07 अगस्त 2010

आजकल खुदा के नखरे हज़ार हैं



प्रेम रहस्य है । 1 सबसे महान रहस्य । जिसे जिया जा सकता है । लेकिन उसे जाना नहीं जा सकता । उसका स्वाद लिया जा सकता है । अनुभव किया जा सकता है । पर समझा नहीं जा सकता । वह कुछ ऐसा है । जो समझ के पार है । वह सारी समझदारियों का अतिक्रमण कर जाता है । इसलिये मन में वह अंकित नहीं हो पाता । वह कभी स्मृति नहीं बन पाता । और स्मृति और कुछ भी नहीं । मन के द्वारा लिए हुये नोटस हैं । स्मृति, मन पर अंकित चरण चिन्ह हैं । और प्रेम तो अशरीरी है । उसके चरण चिंह्न मन पर बनते ही नहीं । जब प्रेम प्रार्थना बन जाता है । जब उसका कोई रूप नहीं होता । तो वह अति चेतन द्वारा महसूस किया जाता है । लेकिन इस स्थिति में अति चैतन्य की समझ नहीं होती । क्योंकि उससे हम अभी तक अपरचित थे । ज्यों ज्यों प्रेम बढ़ता है । तो तुम्हें अपने अस्तित्व में उन चीजों का भी बोध होता है । जो अभी तक अनजानी और समझ के परे थीं । जब प्रेम, प्रार्थना के संसार में प्रवेश करता है । तभी वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण और कीमती है । क्योंकि प्रार्थना के पार तो केवल परमात्मा है । प्रार्थना ही प्रेम की अंतिम सीढ़ी है । और 1 बार तुमने उस सीढ़ी से आगे अज्ञात में छलांग लगा ली । तो वही निर्वाण है । वही मुक्ति है ।
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मेरा संदेश छोटा सा है - प्रेम करो । सबको प्रेम करो । इससे बडा ना कोई संदेश है । ना होगा - ओशो ।
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प्रेम बिलकुल अनूठी बात है । उसका बुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं । प्रेम का विचार से कोई संबंध नहीं । जैसा ध्यान निर्विचार है । वैसा ही प्रेम निर्विचार है । और जैसे ध्यान बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता । वैसे ही प्रेम भी बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता । ध्यान और प्रेम । करीब करीब 1 ही अनुभव के 2 नाम हैं । जब किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में ध्यान घटता है । तो हम उसे प्रेम कहते हैं । और जब बिना किसी दूसरे व्यक्ति के । अकेले ही प्रेम घट जाता है । तो उसे हम ध्यान कहते हैं । ध्यान और प्रेम । 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । ध्यान और प्रेम । 1 ही दरवाजे का नाम हैं । 2 अलग अलग स्थानों से देखा गया । अगर बाहर से देखोगे । तो दरवाजा - प्रेम है । अगर भीतर से देखोगे । तो दरवाजा - ध्यान है । जैसे 1 ही दरवाजे पर बाहर से लिखा होता है - एंट्रेन्स । प्रवेश । और भीतर से लिखा होता है - एग्जिट । बहिर्गमन । वह दरवाजा दोनों काम करता है । अगर बाहर से उस दरवाजे पर आप पहुँचे । तो लिखा है - प्रेम । अगर भीतर से उस दरवाजे को अनुभव किया । तो लिखा है - ध्यान । ध्यान अकेले में ही प्रेम से भर जाने का नाम है । और प्रेम दूसरों के साथ ध्यान में उतर जाने की कला है । ओशो
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आत्मीयता: हम सभी इसे चाहते हैं । और हम सभी इससे बचते हैं । क्यों ?
- सभी आत्मीयता से डरते हैं । यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो । या नहीं । आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना । हम सभी अजनबी हैं । कोई भी किसी को नहीं जानता । हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं । क्योंकि हम नहीं जानते कि - हम हैं कौन । आत्मीयता तुम्हें अजनबी के करीब लाती है । तुम्हें अपने सारे सुरक्षा कवच गिराने हैं । सिर्फ तभी  आत्मीयता संभव है । और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच, तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो । तो कौन जाने । कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है । 1 तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है । इसलिए सभी यह चाहते हैं । लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे । संवेदनशील हो जाए । अपने सारे घाव खोल दे । सारे मुखौटे और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे । जैसा वह है । वैसा नग्न खड़ा हो जाए । यदि तुम सामान्य जीवन जीते । प्राकृतिक जीवन जीते । तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता । बल्कि बहुत आनंद होता । 2 ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग 1 बन जाए । और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी, संतुष्टिदायी, संपूर्ण होती है । लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ । तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा । सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है । आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए । तुम्हारा भीतर स्वागत है । और तुम मेहमान बन सकते हो । लेकिन यह तभी संभव है जब तुम्हारे पास हृदय हो । और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो । जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो । जो कि प्राकृतिक है । जैसे कि वृक्ष । जो इतना निर्दोष है । जितना कि 1 बच्चा । तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा ।
विश्रांत होओ । और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है । उसे समाप्त कर दो । वही कहो । जो तुम कहना चाहते हो । बिना फल की चिंता किए । अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो । यह छोटा सा जीवन है । और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए । आत्मीयता के द्वारा । प्रेम के द्वारा । दूसरें लोगों के प्रति खुलकर । तुम समृद्ध होते हो । और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में । गहन मित्रता में । गहन आत्मीयता में जी सको । तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया । और जहां कहीं तुम हो । तुमने कला सीख ली । तुम वहां भी प्रसन्नता पूर्वक जीओगे । लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भय रहित होओ । तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा । जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं । सारा कबाड़ । जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है । इस सबसे मुक्त होओ । और शांति, मौन, आनंद, गीत और नृत्य का जीवन जीओ । और तुम रूपांतरित होओगे । जहां कहीं तुम हो । वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा । अपने प्रेम को उत्सव पूर्ण बनाओ । इसे भागते दौडते किया हुआ कृत्य मत बनाओ । नाचो । गाओ । संगीत बजाओ । और सेक्स को मानसिक मत होने दो । मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है । सेक्स सहज होना चाहिए । माहौल बनाओ । तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए । जैसे कि मंदिर हो । अपने सोने के कमरे में और कुछ मत करो । गाओ । और नाचो । और खेलो । और यदि स्वतः प्रेम होता है । सहज घटना की तरह । तो तुम अत्यधिक आश्चर्य चकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी । पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है । पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं । जो सिखाते हैं कि - प्रेम कैसे करना । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि - प्रेम कैसे करना । और आदमी को सीखना पड़ता है । और उनके सिखाने में बुनियादी बात है । संभोग के पहले की क्रीडा । और उसके बाद की क्रीडा । फोर प्ले । और आफ्टर प्ले । तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है । इसमें क्या बुरा है । यदि आदमी उत्तेजित हो जाए । और कमरे से बाहर नंगा निकल आए ? दरवाजे को बंद रखो । सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि - यह आदमी पागल है । लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है । चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है । अहंकार विहीनता, मन विहीनता, समय विहीनता का अनुभव है । इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं । भला वो छिपाएं । वे इसे ढंक लें । वे किसी को नहीं बताएं । लेकिन वे भय में जीते हैं । यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं । भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया । तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले । इंटीमेसी ( आत्मीयता ) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है । इंटीमम का अर्थ होता है - तुम्हारी अंतरंगता । तुम्हारा अंतरतम केंद्र । जब तक कि वहां कुछ न हो । तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते । तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते । क्योंकि वह सब कुछ देख लेगा । घाव और बाहर बहता हुआ पस । वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन कि तुम पागल आदमी हो कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है । यह आनंद नहीं है । इसी कारण आत्मीयता का भय है । प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं । और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है । ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है । यह तो इसकी सिर्फ परिधि है । आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है । और इसके बगैर भी हो सकती है । ओशो
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मैंने सुना है । मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने कुत्ते से 1 दिन कहा कि - अब ऐसे न चलेगा । तू कालेज में भरती हो जा । पढ़े लिखे बिना अब कुछ भी नहीं होता । अगर पढ़ लिख गया । तो कुछ बन जाएगा । पढ़ोगे लिखोगे । तो होगे नवाब । कुत्ते को भी जंचा । नवाब कौन न होना चाहे । कुत्ता भी होना चाहता है । जब पढ़ लिखकर कुत्ता वापस लौटा कालेज से । 4 साल बाद । तो मुल्ला ने पूछा - क्या क्या सीखा ? उस कुत्ते ने कहा कि - सुनो, इतिहास में मुझे कोई रुचि नहीं आई । क्योंकि आदमियों के इतिहास में कुत्ते की क्या रुचि हो सकती है । कुत्तों की कोई बात ही नहीं आती । कुत्ते ने कहा - बड़े बड़े कुत्ते हो चुके हैं । जैसे तुम्हारे सिकंदर और हिटलर । ऐसे हमारे भी बड़े बड़े कुत्ते हो चुके हैं । लेकिन हमारे इतिहास का कोई उल्लेख नहीं । इतिहास में मुझे कुछ रस न आया । जिसमें मेरा और मेरी जाति का उल्लेख न हो । उसमें मुझे क्या रस ? भूगोल में मेरी थोड़ी उत्सुकता थी । उतनी ही जितनी कि कुत्तों की होती है । हो सकती है । पोस्ट आफिस का खंबा । या बिजली का खंभा । क्योंकि वे हमारे शौचालय हैं । इससे ज्यादा भूगोल में मुझे कुछ रस नहीं आया । मुल्ला थोड़ा हैरान होने लगा । उसने कहा - और गणित ? कुत्ते ने कहा - गणित का हम क्या करेंगे ? गणित का हमें कोई अर्थ नहीं है । क्योंकि हमें धन संपत्ति इकट्ठी नहीं करनी है । हम तो क्षण में जीते हैं । हम तो अभी जीते हैं । कल की हमें कोई फिक्र नहीं । जो बीता कल है । वह गया । जो आने वाला कल है । आया नहीं । हिसाब करना किसको है ? लेना देना क्या है ? कोई खाता बही रखना है ? तो मुल्ला ने कहा - 4 साल सब फिजूल गए ? नहीं - उस कुत्ते ने कहा - सब फिजूल नहीं गए । मैं 1 विदेशी भाषा में पारंगत होकर लौटा हूं । मुल्ला खुश हुआ । उसने कहा - चलो कुछ तो किया । तो चलो विदेश विभाग में नौकरी लगवा देंगे । अगर भाग्य साथ दिया । तो राजदूत हो जाओगे । और अगर प्रभु की कृपा रही । तो विदेश मंत्री हो जाओगे । कुछ न कुछ हो जाएगा । चलो इतना ही बहुत । मेरे सुख के लिए थोड़ी सी वह विदेशी भाषा बोलो । उदाहरण स्वरूप । तो मैं समझूं । कुत्ते ने आंखें बंद की । अपने को बिलकुल योगी की तरह साधा । बड़े अभ्यास से । बड़ी मुश्किल से 1 शब्द उससे निकला । उसने कहा - म्याऊं । - यह विदेशी भाषा सीख कर लौटे हो ? लेकिन कुत्ते के लिए यही विदेशी भाषा है ।
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शैतान से उम्मीद रखो । आजकल खुदा के नखरे हज़ार हैं ।
1 छुपी हुई पहचान रखता हूँ ।
बाहर शांत हूँ । अंदर तूफान रखता हूँ ।
रख के तराजू में । अपनों की खुशियाँ ।
दूसरे पलड़े में । अपनी जान रखता हूँ ।
बंदों से क्या । खुदा से भी कुछ नहीं माँगता । 
मैं मुफलिसी में भी । नवाबी शान रखता हूँ ।
मुर्दों की बस्ती में । ज़मीर को ज़िंदा रख कर ।
ए जिंदगी । मैं तेरे उसूलों का मान रखता हूँ ।
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मुझे कुबूल है मरना भी और जीना भी ।
जो तेरे हक में हो । वो बेहतर फैसला कर दे ।
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रविदास जन्म के कारनै । होत न कोउ नीच ।
नर कूं नीच करि डारि है । ओछे करम कौ कीच ।
रविदास जाती मत पूछइ । का जात का पात ।
बाहम्न खत्री बैस सूद । सभन की इक जात ।
जात पात में जात है । ज्यों केलन में जात ।
रविदास न मानुष जुड़ सकैं । जौं लौं जात न पात ।
जिन्ह करि हिरदै सत बसई । पंच दोष बसि नांहि ।
रविदास तौ नर ऊंच भये । समुझि लेहु मन मांहि । 
पंच दोष तजि जो रहहुं । संत चरन लव लीन ।
रविदास ते ही नर जानई । ऊंचह अऊ कुलीन ।
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हम इस संसार में अकेले ही आते हैं । और अकेले ही विदा हो जाते हैं ।
यह कथन 1 भ्रम मात्र है । मैं तुम्हें वह मार्ग बताऊंगा । जहां न आना पड़ता है । और न जाना पड़ता है ।  ओशो
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उपासना बहुमूल्य है - ओशो ।
इसलिये उपासना, कि तू कहीं न भूल जाय ।
ज्ञान कर्म से विरक्त । व्यर्थ ज्ञान कर्म त्यक्त ।
ज्ञान कर्म बंध में । उपासना सबल सशक्त ।
जीवन संग्राम में । पैर कहीं डगमगाय ।
इसलिये उपासना, कि तू न कहीं भूल जाय ।
लक्ष्य ज्ञान का सुदूर । प्रगतिशील पुरुष शूर ।
बढ़ता है किन्तु ह्रदय । होता जब चूर चूर ।
मात्र एक स्मरण शेष । मुक्ति का चरम उपाय ।
इसलिये उपासना कि, तू न कहीं भूल जाय ।
ज्ञान हो न कर्म हीन । कर्म न हो खिन्न दीन ।
हो न जाय ज्ञान का । प्रकाश कहीं मलिन क्षीण ।
नित्य चिर नवीन रहे । अमर ज्योति जगमगाय ।
इसलिये उपासना कि, तू न कहीं भूल जाय ।
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भगवान बुद्ध जब सरयू नदी के किनारे साधना करते थे । तब देवकन्या वाली घटना हुई थी । सरयू नदी में बहुत कमल के फ़ूल खिलते थे ।
उस जगह आज भी कमल के फ़ूल बहुत हैं ।
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एक गलती कर दी हमने ।  हमने महावीर और बुद्ध को धर्म में बांध दिया । ये तो विचारधारा सारी मानव जाति के लिए है । अगर यह विचारधारा समझ पाते । तो आज दुनियां,  मानव जाति अलग होती ।
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We are the Beloved ! May we always offer ourselves and therefore each other reflections of light and compassion, unconditionally, with boundless love and gratitude, for we stand on both sides of the mirror. 

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326