जय जय श्री गुरुदेव । बहुत सारी शंकाओं का समाधान के लिये धन्यवाद । गुरुदेव ! कृपया कर बतायें ।
देव । गन्धर्व । काल पुरुष । विष्णुजी । शंकरजी । रामजी । कृष्णजी । और परमात्मा में अंतर क्या है ? एवं कृष्णजी और रामजी की कलाओं से तात्पर्य क्या है ? समझाईये । Mukesh Sharma " क्या राम और कृष्ण ने भी गुरु दीक्षा ली थी " पर एक टिप्पणी ।
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स्वांत सुखाय - और लोगों ( सन्तों ) की मैं नहीं जानता । पर खुद मेरा अनुभव है कि सरकारी ( सत्ता से जुङना ) हो जाने पर इंसान ( जीवात्मा ) के निज स्वभाव में एक बेफ़िक्री । काम से उदासीनता और सन्तत्व के कुछ आवश्यक गुणों का लोप होकर एक लापरवाही सी आ जाती है । क्यों ? अब उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं रहा । अपनी अमरता और निरन्तरता को लेकर एक विशेष प्रकार की निश्चिन्तता उसके अन्दर आ गयी । मानस में लिखा है - प्रभुता पाय किन्हें मद नाहीं । स्पष्टवादिता का समर्थक होने के कारण मैं इस बात को खुले तौर पर ही स्वीकार करता हूँ । अतः कहीं न कहीं मैं भी इस स्वाभाविक स्वतः स्फ़ूर्त मद से अछूता नहीं हूँ । पर यह दुर्गुण अकेला
मुझमें ही हुआ हो । ऐसा नहीं है । कबीर को देखिये - हम न मरिहें मरिहे संसारा । हमको मिला जियावन हारा । राम मरे तो हम हू मरिहें । लेकिन क्योंकि अन्दर सन्तत्व ( योग क्रियाओं द्वारा ) जागृत हो चुका होता है । अतः यह मद ( कृतिम । बनाबटी और ) अस्थायी ही होता है । तब ऐसे साधु के मिजाज में अनोखी फ़क्कङता आ जाती है । फ़क्कङ । जिस पर कोई भी ( सृष्टि का ) नियम लागू नहीं होता ।
अतः मैं भी कभी कभी बीच बीच में ऐसे अनुभव से गुजरता हूँ । या कहना चाहिये । स्थिति के अनुसार उसका प्रभाव कहीं न कहीं महसूस होता ही है । जैसे गर्म मौसम से गर्मी महसूस होना आदि स्वतः है । आप अपनी इच्छा से उसको ऐसा नहीं कर रहे है ।
खैर.चलिये । इस विषय पर फ़िर कभी बात करते हैं । अभी मुकेश जी की जिज्ञासाओं पर चर्चा करें ।
जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ । आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । आदि सृष्टि से भी पूर्व जो सार तत्व था । और जो शाश्वत था । अविनाशी है । और जिससे ही यह सम्पूर्ण सृष्टि हुयी । उसी को खोजियों ने आत्मा कहा । यानी वो स्थिति ( वास्तव में तो इसको स्थिति कहना भी गलत है । क्योंकि यहाँ कोई स्थिति या उपाधि है ही नहीं । ये जो है । सो है । और बस है । इसलिये बस समझाने के लिये स्थिति शब्द का प्रयोग किया है ) जहाँ कल्पित सृष्टि और प्रकृति का भी इसी सारतत्व में लय हो जाता है । कुछ भी नहीं बचा । सिवाय शाश्वत के । लेकिन जब सृष्टि हो गयी । तब सृष्टि से भी पार या पूर्ण परे ( ध्यान रहे । विराट से भी परे । क्योंकि विराट ( मनुष्याकार ) भी सृष्टि के अन्तर्गत ही है । ) इसी आत्मा को " परमात्मा " भी कहा गया है । जीव से आत्मा तक का सफ़र परमात्मा कहलाता है । अब समझिये । आत्मा शाश्वत है । और चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही है । इसके अलावा सबसे बङी और महत्वपूर्ण शक्ति प्रकृति ( चेतन के बिना ) एकदम जङ है । तो आत्मा तो जो है । सो है ही । प्रमुख बात है । इसकी चेतना । ऊर्जा । गतिशीलता । अब जो भी नाम या उपाधियाँ आपने लिखी । वह अलग अलग स्तर के चेतन पुरुष की उपाधियाँ जातियाँ या प्रकार हैं । विष्णु सत्व गुण का प्रतिनिधि पुरुष है । सीधी सी बात है । इसकी एक निश्चित आयु है । अधिकार है । तय ऐश्वर्य हैं । इस ( विष्णु ) स्थिति को प्राप्त होने वाले तपस्वी जीवात्मा को यह सब प्राप्त होता है । शास्त्रों में 4 प्रकार की जिस मुक्ति ( ध्यान रहे । मोक्ष या मुक्त नहीं ) का विधान है । उसमें इस स्थिति को स्पष्ट लिखा है । अब सत्व गुण 3 गुणों में से मात्र 1 है । अतः विष्णु की स्थिति स्वतः समझ में आती है । रामचरित मानस में लिखा है - कहिय तात सो परम वैरागी । तृण सम सिद्ध तीन गुन त्यागी । यानी तीनों गुणों को त्यागने वाला साधु सिर्फ़ वैरागी स्तर का होता है । लेकिन सृष्टि में सत्व गुण को प्रधानता दी गयी है । यह एक तरह से चेतन की गुणयुक्त रूपांतरित ऊर्जा है । और सृष्टि में प्रमुख भूमिका निभाती है । अतः विष्णु ( पद ) या सत गुण का महत्व आपको तमाम धार्मिक पुस्तकों में भरपूर मिलेगा । और यह सत्य भी है । तुच्छ जीवात्मा में यदि किसी प्रकार से भरपूर सतोगुणी वृद्धि हो जाये । तो वह अतिरिक्त ऊर्जावान और दिव्यता से युक्त होने लगता है । यह था विष्णु स्थिति को समझाने का प्रयास ।
यही वात शंकर पर लागू होती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है । यह देवता तमोगुणी है । इसकी पूजा राक्षसी वृतियों को बङावा देती है । इसके पूजक अन्त में भयंकर कुरूप भूत प्रेत वैताल आदि गण ही बनते हैं । तमोगुण के विकारों से सभी परिचित ही हैं । हिन्दू आदि जनमानस में थोङा भृम इसलिये है कि शिव ( महान और कल्याणकारी शक्ति ) और शंकर को अज्ञानता से 1 ही कह दिया गया है । जिस तरह से कई स्थानों पर विष्णु शंकर कृष्ण आदि उपाधियों को अज्ञानता से परमात्मा कहा गया है । जबकि परमात्मा से इनका दूर दूर तक वास्ता नहीं है ।
राम या ररंकार का तात्विक अर्थ समग्र में व्याप्त चेतना से है । जिसको रमना रमण या रमता आदि भी कहते हैं । यहाँ आपका आशय दशरथ पुत्र राम से है । यह 12 कलाओं का मर्यादा युक्त आदर्श पुरुष का साकार होना है । 1 दोहा है - जग में 4 राम है 3 सकल व्यवहार । चौथा राम निज सार है उसका करो विचार । तो कौन कौन से हैं ये 4 राम ? 1 राम दशरथ का बेटा । 1 राम घट घट में पैठा । 1 राम का सकल पसारा । 1 राम तिन हू से न्यारा । यह अन्तिम राम ही सभी जीव मात्र का लक्ष्य है । सिर्फ़ आत्मा में ही चेतन गुण है । और ये चेतना विभिन्न जीवों के स्तर पर नियन्त्रित है । जैसे चींटी और हाथी की चेतना में काफ़ी फ़र्क है । 1 पौधा रूपी वृक्ष और 1 विशालकाय वृक्ष की चेतना % में बहुत फ़र्क है । इसलिये ये राम चेतना जीव की जरूरत के अनुसार अन्य अंगों से नियन्त्रित है । र या ररंकार ( ध्वनि रूपी मंत्र जो मष्तिष्क में सदगुरु द्वारा प्रकट होता है । ) आत्मा की चेतना को सृष्टि की ऊर्जा पूर्ति हेतु जीव चेतना में रूपांतरित करता है । र अक्षर में जुङा म अक्षर माया का आवरण है । इसी से चेतन का सहयोग लेकर माया अज्ञान ( स्वपनवत ) सृष्टि का सृजन करती है । यही सूक्ष्मता का आंतरिकता में होने वाला खेल है । शास्त्रों में इसी को कहा है कि प्रकृति ( माया ) पुरुष ( चेतन ) के साथ निरन्तर क्रीङारत है । लेकिन आपकी जिज्ञासानुसार दशरथ पुत्र राम मर्यादा पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह हँस स्तर के योगी है । ये पदवी भगवान के समकक्ष है । क्योंकि ये अवतार थे । अतः बहुत सी छोटी बङी शक्तियाँ अवतारों का सहयोग सत्ता के आदेशानुसार करती हैं ।
श्रीकृष्ण को तात्विक रूप में कम शब्दों में समझाना असंभव है । श्रीकृष्ण का तात्विक अर्थ आकर्षण खिंचाव या चुम्बकत्व से है । चुम्बकत्व को समझना बहुत कठिन नहीं । कोई भी आकर्षण । जो बिना डोरी बंधन के हमें दूसरे की तरफ़ खींचता है । बाँध देता है । यह सृष्टि में फ़ैला आकर्षण ही है । ये मर्यादा रहित है । और सर्वत्र है । हालांकि चेतना भी सर्वव्यापी है । पर चेतना और कृष्णत्व में समानता सी होते हुये भी कुछ बारीक से अन्तर है । इसको 1 छोटे से उदाहरण से समझें । 1 वृक्ष में समाहित चेतना मर्यादा में । 1 निश्चित मात्रा में । और नियन्त्रित भी है । जबकि वृक्ष से जुङे तमाम आकर्षण ( बाह्य मगर अदृश्य तरंगे ) । वायुमण्डल से जुङी क्रियायें । अन्य व्यवहार अमर्यादित है । वे बहुत कम या बहुत ज्यादा भी हो सकते हैं । कोई कोई वृक्ष 1 गाँव को बङे स्तर पर अदृश्य रूप से लाभ या हानि कर रहा हो सकता है । इसलिये space में फ़ैले आकर्षण को सूक्ष्मता से बैज्ञानिक चिन्तन द्वारा ही समझा जा सकता है । इसका सजीव उदाहरण ( श्रीकृष्ण की बाँसुरी ) स्वामी विवेकानन्द ने अपने विदेश प्रचार के समय दिया था । गुरुत्व सबसे सर्वोच्च स्थिति है । गुरुत्व का स्वामी ही परमात्मा है । या यूँ कहिये । गुरुत्व परमात्मा से ही है । और ये बहुत ही अलग और विशेष बात है ।
काल पुरुष - सतपुरुष ( द्वारा चौथे या प्रथम लोक ( सचखण्ड ) की सृष्टि के समय ) के पाँचवें शब्द से उत्पन्न कालपुरुष ही इस त्रिलोकी सत्ता ( सृष्टि ) का मालिक होता है । देवी महामाया या अष्टांगी या बृह्मा विष्णु शंकर की माँ इसकी पत्नी है । यही सृष्टि की पहली औरत है । त्रिलोकी सृष्टि कर्म प्रधान है । इसमें वास्तविक मोक्ष है ही नहीं । काल ( पुरुष ) और माया द्वारा फ़ैलाये गये जाल में जीव लालच वासना मोह आदि के पाश से बँधा हुआ है । काल पुरुष की तात्विक ( आंतरिक ) योग स्थिति अक्षर या ज्योति या निरंजन है ।
परमात्मा - इन सभी । और भी सभी स्थितियों से परे । स्थिति और उपाधि से रहित निरुपाधि है । सरलता से कहें । तो ऊपर आये नामों ( पद ) में कोई परमात्मा नहीं है । परमात्मा को जानना ही सच्चे अर्थों में मोक्ष को प्राप्त होना है ।
देव गँधर्व अत्यन्त तुच्छ स्तर की देव योनियाँ है । और जहाँ तक राम कृष्ण की कलाओं की बात है । उसमें खास बात यही है । राम का स्तर मर्यादा में था । जैसे एक नहर मर्यादा में बहती है । और कृष्ण का स्तर विराट था । जैसे समुद्र । राम हँस तक का ज्ञान रखते थे । और श्रीकृष्ण परमहँस तक का ज्ञान । लेकिन बात इससे भी बहुत आगे तक होती है । सच कहा जाय । तो परमात्म ज्ञान की बात श्रीकृष्ण की हद समाप्त होने के बाद ही शुरू होती है ।
आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । साहेब ।
1 टिप्पणी:
क्या ईश्वर को इं आंखों से देखा जा सकता है
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