सर्वत्र व्यापक । शाश्वत तत्व । ग्यान स्वरूप ब्रह्म ही यदि सब के ह्रदय में विधमान नहीं है । तो विस्मृत का बोध कैसे होता है ? स्मरण कैसे होता है ? यह स्मरण किसको होता है ? निश्चित ही चेतन तत्व को होता है । इस चेतन तत्व को ही आत्मा । परमात्मा । ब्रह्म आदि कहा गया है । चेतन तत्व की सत्ता । अणु । परमाणु । अशरीरी । परम व्यापक तत्व । किसी भी रूप में स्वीकार की जाय । करनी ही होगी । अन्यथा जीव को सुख दुख का अनुभव नही होगा । चेतन प्राणीमात्र के ह्रदय में साक्षी रूप से सदा विधमान है । इसलिये वह जीव की प्रत्येक चेष्टा को जानने वाला होता है । और इसी जानकारी से जीव के शुभ अशुभ कर्म का फ़ल समय परमिलता है । यह चेतन तत्व सत्य ग्यान । आनन्द रूप है । इसलिये स्वयं को ब्रह्म रूप में जानकर जीव अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । जैसे एक हेम मणि । पारस पत्थर । से अनन्त लोहा । हेममय हो जाता है । उसी प्रकार ब्रह्म का ग्यान होने पर ग्यानी के द्वारा सृष्टि को जान लिया जाता है । जैसे अंधेरे में रस्सी का सर्प नजर आता है । उसी प्रकार से मोह अंधकार से ग्रस्त जीव अपनी ही आत्मा को नहीं देख पाता । जिस प्रकार दृष्टि में दोष होने पर पदार्थ नजर नहीं आते । या भद्दे और कुरूप दिखाई देते है । उसी प्रकार आकाश की सरूपता । के कारण । आत्म तत्व असत्य या अलग प्रतीत होता है ।
जैसे रस्सी में सर्प । मृगमरीचिका में जल । और सीप में चांदी । का आभास होता है । उसी प्रकार अग्यान से । विष्णु में जगत की प्रतीत होती है । माया से भ्रमित यह जीव । यह मैं ही हूं । ऐसा मानता है । मायारूपी अग्यान के समाप्त हो जाने पर वह फ़िर से । मैं ब्रह्म हूं । ऐसा जान लेता है । अपने स्वरूप का दर्शन कर लेने पर । माया रूपी अग्यान नष्ट हो जाने पर । उसकी मायकि पदार्थों से विरक्ति हो जाती है । जो स्वाभाविक ही है ।
जैसे संसार चक्र अनादि है । वैसे ही " इसके " मूल भगवान की माया भी अनादि है । इस माया के सत और असत । ये दो रूप हैं । व्यवहार काल में यह सत है । और परमार्थ रूप में असत है । माया के कारण ही आज परमात्मा । अपनी ही माया के आवेश से । जगत के रूप में परिणित होता है । माया की ही चेष्टा से पति । पत्नी आदि के रूप में यह सम्पूर्ण जगत कल्पित है । 28 तत्वों का यह त्रिगुणात्मत्क जगत । और चौरासी लाख योनियों के नर मादा । और उनकी विभिन्न आकृतियां । माया के द्वारा ही रचित है ।
त्रिगुणात्मक 28 तत्वों के रूप में ( समझने की कोशिश करें । यह विशेष बात है ? ) माया के द्वारा ही खण्डशः विश्व की सृष्टि होती है । नाम । रूप । क्रिया । आदि जगत की सत्ता मध्य में ही है । आदि में नहीं है । अंत में नहीं है । इसलिये व्यवहार काल में । सत्य प्रतीत होने पर भी । परमार्थतः यह मिथ्या ही है । जिस प्रकार स्वप्न में अनेकानेक अनुभव सत्य प्रतीत होते हैं । किन्तु उनका कोई अस्तित्व नहीं होता । उसी प्रकार परमार्थ जाग्रति में भी ये समृद्धियां प्राणी के पास नहीं रहती । जैसे जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था के पदार्थों का भाव अभाव प्रतीत होता है । वैसे ही मायिक पदार्थ भी । व्यवहार और परमार्थ में सत और असत हैं । स्वप्न और जाग्रति स्थिति में । इस ब्रह्म का ऐसा ही अस्तित्व होता है । किन्तु सुषुप्ति में । प्राणी का चित्त । निश्चित होता है । सभी ग्यानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रिया । तथा मन । आत्मा के साथ एकाकार स्थिति में होता है । इसलिये उस समय प्राणी को सत या असत का ग्यान नहीं होता । इसी निश्चेष्टता । यानी मुर्दावस्था । को अचल और अद्वैत पद कहते हैं । ऐसा ही उस का स्वरूप है । माया का अस्तित्व । अविचार के कारण । सिद्ध होता है । किन्तु विचार करने पर उसका कोई अस्तित्व नहीं है । यह ब्रह्म के समान निरन्तर है । ऐसा वास्तव में है नहीं । बल्कि यह मात्र कल्पना ही है । इस प्रकार उस असत माया का । आत्म सम्बन्ध के कारण । सत्यत्व सिद्ध होता है । और जो सत्य होता है । उसी का अस्तित्व माना जाता है । अस्तित्व के कारण ही पदार्थ की सत्यता सर्वत्र स्वीकार की जाती है । इस प्रकार । यह तुमसे । तुम्हारे द्वारा । तुम्हारे लिये ही । रचाया गया खेल या प्रपंच मात्र है ।
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