैं ।
और इसी भवसागर की (मन रूपी) भंवर में घूमते रहते हैं ।
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ब्लाग की पाठिका सुनीता यादव ने निम्न दोहे का अर्थ जानना चाहा है ।
जो बेहद सरल है ।
आप बुद्धि लगाईये और इसका अर्थ टिप्पणी में लिखिये ।
ज्ञान कर ज्ञान कर, ज्ञान का गेंद कर ।
सुर्त का डंड कर, खेल चौगान मैदान माहि ।
खलक की भरमना, छोड़ दे बालका ।
आजा भगवंत भेष माहि ।
एक सामान्य सांसारिक भावों का अर्थ और दूसरा गूढ़, गम्भीर, पहेलीनुमा अर्थ ।
पहुँचे हुये सन्तों की वांणियां ऐसे ही दो अर्थों वाली होती हैं ।
कबीर की वाणी देखिये -
कस्तूरी कुंडलि बसे, मिरग ढ़ूंढ़े वन माहि ।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनियां देखे नाहिं ।
सामान्य अर्थ -
- विशेष जाति का एक मृग जिसकी नाभि में कस्तूरी नामक दुर्लभ वस्तु पायी जाती है । वह मृग अपनी ही नाभि से उठती कस्तूरी की तीव्र गन्ध से व्याकुल उस गन्ध का स्रोत खोजने हेतु वन में दौङता है ।
(इस तरह शिकारियों को उसका आभास हो जाता है और वह उनके विशेष छल द्वारा मारा जाता है)
- इसी प्रकार ‘घट-घट’ (प्रत्येक शरीर में) राम हैं लेकिन संसारी उसे देखते/जानते नहीं ।
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गूढ़ अर्थ -
- कस्तूरी का अर्थ हम यहाँ उस अतृप्त प्यास, अज्ञात तपन और अज्ञात की चाह से करते हैं जो समय मिलते ही हरेक को बैचेन करती है कि - वह खुद नहीं समझ पाता कि क्या चाह रहा है और उसकी समस्त आपाधापी और अशान्ति किस कारण से है ?
- कुंडल का अर्थ घेरेदार अर्थात नाभि से (बसे) है ।
- मिरग का अर्थ बङा रहस्यपूर्ण है । इसका रहस्य मृगतृष्णा शब्द और मायामृग में भी है ।
मृगतृष्णा मतलब वही, तपते मरुस्थल में प्यास से तङपते हुये मृग को जलते रेत पर शीतल पानी की लहरों की मरीचिका आभासती है ।
और वह बार बार धोखा होने के बाबजूद आगे और आगे चलता जाता है और अन्त में प्यास से बेदम होकर गिर जाता है ।
- मृग के लिये मैंने अक्सर हिन्दी विद्वानों की किताब में ‘हरिण’ शब्द लिखा देखा है जो ही मेरे हिसाब से अधिक उचित है लेकिन हरिण की जगह हिरण या हिरन कैसे कर हुआ, यह शोध का विषय है ।
- अधिक बारीकी में न जाते हुये हिरण शब्द के उदभव में मुझे हिरण्य शब्द कारण लगता है जो (सही अर्थों में) हिरण्यगर्भ यानी सूक्ष्म शरीर के लिये प्रयुक्त होता है ।
इस शब्द के भी गूढ़ार्थों में जायें तो मृग के भावार्थ लिये ये शब्द ठीक हो जायेगा लेकिन आंतरिक स्थितियों के साथ, जिसको नगण्य लोग समझ पाते हैं ।
- लेकिन हरिण शब्द स्थूल होकर काफ़ी हद तक सरल हो जाता है ।
हरि (स्वांस) और ण (स्थिति, स्थित) यानी सांस द्वारा स्थित ।
- अब ‘सांस द्वारा स्थित = हरिण’ नामक जानवर कैसे हुआ, इतनी बारीकी से इस ‘लेख’ में बताना संभव नहीं (और वैसे भी ऐसे लेख सामान्य लोगों के लिये न होकर शोधार्थियों के लिये होते हैं)
- ढ़ूंढ़े वन माहि का अर्थ सरल है, वन में खोज रहा है ।
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अब ‘आगे की लाइन’ के लिये सतर्क हो जाईये और गौर से समझिये ।
कबीर कह रहे हैं - ऐसे ? ठीक ऐसे ही घट (शरीर) में कुंडल (नाभि) में वह स्रोत है जहाँ से राम को जाया/पाया जा सकता है ।
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विशेष - यह तो अर्थ हुआ आगे समझिये ।
योग वर्णन में नाभि स्थान को ही ‘भवसागर’ कहा गया है और सुरति शब्द योग में इसे भवसागर के अतिरिक्त ‘महाकारण’ शरीर स्थिति कहा है ।
महाकारण का गहरा अर्थ समझिये ।
उस ‘कारण’ से पार की स्थिति जहाँ किसी ने जीवत्व धारण किया और इस भवसागर में भटक गया । और इसी में चाँद, सूरज, तारे, ब्रह्माण्ड आदि स्थित हैं ।
और एक स्थिति में वह स्थिति जब आत्मा से पंच महाभूत क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर उपजे ।
इस महाकारण के बाद तुरीया (अहं ब्रह्मास्मि) है ।
जो महाकारण में ‘अविचल स्थिति’ के बाद बहुत सरल बात रह जाती है ।
अब कबीर का इस दोहे को लेकर इशारा समझ में आ गया होगा ।
या नहीं आया ?
---------------
ठीक यही बात निम्न दोहा कह रहा है ।
पानी में मीन प्यासी, मोहे सुन सुन आवत हांसी ।
अर्थात जो अज्ञात, अतृप्त प्यास है उसको तृप्ति देने का स्रोत स्वयं सागर तेरे पास है ।
तू उसके केन्द्र (नाभि) पर सुर्त लगा । सुरति लगा । सु-रति लगा । अपनी-चेष्टा लगा ।
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अब इस पद को देखिये -
काहे री नलिनी तूं कुमिलानी । तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥
- सांसारिक तपन से जलती हुयी (सु-रति) कमलिनी क्यों उस ‘अज्ञात प्यास’ से बैचेन है ।
तेरे ही (गर्भ) नाल कुंड (सरोवर) में वह ‘जल’ है ।
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।
अब यहाँ इसके ‘जल में कमल के उत्पन्न होने’ के बजाय जो छुपा रूपक भाव है उसे देखें ।
इसी नाभि कुंड से तेरी उत्पति हुयी है और ‘सांसों के ठहराव’ से (अभी) यही तेरा वास है ।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥
- अपने स्वरूप को जानने पर ये नीचे स्थिति भवसागर भी और ऊपर (सर्वत्र) तेरे लिये शीतल है अर्थात तुझे कोई बन्धन (कासनि) नहीं ।
कहे ‘कबीर’ जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।
- उदकि का अर्थ जल है और आपु या आप का भी ।
तब यहाँ नाभि (भवसागर) में जिसका ‘कारण’ खत्म हो गया, मिथ्या अहं नष्ट हो गया तो, क्योंकि वो उत्पन्न ही यहाँ से हुआ है । इसलिये स्वयं भवसागर रूप हो गया, सबमें स्वयं को ही देखने लगा ।
आपु ही आप हो गया ।
तो कबीर कहते हैं ।
विशेष गौर करिये - कबीर कहते हैं वे हमारी जानकारी में फ़िर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुये अर्थात अमर हो गये - ते नहिं मुए हमारे जान ।
इस स्थिति पर भी कबीर के बहुत पद/दोहे हैं ।
पर निम्न को और देखिये ।
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
कुंभ, घट, घङा तीनों का एक ही अर्थ है और शरीर को घटोपाधि यानी घट उपाधि यानी (तत्व कच्चे होने के कारण) कच्चा घङा कहा गया है और इसकी स्थिति उसी भवसागर नाभि से हुयी है ।
घङे के अन्दर बाहर जल ही जल है ।
फ़ूटा कुंभ जल जलहि समाना, येहि गति बिरले जानी ।
जिस अहं रूपी कारण से यह कुंभ उत्पन्न हुआ । उसके नष्ट होने पर यह ‘आप ही आप’ हो जायेगा ।
लेकिन इस गति को बिरले ही प्राप्त करते हैं ।
क्योंकि अन्य कहीं न कहीं घट (शरीर), पट (माया), भव (कुछ होने की इच्छा) से बंधे हैं ।
और इसी भवसागर की (मन रूपी) भंवर में घूमते रहते हैं ।
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ब्लाग की पाठिका सुनीता यादव ने निम्न दोहे का अर्थ जानना चाहा है ।
जो बेहद सरल है ।
आप बुद्धि लगाईये और इसका अर्थ टिप्पणी में लिखिये ।
ज्ञान कर ज्ञान कर, ज्ञान का गेंद कर ।
सुर्त का डंड कर, खेल चौगान मैदान माहि ।
खलक की भरमना, छोड़ दे बालका ।
आजा भगवंत भेष माहि ।
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