अद्वैत तत्व का ज्ञान होने पर - भूत । भविष्य । और वर्तमान के सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं । अद्वैत तत्व को जानना ही सांख्य है । और इसमें एकचित्त होना ही योग है । अद्वैत का ज्ञानी पुरुष । सदविचार रूपी कुल्हाडी से संसार रूपी वृक्ष की जड काट देता है । और ज्ञान । वैराग्य का सहारा लेकर मोक्ष मार्ग पर चलता है । जाग्रति । स्वप्न । और सुषुप्ति । यह तीन प्रकार की अवस्था ही वास्तव में माया है । जो संसार का मूल है । यानी जीव इन्हीं तीन अवस्थाओं में स्थिति है । यह माया जब तक रहती है । संसार सत्य लगता है । वास्तव में शाश्वत अद्वैत तत्व में ही सब कुछ स्थित है । प्रविष्ट है । अद्वैत तत्व ही पारब्रह्म है ।
यह पारब्रह्म । नाम । रूप । क्रिया से रहित है । यह ब्रह्म इस जगत की सृष्टि करके स्वयं उसमें प्रविष्ट हो जाता है । श्रवण । मनन । ध्यान । ये ज्ञान के साधन हैं । यज्ञ । दान । तप । वेद अध्ययन । और तीर्थ सेवन से मुक्ति प्राप्त नहीं होती । बल्कि स्वर्ग आदि की प्राप्ति होती है । कर्म करो । कर्म का त्याग करो । ये दोनों बात वेद कहता है । निष्काम भाव से किये गये यग्य से अंतःकरण की शुद्धि होती है । सही ज्ञान हो जाने पर । सही मार्ग मिल जाने पर । सही मार्गदर्शक मिल जाने पर एक ही जीवन में मुक्ति हो जाती है । द्वैत या भेद बुद्धि रखने पर मुक्ति सौ जीवन में भी सभव नहीं है । इसका सरल सा अर्थ है । छोटे से लेकर बडे से बडे जीव में समान रूप से उसी परमात्मा को देखें । और व्यवहार करें । कु योग अर्थात योग भ्रष्ट होने पर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती । अगले जन्म में योगियों के कुल में उत्पत्ति होने पर भ्रष्ट योगी की दुबारा मुक्ति होती है । यदि वह ऐसा प्रयत्न करे तो । कर्मों से संसार बन्धन । और ज्ञान से मुक्ति होती है । जो आत्मज्ञान से अलग ज्ञान है । वह अज्ञान कहा जाता है । कामनाओं के समाप्त हो जाने पर जीव जीवनकाल में ही मुक्ति का अधिकारी हो जाता है । सर्व व्यापक ब्रह्म कहां जाता है ।
कौन जाता है ? कैसे जाता है । तब ऐसे प्रश्नों का कोई औचित्य ही नहीं है । अनन्त होने के कारण उसका कोई देश नहीं है । अतः उसकी किसी रूप में गति कैसे हो सकती है ? वह अद्वय है । यानी उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है । अतः उससे अलग भी कुछ नहीं है । वह ज्ञान स्वरूप है । चेतन है । अतः उसमें जडता कैसे हो सकती है ? ये ब्रह्म आकाश के समान है । इसलिये उसकी गति या अगति का विचार कैसे होगा ?
जीव की तुरीया यानी जाग्रति । स्वप्न । सुषुप्ति । आदि अवस्था माया द्वारा निर्मित है । अर्थात मिथ्या है । सार ब्रह्म है । आत्मा ब्रह्म है । सभी तत्व को जानने वालों ने इसी ज्ञान को सर्वोच्च कहा है । चित्त का आलम्बन बोध स्वरूप आत्मा ही है । आत्म विज्ञान ही पूर्ण है । शाश्वत है । तुरीया में प्राप्त होने वाला सुख । ब्रह्म का एक क्षुद्र अंश मात्र है
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भावना - कहीं न कहीं यह भय है । जो मुझे संकीर्ण, कठोर, दुःखी, हताश, क्रोधित और आशाहीन कर जाता है । और यह इतना सूक्ष्म लगता है कि मैं किसी तरह भी इससे संबंधित नही हो पाता । मैं इसको और अधिक स्पष्टता से कैसे देख सकता हूं ?
- उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश और हताशा, दुख के साथ एकमात्र समस्या यह है कि तुम इन सबसे छुटकारा पाना चाहते हो । यही एकमात्र बाधा है । तुम्हें इनके साथ जीना होगा । तुम इन सबसे भाग नहीं सकते । यही वे सारी परिस्थितियां हैं । जिनमें जीवन केंद्रित होता है । और विकसित होता है । यही जीवन की चुनौतियां हैं । इन्हें स्वीकार करो । ये छुपे हुए वरदान हैं । अगर तुम इन सबसे पलायन करना चाहते हो । और किसी भी तरह इनसे छुटकारा पाना चाहते हो । तब समस्या खड़ी होती है । क्योंकि जब तुम किसी भी चीज से छुटकारा पाना चाहते हो । तब तुम उसे सीधा नहीं देख सकते । तब वे चीजें तुमसे छिपनी शुरु हो जाती हैं । क्योंकि तब तुम निंदात्मक हो । तब ये सारी चीजें तुम्हारे गहरे अचेतन मन में प्रवेश कर जाती हैं । तुम्हारे अंदर के किसी अंधेरे कोने में घुस जाती । जहां तुम इसे देख नहीं सकते । तुम्हारे भीतर के किसी तहखाने में ये छिप जाती । और स्वभावत: जितने भीतर ये प्रवेश करती हैं । उतनी ही समस्या उत्पन्न होती है । क्योंकि तब वे तुम्हारे भीतर के किसी अनजाने कोने से कार्य करती हैं । और तब तुम बिलकुल ही असहाय हो जाते हो । तो पहली बात - कभी दमन मत करो । पहली बात - जो भी जैसा भी है । वैसा ही है । इसे स्वीकार करो । और इसे आने दो । इसे तुम्हारे सामने आने दो । वास्तव में सिर्फ यह कहना कि दमन मत करो । काफी नहीं है । और अगर मुझे इजाजत दो । तो मैं कहूंगा कि - इसके साथ मित्रता करो । तुम्हें विषाद का अनुभव हो रहा है ? इससे मैत्री करो । इसके प्रति अनुग्रहीत बनो । विषाद का भी अस्तित्व है । इसको आने दो । इसका आलिंगन करो । इसके साथ बैठो । उसका हाथ पकड़ो । उससे मित्रता करो । उससे प्रेम करो । विषाद भी सुंदर है । इसमें कुछ भी गलत नही है । तुमसे यह किसने कहा कि विषाद में कुछ गलत है ? हंसी बहुत उथली होती है । और प्रसन्नता त्वचा तक ही जाती है । पर विषाद हड्डियों के भीतर तक जाती है - मांस मज्जा तक । विषाद से गहरा कुछ भी भीतर प्रवेश नहीं करता । इसलिए चिंता मत करो । उसके साथ रहो । और विषाद तुम्हें स्वयं के अंतरतम केंद्र में ले जाएगा । तुम उस पर सवार होकर अपने स्वयं के बारे में कुछ अन्य नई बातें भी जान सकते हो । जो तुम पहले से नहीं जानते थे । वे बातें सुख की अवस्था में कभी उजागर नहीं हो सकती थीं । अंधेरा भी अच्छा है । और अंधेरा भी दिव्य है । अस्तित्व में केवल दिन ही नहीं है । रात भी है । मैं इस रवैये को धार्मिक कहता हूं ।
कोई व्यक्ति अगर धैर्य पूर्वक उदास हो सके । तो तत्काल ही पाएगा कि 1 सुबह उसके हृदय के अनजाने स्रोत से प्रसन्नता की रसधारा बहने लगी । वह अनजाना स्रोत ही दिव्यता है । इसे तुम भी अर्जित कर सकते हो । अगर तुम सच में ही विषाद का अनुभव कर सको । अगर तुम सच में ही आशाहीन, निराश, दुःखी और दयनीय हो सको । ऐसे जैसे नर्क भोगकर आए हो । तब तुमने स्वर्ग का अर्जन कर लिया । तब तुमने इसकी कीमत चुका दी । जीवन का सामना करो । मुकाबला करो । मुश्किल क्षण भी होंगे । पर 1 दिन तुम देखोगे कि उन मुश्किल क्षणों ने भी तुमको अधिक शक्ति दी । क्योंकि तुमने उनका सामना किया । यही उनका उद्देश्य है । उन मुश्किल के क्षणों से गुजरना बहुत कठिन है । पर बाद में तुम देखोगे । उन्होंने तुम्हें ज्यादा केंद्रित बनाया । जिसके बिना तुम जमीन से जुडे । और केंद्रित नहीं हो सकते थे । पूरे विश्व के पुराने सारे धर्म दमनात्मक ही रहे हैं । भविष्य का नया धर्म अभिव्यक्ति देने वाला होगा । और मैं वही नया धर्म सिखाता हूं - अभिव्यक्त करना । तुम्हारे जीवन का 1 बुनियादी नियम होना चाहिए । इससे अगर तुम्हें पीड़ा भी मिले । तो पीड़ा भी सहो । तुम कभी भी नुकसान में नहीं रहोगे । और यह पीड़ा तुम्हें जीवन का और भी ज्यादा मजा लेने के लिए समर्थ बनाती है । और जीवन में प्रसन्नता भर देती है । ओशो
यह पारब्रह्म । नाम । रूप । क्रिया से रहित है । यह ब्रह्म इस जगत की सृष्टि करके स्वयं उसमें प्रविष्ट हो जाता है । श्रवण । मनन । ध्यान । ये ज्ञान के साधन हैं । यज्ञ । दान । तप । वेद अध्ययन । और तीर्थ सेवन से मुक्ति प्राप्त नहीं होती । बल्कि स्वर्ग आदि की प्राप्ति होती है । कर्म करो । कर्म का त्याग करो । ये दोनों बात वेद कहता है । निष्काम भाव से किये गये यग्य से अंतःकरण की शुद्धि होती है । सही ज्ञान हो जाने पर । सही मार्ग मिल जाने पर । सही मार्गदर्शक मिल जाने पर एक ही जीवन में मुक्ति हो जाती है । द्वैत या भेद बुद्धि रखने पर मुक्ति सौ जीवन में भी सभव नहीं है । इसका सरल सा अर्थ है । छोटे से लेकर बडे से बडे जीव में समान रूप से उसी परमात्मा को देखें । और व्यवहार करें । कु योग अर्थात योग भ्रष्ट होने पर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती । अगले जन्म में योगियों के कुल में उत्पत्ति होने पर भ्रष्ट योगी की दुबारा मुक्ति होती है । यदि वह ऐसा प्रयत्न करे तो । कर्मों से संसार बन्धन । और ज्ञान से मुक्ति होती है । जो आत्मज्ञान से अलग ज्ञान है । वह अज्ञान कहा जाता है । कामनाओं के समाप्त हो जाने पर जीव जीवनकाल में ही मुक्ति का अधिकारी हो जाता है । सर्व व्यापक ब्रह्म कहां जाता है ।
कौन जाता है ? कैसे जाता है । तब ऐसे प्रश्नों का कोई औचित्य ही नहीं है । अनन्त होने के कारण उसका कोई देश नहीं है । अतः उसकी किसी रूप में गति कैसे हो सकती है ? वह अद्वय है । यानी उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है । अतः उससे अलग भी कुछ नहीं है । वह ज्ञान स्वरूप है । चेतन है । अतः उसमें जडता कैसे हो सकती है ? ये ब्रह्म आकाश के समान है । इसलिये उसकी गति या अगति का विचार कैसे होगा ?
जीव की तुरीया यानी जाग्रति । स्वप्न । सुषुप्ति । आदि अवस्था माया द्वारा निर्मित है । अर्थात मिथ्या है । सार ब्रह्म है । आत्मा ब्रह्म है । सभी तत्व को जानने वालों ने इसी ज्ञान को सर्वोच्च कहा है । चित्त का आलम्बन बोध स्वरूप आत्मा ही है । आत्म विज्ञान ही पूर्ण है । शाश्वत है । तुरीया में प्राप्त होने वाला सुख । ब्रह्म का एक क्षुद्र अंश मात्र है
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भावना - कहीं न कहीं यह भय है । जो मुझे संकीर्ण, कठोर, दुःखी, हताश, क्रोधित और आशाहीन कर जाता है । और यह इतना सूक्ष्म लगता है कि मैं किसी तरह भी इससे संबंधित नही हो पाता । मैं इसको और अधिक स्पष्टता से कैसे देख सकता हूं ?
- उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश और हताशा, दुख के साथ एकमात्र समस्या यह है कि तुम इन सबसे छुटकारा पाना चाहते हो । यही एकमात्र बाधा है । तुम्हें इनके साथ जीना होगा । तुम इन सबसे भाग नहीं सकते । यही वे सारी परिस्थितियां हैं । जिनमें जीवन केंद्रित होता है । और विकसित होता है । यही जीवन की चुनौतियां हैं । इन्हें स्वीकार करो । ये छुपे हुए वरदान हैं । अगर तुम इन सबसे पलायन करना चाहते हो । और किसी भी तरह इनसे छुटकारा पाना चाहते हो । तब समस्या खड़ी होती है । क्योंकि जब तुम किसी भी चीज से छुटकारा पाना चाहते हो । तब तुम उसे सीधा नहीं देख सकते । तब वे चीजें तुमसे छिपनी शुरु हो जाती हैं । क्योंकि तब तुम निंदात्मक हो । तब ये सारी चीजें तुम्हारे गहरे अचेतन मन में प्रवेश कर जाती हैं । तुम्हारे अंदर के किसी अंधेरे कोने में घुस जाती । जहां तुम इसे देख नहीं सकते । तुम्हारे भीतर के किसी तहखाने में ये छिप जाती । और स्वभावत: जितने भीतर ये प्रवेश करती हैं । उतनी ही समस्या उत्पन्न होती है । क्योंकि तब वे तुम्हारे भीतर के किसी अनजाने कोने से कार्य करती हैं । और तब तुम बिलकुल ही असहाय हो जाते हो । तो पहली बात - कभी दमन मत करो । पहली बात - जो भी जैसा भी है । वैसा ही है । इसे स्वीकार करो । और इसे आने दो । इसे तुम्हारे सामने आने दो । वास्तव में सिर्फ यह कहना कि दमन मत करो । काफी नहीं है । और अगर मुझे इजाजत दो । तो मैं कहूंगा कि - इसके साथ मित्रता करो । तुम्हें विषाद का अनुभव हो रहा है ? इससे मैत्री करो । इसके प्रति अनुग्रहीत बनो । विषाद का भी अस्तित्व है । इसको आने दो । इसका आलिंगन करो । इसके साथ बैठो । उसका हाथ पकड़ो । उससे मित्रता करो । उससे प्रेम करो । विषाद भी सुंदर है । इसमें कुछ भी गलत नही है । तुमसे यह किसने कहा कि विषाद में कुछ गलत है ? हंसी बहुत उथली होती है । और प्रसन्नता त्वचा तक ही जाती है । पर विषाद हड्डियों के भीतर तक जाती है - मांस मज्जा तक । विषाद से गहरा कुछ भी भीतर प्रवेश नहीं करता । इसलिए चिंता मत करो । उसके साथ रहो । और विषाद तुम्हें स्वयं के अंतरतम केंद्र में ले जाएगा । तुम उस पर सवार होकर अपने स्वयं के बारे में कुछ अन्य नई बातें भी जान सकते हो । जो तुम पहले से नहीं जानते थे । वे बातें सुख की अवस्था में कभी उजागर नहीं हो सकती थीं । अंधेरा भी अच्छा है । और अंधेरा भी दिव्य है । अस्तित्व में केवल दिन ही नहीं है । रात भी है । मैं इस रवैये को धार्मिक कहता हूं ।
कोई व्यक्ति अगर धैर्य पूर्वक उदास हो सके । तो तत्काल ही पाएगा कि 1 सुबह उसके हृदय के अनजाने स्रोत से प्रसन्नता की रसधारा बहने लगी । वह अनजाना स्रोत ही दिव्यता है । इसे तुम भी अर्जित कर सकते हो । अगर तुम सच में ही विषाद का अनुभव कर सको । अगर तुम सच में ही आशाहीन, निराश, दुःखी और दयनीय हो सको । ऐसे जैसे नर्क भोगकर आए हो । तब तुमने स्वर्ग का अर्जन कर लिया । तब तुमने इसकी कीमत चुका दी । जीवन का सामना करो । मुकाबला करो । मुश्किल क्षण भी होंगे । पर 1 दिन तुम देखोगे कि उन मुश्किल क्षणों ने भी तुमको अधिक शक्ति दी । क्योंकि तुमने उनका सामना किया । यही उनका उद्देश्य है । उन मुश्किल के क्षणों से गुजरना बहुत कठिन है । पर बाद में तुम देखोगे । उन्होंने तुम्हें ज्यादा केंद्रित बनाया । जिसके बिना तुम जमीन से जुडे । और केंद्रित नहीं हो सकते थे । पूरे विश्व के पुराने सारे धर्म दमनात्मक ही रहे हैं । भविष्य का नया धर्म अभिव्यक्ति देने वाला होगा । और मैं वही नया धर्म सिखाता हूं - अभिव्यक्त करना । तुम्हारे जीवन का 1 बुनियादी नियम होना चाहिए । इससे अगर तुम्हें पीड़ा भी मिले । तो पीड़ा भी सहो । तुम कभी भी नुकसान में नहीं रहोगे । और यह पीड़ा तुम्हें जीवन का और भी ज्यादा मजा लेने के लिए समर्थ बनाती है । और जीवन में प्रसन्नता भर देती है । ओशो
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आनंद चाहते हो ? आलोक चाहते हो ? तो सबसे पहले अंतस में खोजो । जो वहां खोजता है । उसे फिर और कहीं नहीं खोजना पड़ता है । और जो वहां नहीं खोजता । वह खोजता ही रहता है । किंतु पता नहीं है ।
1 भिखारी था । वह जीवन भर 1 ही स्थान पर बैठकर भीख मांगता रहा । धनवान बनने की उसकी बढ़ी प्रबल इच्छा थी । उसने बहुत भीख मांगी । पर भीख मांग मांग कर क्या कोई धनवान हुआ है ? वह भिखारी था । सो भिखारी ही रहा । वह जिया भी भिखारी । और मरा भी भिखारी । जब वह मरा । तो उसके कफन के लायक भी पूरे पैसे उसके पास नहीं थे । उसके मर जाने पर उसका झोंपड़ा तोड़ दिया गया । और वह जमीन साफ की गई । उस सफाई में ज्ञात हुआ कि वह जिस जगह बैठकर जीवन भर भीख मांगता रहा । उसके ठीक नीचे भारी खजाना गड़ा हुआ था । मैं प्रत्येक से पूछना चाहता हूं कि क्या हम भी ऐसे ही भिखारी नहीं हैं ? क्या प्रत्येक के भीतर ही वह खजाना नहीं छिपा हुआ है । जिसे कि हम जीवन भर बाहर खोजते रहते हैं । इसके पूर्व कि शांति और संपदा की तलाश में तुम्हारी यात्रा प्रारंभ हो । सबसे पहले उस जगह को खोद लेना । जहां कि तुम खड़े हो । क्योंकि बड़े से बड़े खोजियों और यात्रियों ने सारी दुनिया में भटक कर अंतत: खजाना वहीं पाया है ।
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वाहे गुरु । मंत्र -
एक ओंकार सतनाम कर्ता पुरखु, निरभउ, निरवैर ।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि ।
जपु: आदि सचु जुगादि सचु । है भी सचु नानक होसी भी सचु ।
सोचे सोचि न होवई । जे सोची लख बार ।
चुपै चुप न होवई । जे लाइ रहा लिवतार ।
उन्खियां भुख न उतरी । जे बंना पुरिआं भार ।
सहस सियाणपा लख होहि । त इक न चले नालि ।
किव सचयारा होईऐ । किव कुडै तुटे पालि ।
हुकुम रजाई चलणा । नानक लिखिया नालि ।
God is one. His name is true. He is creater. He is without fear. He is inimical to none. He never dies. He is beyond births and deaths. He is self illuminated. He is relaised by the kindness of the true Guru.
Repeat his name.He is true in the beginning.
( Before the anything ( universe ) existed ) He was true when the ages commenced and has ever been true. He is also true now.
Satguru Nanak says that .- He will be certainly true in the future.
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