भगवान ! मैं प्रश्नों से भरा हूं । आप उत्तरों से । क्या मैं आशा करूं कि आप मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे ? यदि आप आश्वासन दें । तो मैं संन्यास तक लेने को तैयार हूं ।
- भाईदास भाई ! भाई कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो - संन्यास तक । जैसे कि कोई कहे कि जहर तक पीने को तैयार हूं । ऐसी झंझट में न पड़ो । अच्छे भले आदमी । चंगे आए । चंगे ही जाओ । क्या बिगड़ना है ? और तुमसे किसने कहा कि - मैं उत्तरों से भरा हूं । हां, प्रश्नों से खाली हो गया हूं । तुम प्रश्नों से भरे हो । मैं प्रश्नों से खाली हूं । उत्तरों से मैं भरा हूं । इस भ्रांति में न रहो । मैं कोई पंडित नहीं हूं । हां, तुम्हें भी प्रश्नों से खाली होना हो । तो मुझसे जुड़ सकते हो । वही संन्यास है । प्रश्नों के उत्तर नहीं होते । सदगुरु प्रश्नों के उत्तर नहीं देता है । प्रश्नों को तोड़ता है । तुम जरा गौर तो करो कि मैं तुम्हारे जो प्रश्नों के उत्तर देता हूं । वे उत्तर हैं ? कि इधर से लंगड़ी मारी । उधर से 1 दचका दिया । इधर खोपड़ी पर लट्ठ मारा । 1 हुद्दा आगे से । 1 पीछे से । इसको तुम उत्तर कहते हो ? उत्तर होते हैं - शास्त्रों में । यहां तो कुटाई पिटाई हो जाती है । और तुम कह रहे हो कि - आप मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे । यदि आप आश्वासन दें । गारंटी चाहते हो ? 1 ही बात की गारंटी दे सकता हूं कि तुम्हारे प्रश्नों को नष्ट कर दूंगा । 1-1 प्रश्न को उखाड़कर फेंक दूंगा । और उत्तर बाहर से नहीं आते । जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं । तो तुम्हारे भीतर ही उत्तरों का उत्तर । समाधानों का समाधान । इसीलिए तो हम उस अवस्था को समाधि कहते हैं । क्योंकि वह समाधानों का समाधान है । उत्तर नहीं है । जिंदगी कोई स्कूल की परीक्षा नहीं है कि प्रश्न पूछे । और उत्तर दे दिए । लेकिन आदतें हमारी खराब हैं । सड़ी गली आदतें हैं । दकियानूसी आदतें हैं ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
उठो, तमद्दुन के पासबानो । तुम्हारे आकाओं की जमीं से ।
उबल चुके जिंदगी के चश्मे । निशान सिजदों के अब जबीं से ।
मिटाओ, देखो छुपा न ले वो । लहू टपकता है आस्तीं से ।
गुलाम रूहों के कारवां में । नफस की आवाज भी नहीं है ।
उठो, मुहब्बत के पासबानो । ये कोहरो-सहरा, ये दश्तो-दरिया ।
तुम्हारे अजदाद गा चुके हैं । यहां पे वो आतिशीं तराना ।
जो गर्मिए-बज्म था, मगर अब । गुजर गया उसको इक जमाना ।
समंदे-अय्याम बर्क-पा है । उठो कि तारीख हर वरक पर ।
तुम्हारा शुभ नाम ढूंढती है । न देंगे आवाज उसके शह पर ।
जो वक्त उड़ता चला गया है । जमीन आंखों से मत कुरेदो ।
न मिल सकेंगी वो हड्डियां जो । जमीं का तारीक गहरा सीना ।
निगल चुका है--नया करीना । सिखाओ पामाल जिंदगी को ।
उठो, मजारों के पासबानो । चलो न गर्माओ जिंदगी को ।
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर । कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
यह देश क्या है - एक गुलाम रूहों का कारवां हो गया है ।
जिसमें कोई जीवन की घंटियां भी नहीं बजतीं ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
गुलाम रूहों के कारवां में । नफस की आवाज भी नहीं है ।
घड़ियाल तो क्या बजेंगे । यहां सांस की आवाज तक खो गई है ।
उठो, तमद्दुन के पासबानो । हे संस्कृति के पागलो ।
उठो, मुहब्बत के पासबानो । बहुत हो चुकीं प्रेम की बातें, अब उठो ।
उठो, मजारों के पासबानो । पूज चुके कब्रों को बहुत ।
उठो अब थोड़े जिंदगी को जीओ । ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर ।
कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ ।
भाईदास भाई, तुम कहते हो कि प्रश्नों से भरे हो । तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रश्न होंगे न । और अज्ञान में क्या प्रश्न हो सकते हैं ? और ज्ञान में तो प्रश्न होंगे ही क्यों ? अज्ञान में व्यर्थ के कुतूहल होते हैं । या चालबाजियां होती हैं । या धोखा होता है । या पाखंड होता है । तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हारी ही छाप होगी न । तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रतिबिंब होंगे न । तुम्हारे प्रश्न आखिर तुम्हारे भीतर ही से तो आएंगे । अब बबूल में कोई गुलाब के फूल तो न लगेंगे । अब बबूल के कांटों को मैं बैठा रहूं । तोड़ता रहूं । इससे भी क्या होगा ? नए कांटे उगते रहेंगे । इसलिए मैं तो जड़ मूल से तुम्हें मिटा दूंगा । भाईदास भाई, अगर तैयारी हो बिलकुल मिटने की । तो संन्यासी हो जाओ । आश्वासन 1 देता हूं कि मिटाऊंगा । बिलकुल मिटा दूंगा । जड़ों से उखाडूंगा । कहीं कुछ शेष न रहेगा तुम्हारा तुममें । और जब तुम्हारा तुम में कुछ भी शेष न रहेगा । तो पा जाओगे तुम सभी समस्याओं का समाधान ।
दादा चूहड़मल फूहड़मल बीमार थे । डाक्टर के यहां गए । डाक्टर ने सब जांचा परखा । और 2 दवा की गोली देकर कहा - 1 सुबह 1 शाम खाना । बस 1 ही दिन में बिलकुल चंगे नजर आओगे ।
दादा घबराकर बोले - क्या बोले बरी डाक्टर, नंगे नजर आओगे ।
डाक्टर ने कहा कि - नहीं नहीं, मैंने कहा । चंगे हो जाओगे । यानी मेरी दवा इतनी बढ़िया है कि 1 ही दिन में बिलकुल ठीक हो जाओगे ।
दादा बोले - अच्छा अच्छा, यह बात है । बरी यह तो बताओ कि दवा काहे के साथ खानी है ?
जवाब मिला - चाय या दूध के साथ खाईएगा । दादा को संतोष न हुआ - बरी डाक्टर हमको तो 1 बात बोल दो - या चाय । या दूध । हमको दोहरी बातें ठीक नहीं लगतीं ।
डाक्टर ने कहा - अच्छा तो दूध के साथ गोली लीजिएगा ।
दादा ने पूछा - दूध गाय का । या भैंस का ?
डाक्टर ने कहा - माफ करिए । मुझे और भी मरीज देखने हैं । अब आप ही अकेले तो नहीं कि आप से ही थोड़े ही सिर मारता रहूं । आपको जो दूध मिल जाए । उसी के साथ ले लेना । उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । दादा बोले - बरी डाक्टर, गुस्सा क्यों होते हो ? हम आज पहली बार ही ऐलोपैथी का इलाज करवा रहे हैं । इसलिए सब बातें क्लियर क्लियर जानना चाहते हैं । न हमारे घर गाय है । न भैंस । बकरियां हैं । यदि बकरी के दूध के साथ गोली खा लूं । तो कोई नुकसान तो नहीं है न ?
उत्तर मिला - नहीं ।
मगर दादा की जिज्ञासा अभी समाप्त न हुई - बरी, 1 बार और बताओ न । दूध गर्म चाहिए । या ठंडा ?
डाक्टर ने पिंड छुड़ाने के लिहाज से कह दिया - कुनकुना ।
दादा बोले - ठीक । दूध गिलास में पीना कि कटोरी में ?
डाक्टर को गुस्सा आ गया - साईं ! अब घर भी जाइए न । आपको कुछ और काम नहीं है क्या ?
दादा बोले - काम क्यों नहीं है । पर जब हमने आपको पूरी फीस दी है । तो बदले में हमें भी पूरी पूरी जानकारी तो दीजिए । बताईए कि दूध खड़े खड़े पीना है कि बैठकर पीना है ?
डाक्टर ने अपना माथा ठोंक लिया - साईं ! आप यह लीजिए अपनी फीस वापस । 10 का नोट पकड़ाते हुए उसने कहा - खुदा के वास्ते अब मेरा पीछा छोड़िए ।
दादा बोले - लेकिन बरी तुम तो नाराज होते हो । हम तो सीधा सादा आदमी है । कभी ऐलोपैथी का इलाज नहीं करवाया । इसलिए पूछता है कि दूध खुद अपने हाथ से पीना है । या मेरे मुन्ने की अम्मा यदि पिला दे । तो कोई नुकसान है ?
डाक्टर को भी हंसी आ गई । बोला - साईं, तुम तो बड़ा जानदार आदमी है । जा अब अपने घर । और मुन्ने की अम्मा के हाथ से दूध पी ।
दादा ने कहा - अच्छा तो जाता हूं बरी डाक्टर । मगर 1 बात तो बताओ कि घर तक पैदल जाऊं । या रिक्शे में बैठकर ?
डाक्टर ने कहा - रिक्शे में जाओ । इस बुखार में पैदल चलना ठीक नहीं । दादा डाक्टर से राम राम बरी साईं कहकर चल दिए । डाक्टर ने संतोष की सांस ली । लेकिन आश्चर्य की बात तो तब घटी । जब आधा घंटे बाद दादा लौट आए । और बोले - बरी डाक्टर, तुम कैसा इंसान है ? हमको यह नहीं बताया कि कौन सी गोली सुबह खानी है । और कौन सी शाम को खानी है । हमारा मुन्ने की अम्मा ने हमको बहुत डांटा ।
डाक्टर ने संयम साधकर कहा - यह सुबह खाईए । और यह शाम को ।
दादा बोले - तुम्हारी भूल के कारण हमको वापस आना पड़ा बरी । हमको फिर से घर जाने के लिए 10 रुपए रिक्शा का भाड़ा दो । वर्ना हम कैसे जाएंगे ?
डाक्टर ने आधा मिनट गंभीरता से सोचा । और चुपचाप 10 का नोट दादा के हाथ में थमा दिया । इसी में ज्यादा भलाई थी । दादा मुस्काते बाहर आए । और वेटिंग रूम में बैठी अपनी बीबी को आंख मारकर बोले कि - लोग कहते हैं कि " जाको राखे साईयां । मार सके न कोय ' ऐसा कहने वाले निरे मूर्ख हैं । गधे हैं । उनको कहना चाहिए - जाको लूटे साईयां । बचा सके न कोय । बीबी हंसती हुई उठी । और बोली - तो फिर आज कौन से पिक्चर चला जाए मुन्ने के पापा ? इस डाक्टर से आज कितने रुपए वसूल करे ? अरे, बरी बोलो न ।
तुम्हारी जिज्ञासाएं । भाईदास भाई, किसी काम न आएंगी । यहां तो जिज्ञासाएं तोड़नी हैं । यहां तो प्रश्न गिराने हैं । उत्तर मेरे पास कोई नहीं है । उत्तरों का उत्तर है । और वह तुम्हारे भीतर है । उसे खोजने का रास्ता बता सकता हूं । ओशो
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परिभाषाओं को तुम साधना मत समझना । अनेक लोग परिभाषाओं को साधना मान लेते हैं । परिभाषाएं तो केवल इंगित हैं । इशारे हैं । किसी बात को कहने के ढंग हैं । और कहना पड़ता है उल्टी तरफ से । क्योंकि उल्टे से तुम परिचित हो । आनंद को हम बुद्धों की तरफ से तो कह नहीं सकते । क्योंकि उसके लिए फिर कोई भाषा नहीं है । बुद्धों की कोई भाषा नहीं है । वहां तो मौन भाषा है । आनंद को कहना हो । तो अबुद्धों की तरफ से कहना पड़ेगा । अबुद्धों को आनंद का कोई पता नहीं है । अड़चन समझो । बुद्धों के पास कोई भाषा नहीं है । आनंद का अनुभव है । अबुद्धों के पास भाषा है । आनंद का कोई अनुभव नहीं है ।
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प्रत्येक देही अस्तित्व के दो पहलू होते हैं । एक सामान्य और दूसरा किसी भी ज्ञान से युक्त या संयुक्त । जैसे किसी पढोसी डाक्टर आदि को सशरीर रोज देखो । और उसको उसके ज्ञान के स्तर पर जानते हो । तो यह देखना और ही होता है । इसी से श्रद्धा नफ़रत आदर आदि भावों का सृजन होता है । गुरु या अंतर के साधकों, ज्ञानियों का एक प्रकाशित आंतरिक रूप अलग होता है । उसी को देखना असली देखना होता है ।
- भाईदास भाई ! भाई कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो - संन्यास तक । जैसे कि कोई कहे कि जहर तक पीने को तैयार हूं । ऐसी झंझट में न पड़ो । अच्छे भले आदमी । चंगे आए । चंगे ही जाओ । क्या बिगड़ना है ? और तुमसे किसने कहा कि - मैं उत्तरों से भरा हूं । हां, प्रश्नों से खाली हो गया हूं । तुम प्रश्नों से भरे हो । मैं प्रश्नों से खाली हूं । उत्तरों से मैं भरा हूं । इस भ्रांति में न रहो । मैं कोई पंडित नहीं हूं । हां, तुम्हें भी प्रश्नों से खाली होना हो । तो मुझसे जुड़ सकते हो । वही संन्यास है । प्रश्नों के उत्तर नहीं होते । सदगुरु प्रश्नों के उत्तर नहीं देता है । प्रश्नों को तोड़ता है । तुम जरा गौर तो करो कि मैं तुम्हारे जो प्रश्नों के उत्तर देता हूं । वे उत्तर हैं ? कि इधर से लंगड़ी मारी । उधर से 1 दचका दिया । इधर खोपड़ी पर लट्ठ मारा । 1 हुद्दा आगे से । 1 पीछे से । इसको तुम उत्तर कहते हो ? उत्तर होते हैं - शास्त्रों में । यहां तो कुटाई पिटाई हो जाती है । और तुम कह रहे हो कि - आप मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे । यदि आप आश्वासन दें । गारंटी चाहते हो ? 1 ही बात की गारंटी दे सकता हूं कि तुम्हारे प्रश्नों को नष्ट कर दूंगा । 1-1 प्रश्न को उखाड़कर फेंक दूंगा । और उत्तर बाहर से नहीं आते । जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं । तो तुम्हारे भीतर ही उत्तरों का उत्तर । समाधानों का समाधान । इसीलिए तो हम उस अवस्था को समाधि कहते हैं । क्योंकि वह समाधानों का समाधान है । उत्तर नहीं है । जिंदगी कोई स्कूल की परीक्षा नहीं है कि प्रश्न पूछे । और उत्तर दे दिए । लेकिन आदतें हमारी खराब हैं । सड़ी गली आदतें हैं । दकियानूसी आदतें हैं ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
उठो, तमद्दुन के पासबानो । तुम्हारे आकाओं की जमीं से ।
उबल चुके जिंदगी के चश्मे । निशान सिजदों के अब जबीं से ।
मिटाओ, देखो छुपा न ले वो । लहू टपकता है आस्तीं से ।
गुलाम रूहों के कारवां में । नफस की आवाज भी नहीं है ।
उठो, मुहब्बत के पासबानो । ये कोहरो-सहरा, ये दश्तो-दरिया ।
तुम्हारे अजदाद गा चुके हैं । यहां पे वो आतिशीं तराना ।
जो गर्मिए-बज्म था, मगर अब । गुजर गया उसको इक जमाना ।
समंदे-अय्याम बर्क-पा है । उठो कि तारीख हर वरक पर ।
तुम्हारा शुभ नाम ढूंढती है । न देंगे आवाज उसके शह पर ।
जो वक्त उड़ता चला गया है । जमीन आंखों से मत कुरेदो ।
न मिल सकेंगी वो हड्डियां जो । जमीं का तारीक गहरा सीना ।
निगल चुका है--नया करीना । सिखाओ पामाल जिंदगी को ।
उठो, मजारों के पासबानो । चलो न गर्माओ जिंदगी को ।
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर । कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
यह देश क्या है - एक गुलाम रूहों का कारवां हो गया है ।
जिसमें कोई जीवन की घंटियां भी नहीं बजतीं ।
गुलाम रूहों के कारवां में । जरस की आवाज भी नहीं है ।
गुलाम रूहों के कारवां में । नफस की आवाज भी नहीं है ।
घड़ियाल तो क्या बजेंगे । यहां सांस की आवाज तक खो गई है ।
उठो, तमद्दुन के पासबानो । हे संस्कृति के पागलो ।
उठो, मुहब्बत के पासबानो । बहुत हो चुकीं प्रेम की बातें, अब उठो ।
उठो, मजारों के पासबानो । पूज चुके कब्रों को बहुत ।
उठो अब थोड़े जिंदगी को जीओ । ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर ।
कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ ।
भाईदास भाई, तुम कहते हो कि प्रश्नों से भरे हो । तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रश्न होंगे न । और अज्ञान में क्या प्रश्न हो सकते हैं ? और ज्ञान में तो प्रश्न होंगे ही क्यों ? अज्ञान में व्यर्थ के कुतूहल होते हैं । या चालबाजियां होती हैं । या धोखा होता है । या पाखंड होता है । तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हारी ही छाप होगी न । तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रतिबिंब होंगे न । तुम्हारे प्रश्न आखिर तुम्हारे भीतर ही से तो आएंगे । अब बबूल में कोई गुलाब के फूल तो न लगेंगे । अब बबूल के कांटों को मैं बैठा रहूं । तोड़ता रहूं । इससे भी क्या होगा ? नए कांटे उगते रहेंगे । इसलिए मैं तो जड़ मूल से तुम्हें मिटा दूंगा । भाईदास भाई, अगर तैयारी हो बिलकुल मिटने की । तो संन्यासी हो जाओ । आश्वासन 1 देता हूं कि मिटाऊंगा । बिलकुल मिटा दूंगा । जड़ों से उखाडूंगा । कहीं कुछ शेष न रहेगा तुम्हारा तुममें । और जब तुम्हारा तुम में कुछ भी शेष न रहेगा । तो पा जाओगे तुम सभी समस्याओं का समाधान ।
दादा चूहड़मल फूहड़मल बीमार थे । डाक्टर के यहां गए । डाक्टर ने सब जांचा परखा । और 2 दवा की गोली देकर कहा - 1 सुबह 1 शाम खाना । बस 1 ही दिन में बिलकुल चंगे नजर आओगे ।
दादा घबराकर बोले - क्या बोले बरी डाक्टर, नंगे नजर आओगे ।
डाक्टर ने कहा कि - नहीं नहीं, मैंने कहा । चंगे हो जाओगे । यानी मेरी दवा इतनी बढ़िया है कि 1 ही दिन में बिलकुल ठीक हो जाओगे ।
दादा बोले - अच्छा अच्छा, यह बात है । बरी यह तो बताओ कि दवा काहे के साथ खानी है ?
जवाब मिला - चाय या दूध के साथ खाईएगा । दादा को संतोष न हुआ - बरी डाक्टर हमको तो 1 बात बोल दो - या चाय । या दूध । हमको दोहरी बातें ठीक नहीं लगतीं ।
डाक्टर ने कहा - अच्छा तो दूध के साथ गोली लीजिएगा ।
दादा ने पूछा - दूध गाय का । या भैंस का ?
डाक्टर ने कहा - माफ करिए । मुझे और भी मरीज देखने हैं । अब आप ही अकेले तो नहीं कि आप से ही थोड़े ही सिर मारता रहूं । आपको जो दूध मिल जाए । उसी के साथ ले लेना । उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । दादा बोले - बरी डाक्टर, गुस्सा क्यों होते हो ? हम आज पहली बार ही ऐलोपैथी का इलाज करवा रहे हैं । इसलिए सब बातें क्लियर क्लियर जानना चाहते हैं । न हमारे घर गाय है । न भैंस । बकरियां हैं । यदि बकरी के दूध के साथ गोली खा लूं । तो कोई नुकसान तो नहीं है न ?
उत्तर मिला - नहीं ।
मगर दादा की जिज्ञासा अभी समाप्त न हुई - बरी, 1 बार और बताओ न । दूध गर्म चाहिए । या ठंडा ?
डाक्टर ने पिंड छुड़ाने के लिहाज से कह दिया - कुनकुना ।
दादा बोले - ठीक । दूध गिलास में पीना कि कटोरी में ?
डाक्टर को गुस्सा आ गया - साईं ! अब घर भी जाइए न । आपको कुछ और काम नहीं है क्या ?
दादा बोले - काम क्यों नहीं है । पर जब हमने आपको पूरी फीस दी है । तो बदले में हमें भी पूरी पूरी जानकारी तो दीजिए । बताईए कि दूध खड़े खड़े पीना है कि बैठकर पीना है ?
डाक्टर ने अपना माथा ठोंक लिया - साईं ! आप यह लीजिए अपनी फीस वापस । 10 का नोट पकड़ाते हुए उसने कहा - खुदा के वास्ते अब मेरा पीछा छोड़िए ।
दादा बोले - लेकिन बरी तुम तो नाराज होते हो । हम तो सीधा सादा आदमी है । कभी ऐलोपैथी का इलाज नहीं करवाया । इसलिए पूछता है कि दूध खुद अपने हाथ से पीना है । या मेरे मुन्ने की अम्मा यदि पिला दे । तो कोई नुकसान है ?
डाक्टर को भी हंसी आ गई । बोला - साईं, तुम तो बड़ा जानदार आदमी है । जा अब अपने घर । और मुन्ने की अम्मा के हाथ से दूध पी ।
दादा ने कहा - अच्छा तो जाता हूं बरी डाक्टर । मगर 1 बात तो बताओ कि घर तक पैदल जाऊं । या रिक्शे में बैठकर ?
डाक्टर ने कहा - रिक्शे में जाओ । इस बुखार में पैदल चलना ठीक नहीं । दादा डाक्टर से राम राम बरी साईं कहकर चल दिए । डाक्टर ने संतोष की सांस ली । लेकिन आश्चर्य की बात तो तब घटी । जब आधा घंटे बाद दादा लौट आए । और बोले - बरी डाक्टर, तुम कैसा इंसान है ? हमको यह नहीं बताया कि कौन सी गोली सुबह खानी है । और कौन सी शाम को खानी है । हमारा मुन्ने की अम्मा ने हमको बहुत डांटा ।
डाक्टर ने संयम साधकर कहा - यह सुबह खाईए । और यह शाम को ।
दादा बोले - तुम्हारी भूल के कारण हमको वापस आना पड़ा बरी । हमको फिर से घर जाने के लिए 10 रुपए रिक्शा का भाड़ा दो । वर्ना हम कैसे जाएंगे ?
डाक्टर ने आधा मिनट गंभीरता से सोचा । और चुपचाप 10 का नोट दादा के हाथ में थमा दिया । इसी में ज्यादा भलाई थी । दादा मुस्काते बाहर आए । और वेटिंग रूम में बैठी अपनी बीबी को आंख मारकर बोले कि - लोग कहते हैं कि " जाको राखे साईयां । मार सके न कोय ' ऐसा कहने वाले निरे मूर्ख हैं । गधे हैं । उनको कहना चाहिए - जाको लूटे साईयां । बचा सके न कोय । बीबी हंसती हुई उठी । और बोली - तो फिर आज कौन से पिक्चर चला जाए मुन्ने के पापा ? इस डाक्टर से आज कितने रुपए वसूल करे ? अरे, बरी बोलो न ।
तुम्हारी जिज्ञासाएं । भाईदास भाई, किसी काम न आएंगी । यहां तो जिज्ञासाएं तोड़नी हैं । यहां तो प्रश्न गिराने हैं । उत्तर मेरे पास कोई नहीं है । उत्तरों का उत्तर है । और वह तुम्हारे भीतर है । उसे खोजने का रास्ता बता सकता हूं । ओशो
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परिभाषाओं को तुम साधना मत समझना । अनेक लोग परिभाषाओं को साधना मान लेते हैं । परिभाषाएं तो केवल इंगित हैं । इशारे हैं । किसी बात को कहने के ढंग हैं । और कहना पड़ता है उल्टी तरफ से । क्योंकि उल्टे से तुम परिचित हो । आनंद को हम बुद्धों की तरफ से तो कह नहीं सकते । क्योंकि उसके लिए फिर कोई भाषा नहीं है । बुद्धों की कोई भाषा नहीं है । वहां तो मौन भाषा है । आनंद को कहना हो । तो अबुद्धों की तरफ से कहना पड़ेगा । अबुद्धों को आनंद का कोई पता नहीं है । अड़चन समझो । बुद्धों के पास कोई भाषा नहीं है । आनंद का अनुभव है । अबुद्धों के पास भाषा है । आनंद का कोई अनुभव नहीं है ।
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प्रत्येक देही अस्तित्व के दो पहलू होते हैं । एक सामान्य और दूसरा किसी भी ज्ञान से युक्त या संयुक्त । जैसे किसी पढोसी डाक्टर आदि को सशरीर रोज देखो । और उसको उसके ज्ञान के स्तर पर जानते हो । तो यह देखना और ही होता है । इसी से श्रद्धा नफ़रत आदर आदि भावों का सृजन होता है । गुरु या अंतर के साधकों, ज्ञानियों का एक प्रकाशित आंतरिक रूप अलग होता है । उसी को देखना असली देखना होता है ।
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